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यूपी चुनाव: धीमी मौत मर रहा है भगवान कृष्ण को संवारने-सजाने वाला मथुरा-वृंदावन का उद्योग

हिंदुत्व की उच्च डेसिबल की राजनीति हिंदू और मुस्लिम समुदायों से आने वाले कारीगरों, व्यापारियों और निर्माताओं की आजीविका को बचाने में विफल रही है।
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मथुरा : यहां के मंदिरों में भगवान कृष्ण और राधा की मूर्तियों को पहनाने-सजाने के लिए रेशमी परिधान, छोटे-छोटे मुकुट और हार-माला बनाने वाले मुस्लिम कारीगरों को वर्क ऑर्डर में भारी गिरावट होने, इसके चलते कई कार्यशालाओं के बंद होत जाने और रहे-सहे कारीगरों को कम पगार मिलने की वजह से काफी मुश्किल हो रही है।

COVID-19  के दौरान मंदिरों के लंबे समय तक बंद रहने और लॉकडाउन का सख्ती से पालन किए जाने के कारण कई कार्यशालाओं के शटर गिर गए, जिनमें से अधिकतर ने तो अभी भी अपना कारोबार दोबारा शुरू नहीं किया है। इसके चलते हजारों कारीगर बेरोजगार हो गए हैं।

इन जुड़वां शहरों-मथुरा और वृंदावन-में मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग कीमती पत्थरों, उत्तम कढ़ाई और महंगी 'गोटा' (एप्लिक तकनीक का उपयोग करके की जाने वाली कढ़ाई) की चमचमाती पट्टियों से जड़ी रंगीन वेशभूषा की एक सरणी बना रहा है। वे लोग भगवान के लिए चमकदार मुकुट, हिंडोला, माला और अन्य सजावटी सामान भी बनाते हैं।


ये कारीगर अपने इन उत्पादों का निर्यात अमेरिका, ब्रिटेन और कई अन्य देशों में भी करते हैं, खासकर उन देशों में, जहां इस्कॉन (कृष्ण चेतना के लिए अंतर्राष्ट्रीय सोसायटी) मंदिर स्थित हैं।

कोरोना से पहले, देवी-देवताओं के लिए कढ़ाई वाले कपड़े सिलने में कुशल कारीगरों के लिए साल में जून से अगस्त तक खूब व्यस्त महीना हुआ करता था। लेकिन पिछले दो वर्षों में सब कुछ पहले जैसा नहीं रह गया था। चूंकि घरेलू बाजार या विदेशों से कोई ऑर्डर नहीं मिल रहा था, इसलिए कई कार्यशालाओं को बंद करना पड़ा, जिससे कारीगरों के पास जीविकोपार्जन के लिए अन्य विकल्पों की तलाश करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा।

वृंदावन में कार्यशालाओं में, जहां भगवान कृष्ण के कपड़े सिले जाते हैं, वहां उत्पादन जारी रहा, लेकिन इन्हें भी उन अवधियों में विदेश से लगभग कोई ऑर्डर नहीं मिला, यहां तक कि दो जन्माष्टमी (भगवान कृष्ण का जन्मदिन) बीत जाने से पहले भी ऑर्डर नहीं मिला। घरेलू स्तर भी बेहद छोटे स्तर पर मनाए गए इन समारोहों ने हालांकि इन कारीगरों को किसी तरह जीवित रहने लायक कुछ काम-धाम दिलाने में मदद की, लेकिन उनकी कुल आय इस दौरान गंभीर रूप से ठप पड़ गई।

वृंदावन में, जहां भगवान कृष्ण ने अपना बचपन बिताया था, वहां के कुछ परिधान-निर्माताओं ने कहा कि कोरोना काल के पहले उन्हें देवता के लिए पोशाक एवं उनके श्रृंगार की अन्य सामग्री के लिए हर साल 7-8 करोड़ रुपये से अधिक के ऑर्डर संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, ऑस्ट्रेलिया, मॉरीशस और जहां भी हिंदू बसे हुए हैं,  उन देशों से मिलते थे। लेकिन पिछले दो वर्षों में कम मांग और परिवहन पर प्रतिबंधों के कारण कोई बड़ा ऑर्डर नहीं मिला।

​"​​जन्माष्टमी से पहले हमारे पास बल्क में ऑर्डर मिला करते थे, जिसका मतलब था कि कम से कम दो-तीन महीनों में हमारी कमाई में हजारों की बढ़ोतरी हो जाती थी। लेकिन जिस वर्कशॉप में मुझे काम पर रखा गया था, उसके बंद होने के बाद, मेरे पास कोई काम-धाम नहीं है। भगवान कृष्ण के लिए कपड़े सिलने के बजाय, मैं अपने सात सदस्यों के परिवार के गुजर-बसर के लिए मास्क बना रहा हूं,” परेशान दिख रहे 41 साल के शाकिर शाह ने न्यूज़क्लिक को बताया।

​वृंदावन में एक अन्य कार्यशाला में काम करने वाले 38 साल के साजिद ने भी वही कहानी सुनाई, जब उनसे पूछा गया कि प्रतिबंधों और लॉकडाउन ने किस तरह से उनकी आमदनी पर खराब असर डाला है।

​साजिद ने कहा, "​​जन्माष्टमी से पहले हमारे पास दो-तीन महीने तो दम मारने की फुर्सत नहीं होती थी। हमें 18-18 घंटे ओवरटाइम करना पड़ता था ताकि समय के भीतर आर्डर को पूरा कर सकें। इस दौरान हम हर महीने 20,000-से 25,000​​ हजार के बीच रुपये कमा लेते थे। लेकिन अब दिन में ज्यादा से ज्यादा तीन घंटे का काम रह गया है, जिसकी एवज में हमें केवल कुछ ही हजार रुपये मिलते हैं, जो हमारे परिवार के गुजर-बसर के लिए पर्याप्त नहीं है। ”

मथुरा में एक कार्यशाला में काम करने वाले कारीगर अमीर खान ने कहा कि दो लॉकडाउन ने व्यवसाय को घुटनों पर ला दिया है। “जैसा कि आर्डर मिलने में भारी गिरावट आई है, निर्माताओं ने अपने कारोबार का आकार घटा दिया है। नतीजतन, हम में से कई बेरोजगार हो गए हैं। जो थोड़े लोग काम कर रहे हैं, उन्हें अच्छी पगार नहीं मिल