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यूपी निकाय चुनाव: पार्टियों की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ कितनी कामयाब ?

अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में यूपी में किस पार्टी का ज़ोर नज़र आने वाला है, और पार्टियां किन रणनीतियों पर चलने वाली हैं, ये 13 मई को आने वाले निकाय चुनाव के नतीजे काफी हद तक तय कर देंगे।
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फ़ोटो साभार: PTI

उत्तर प्रदेश के 37 ज़िलों की जनता ने अपने शहर की सरकार यानी मेयर या चेयरपर्सन चुनने के लिए मतदान कर दिया है, बाकी के बचे ज़िलों यानी दूसरे चरण के लिए मतदान 11 मई को किया जाएगा और 13 मई को इसके नतीजे आएंगे। भले ही पहले चरण के चुनाव खत्म हो चुके हों, लेकिन चर्चा के विषय कई हैं, जैसे राजनीतिक दलों को उम्मीद थी खासकर भाजपा को, कि पहले चरण में बंपर वोटिंग होगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं, और जब आंकड़े सामने आए तब वोटिंग महज़ 52 प्रतिशत पर आकर टिक गया।

इन चुनावों में चाहे भाजपा हो या सपा... सभी पार्टियों के बीच अंतर्कलह भी ख़ूब देखने को मिली। ऐसे में कौन सी पार्टी किन रणनीतियों के साथ चुनावी मैदान में उतरी ये देखने वाला विषय है।

बात करते हैं भाजपा की...

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में उतरने के लिए भाजपा ने सवर्ण और गैर यादव ओबीसी की जुगलबंदी से एक समीकरण तैयार किया था, जो उत्तर प्रदेश में अब भी अभेद है। हालांकि पिछले कुछ वक्त से जाट और ओबीसी वोट बैंक के बिखराव का असर पार्टी झेल रही है, ऐसे में एंटी इनकंबैंसी जैसे किसी भी फैक्टर से निपटने के लिए उन वोट बैंक को टारगेट कर रही है, जो अब तक पार्टी से अछूते रहे हैं। जैसे मुस्लिम वोट बैंक पर नज़र। ये कहना ग़लत नहीं होगा कि पसमांदा का मुद्दा छेड़कर भाजपा ने प्रदेश में एक अलग ही राजनीतिक दिशा तय की है। यानी तथाकथित ‘सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास’ वाले नारे की वास्तविकता को दिखाने का दिखावा एक बार फिर भाजपा ने शुरू कर दिया है। यही वजह है कि मुस्लिम विरोधी पार्टी का रूप लेती जा रही भाजपा ने नगर निकाय चुनाव में अलग-अलग पदों पर 391 मुस्लिम उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारा है।

इसके अलावा भाजपा ने सवर्णों और दलितों का मिश्रण भी खूब ठीक से करने की कोशिश की है, इसके तहत 17 नगर निगम में 5 पर ब्राह्मण, 5 पर वैश्य, 2 पर कुर्मी, और तेली, कोरी, धोबी, कायस्थ समाज के नेताओं को 1-1 सीट पर मेयर पद का उम्मीदवार बनाकर जातीय संतुलन साधा है।

हालांकि पार्टी को अंदरूनी खींचतान को रोकने के लिए कानपुर में मेयर उम्मीदवार की घोषणा करने में पुरानी परिपाटी को तोड़ना पड़ा, जैसे कानपुर में निवर्तमान मेयर प्रमिला पांडेय को भाजपा ने दोबारा उम्मीदवार बनाया है, यह पहला मौका है जब कानपुर में भाजपा ने किसी निवर्तमान मेयर को दोबारा चुनाव में उतारा है। यानी ये कहना ग़लत नहीं होगा कि निकाय चुनाव मे उतरने के लिए भाजपा ने पूरे प्रदेश में जमकर जातीय सोशल इंजीनियरिंग की थी।

वहीं बात पार्टी के भीतर अंसतोष की करें तो इन चुनावों में इसका नुकसान पार्टी को उठाना पड़ सकता है। इसका उदाहरण हमने पिछले दिनों भाजपा में व्यवसाई रईस चंद्र शुक्ल के शामिल होने के बाद देखा। जब उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या और नंद गोपाल नंदी आमने-सामने आ गए। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में रईस चंद्र शुक्ल इलाहाबाद दक्षिण सीट से सपा उम्मीवार और अब योगी सरकार में कैबिनेट मंत्री नंदगोपाल नंदी से हार गए थे, नंदी और रईस की लगातार चलती आ रही राजनीतिक दुश्मनी पूरे प्रयागराज में सबको मालूम है, नंदी को जैसे ही रईस चंद्र शुक्ल के भाजपा में शामिल होने की सूचना मिली, वे उबल पड़े। मौर्य की ओर इशारा करते हुए नंदी ने यहां तक कह दिया कि कुछ लोग भाजपा को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चला रहे हैं। कहने का मतलब ये है कि पार्टी के दो बड़े नेताओं का ऐसे ख़ुलकर एक-दूसरे के सामने आना, निकाय चुनाव में चुनौतियां खड़ी कर रहा है।

अब बात समाजवादी पार्टी की...

साल 2017 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद समाजवादी पार्टी प्रदेश में कुछ खास प्रदर्शन नहीं पा रही है, जिसका उदाहरण हमें 2022 विधानसभा चुनावों देखने को मिला। हालांकि पिछले निकाय चुनावों की बात करें तो पार्टी ने एक भी मेयर नहीं बनाया था, लेकिन नगर पालिका और नगर पंचायत में जरूर सपा के समर्थित उम्मीदवारों ने सफलता हासिल की थी। लेकिन इस बार समाजवादी पार्टी नगर निकाय चुनाव में पूरा ज़ोर लगा रही है, और इसके लिए पिछड़े और दलित जातियों को एक साथ लाकर जातिगत समीकरण बनाकर पार्टी चुनाव लड़ रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं को आगे करना है।

दलितों को साधने के लिए सपा मुखिया अखिलेश यादव ने हाल ही में बसपा के संस्थापक कांशीराम की मूर्ति का अनावरण भी किया था। सपा में इतने बड़े बदलाव को इस बात से समझा जा सकता है, कि इस बार सपा अपना परंपरागत वोटर यादव समाज पर अन्य पिछड़ा वर्ग को तरजीह दी है। यादव प्रत्याशियों को दूर रखना और बसपा के किले में सेंधमारी करना ये तो सपा की रणनीति का हिस्सा है, लेकिन पार्टी में अंदरूनी कलह उसे आगे बढ़ने से बार-बार रोक रही है। जैसे चुनाव से दो दिन पहले ही प्रत्याशियों ने दलबदल शुरू कर दिया था, तो कई दिग्गजों ने टिकट नहीं मिलने के कारण पार्टी से दूरी बना ली। जैसे मथुरा-वृंदावन के मेयर प्रत्याशी को ठीक 2 दिन पहले बदल दिया था, यहां से सपा ने अपने पार्टी के प्रत्याशी पंडित तुलसीरा शर्मा को टिकट दिया था, लेकिन बाद में उसकी जगह निर्दलीय राजकुमार रावत को समर्थन देने की घोषणा कर दी। सपा के इस बदलाव से रणनीतिकारों से लेकर कार्यकर्ता तक हैरान हो गए। उधर झांसी में भी सपा ने ऐसा ही किया, पार्टी ने पहले रघुबीर चौधरी को प्रत्याशी बनाया था, बाद में सतीश जतारिया को प्रत्याशी घोषित कर दिया, जिसके बाद कार्यकर्ताओं में असमंजस की स्थिति के कारण वो दो धड़ों में बंट गए।

इन सबमें जो चौंकाने वाला मामला था वो पहली बार आरक्षित हुई सीट शाहजहांपुर से सामने आया। यहां से सपा ने अर्चना वर्मा को प्रत्याशी बनाया था, लेकिन टिकट मिलने के अगले ही दिन वो भाजपा में शामिल हो गईं, जिसके बाद पार्टी के रणनीतिकारों पर सवाल खड़े होने लगे। इसी तरह पार्टी ने बरेली से संजय सक्सेना को प्रत्याशी बनाया था, लेकिन बाद में उनका पर्चा वापस कराने का आदेश दे दिया, जिन्होंने बग़ावत के बाद नाम वापस ले लिया, तो सपा ने उनकी जगह निर्दलीय प्रत्याशी आईएएस तोमर को समर्थन दे दिया। आपको बता दें कि तोमर दो बार बरेली से मेयर रह चुके हैं। चुनावों से ठीक पहले ये बदलाव और सपा के लिए कितना बड़ा नुकसान खड़ा करने वाले हैं ये तो वक्त तय कर देगा, लेकिन समर्थकों के बंटे धड़े आने वाले लोकसभा में पार्टी को नुकसान दे सकते हैं।

बात बसपा की...

चुनाव चाहे लोकसभा के हों, विधानसभा या फिर निकाय... बसपा ने हमेशा सवर्णों और दलितों का तालमेल बैठानी की कोशिश की, लेकिन बदलते हालात के कारण इस बार बसपा ने दलित-मुस्लिम समीकरण पर दांव खेला है। हालांकि उन्हें सपा से भी चुनौती मिल रही है, क्योंकि सपा ने उनके परंपरागत दलित वोटों पर सेंध लगाने की भरपूर कोशिश की है। ऐसे में निकाय चुनावों के लिए महत्वपूर्ण माने जा रहे मुस्लिम वोटरों को लेकर भी मायावती ने बड़ा फैसला लिया। कहने का अर्थ ये है कि 17 मेयर प्रत्याशियों में बसपा ने 11 मुस्लिम उम्मीदवार बनाए हैं, यहां तक ओबीसी के लिए आरक्षित सीटों पर भी बसपा ने मुस्लिम चेहरा उतारा है। बसपा ने बाकी छह में से तीन उम्मीदवार अन्य पिछड़ा वर्ग और दो उम्मीदवार अनुसूचित जाति के उतारे हैं। जिन दो एससी समाज के चेहरों को प्रत्याशी बनाया गया है, उसमें एक सीट महिला के लिए आरक्षित हैं। यानी बसपा ने आगरा से लता को उम्मीदवार बनाया है, जबकि झांसी से बसपा के भगवान दास फुले चुनावी मैदान में हैं। वहीं एक सवर्ण उम्मीदवार बनाया है, हालांकि ये ब्राह्मण नहीं है। बसपा ने जिस सवर्ण को टिकट दिया है, उनका नाम है नवल किशोर नथानी जो अग्रवाल यानी बनिया समाज से आते हैं, और ये गोरखपुर से प्रत्याशी हैं। ऐसे में ये कहा जा सकता है, कि मायावती ने भाजपा ने टक्कर न लेने की योजना बना ली है, और वो सीधे तौर पर सपा और कांग्रेस के वोटरों में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है, जिसे 2024 के लोकसभा चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है। बसपा ने कानपुर से ओबीसी नेता अर्चना निषाद, अयोध्या से राममूर्ति यादव और वाराणसी से सुभाष चंद्र मांझी को उम्मीदवार बनाया है। ओबीसी के लिए आरक्षित चार मेयर सीटों पर बसपा ने मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है, इनमें सहारनपुर से खदीजा मसूद, मेरठ से हशमत अली, शाहजहांपुर से शगुफ्ता अंजुम और फिरोजाबाद से रुखसाना बेगम के नाम शामिल हैं। बसपा ने महिलाओं के लिए आरक्षित तीन मेयर पद में से दो पर भी मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारा है, पार्टी ने गाजियाबाद में निसारा खान और लखनऊ में शाहीन बानो को उम्मीदवार बनाया है। वहीं, सामान्य श्रेणी की सीटों पर मैदान में उतरे अन्य मुस्लिम उम्मीदवारों में अलीगढ़ से सलमान शाहिद, बरेली से यूसुफ खान, मथुरा से रजा मोहतासिम अहमद, प्रयागराज से सईद अहमद और मुरादाबाद से मोहम्मद यामीन के नाम शामिल हैं।

निकाय चुनाव में कांग्रेस कहां है?

वैसे तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लिए कुछ खास बचा नहीं है, और इसका परिणाम हम पिछले सभी चुनावों में देखते आए हैं। हां ये ज़रूर कहा जा सकता है कि भाजपा के बाद शहरी क्षेत्रों में अच्छी पकड़ कांग्रेस की ही रही है। लेकिन फिलहाल वो जनाधार पार्टी के पास नहीं है। लेकिन पूर्व सांसद और पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बृजलाल खाबरी ये दावा कर रहे हैं, कि निकाय चुनावों में पार्टी का वोट प्रतिशत बढ़ेगा।

पिछले निकाय चुनाव में खाता भी नहीं खोल सकी कांग्रेस के लिए कहा जा रहा है कि वो मुरादाबाद सीट पर भाजपा को सीधी टक्कर दे रही है, आपको बता दें कि यहां से कांग्रेस के लिए मेयर प्रत्याशी हाजी रिज़वान कुरैशी हैं, जिनपर भाजपा प्रत्याशी और निवर्तमान मेयर विनोद अग्रवाल ने बूथ कैप्चरिंग का आरोप लगाया है। इसका जवाब देते हुए रिजवान ने कहा कि भाजपा प्रत्याशी को वोट नहीं मिल रहे हैं, इसलिए वो इस तरह का पॉलिटिकल स्टंट कर रहे हैं। रिजवान ने आरोप लगाया कि गर्वेमेंट इंटर कॉलेज मुगलपुरा में चेकिंग के नाम पर मतदाताओं को धमकाकर भगाया जा रहा है।

कुछ अन्य सीटों पर भी मुसलमानों का रुझान कांग्रेस की तरफ देखने को मिला है। फिलहाल यहां ये कहना ग़लत नहीं होगा कि अगर कांग्रेस एक भी मेयर की सीट जीत लेती है, तो उसके लिए बड़ी सफलता होगी और आने वाले लोकसभा चुनाव में उसे मदद मिलेगी। साथ-साथ बृजलाल खाबरी का समर्थन भी कार्यकर्ताओं को मिल सकता है।

निकाय चुनाव में अपना दम दिखाकर सभी राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव 2024 पर दांव लगाने के लिए तैयार हैं, यानी इन चुनावों में जिस पार्टी का जनाधार बढ़ेगा, शहरी क्षेत्रों में वो अपने कोर वोटर्स की संख्या और प्रतिशत का अंदाज़ा लगा पाएगा। इसके अलावा जातियों को लेकर पार्टियों ने जो सोशल इंजीनियरिंग की है, उसे आगे बढ़ाने की भी रणनीतियां तैयार की जाएंगी... और इसके लिए हमें 13 मई यानी नतीजों तक इंतज़ार करना पड़ेगा।

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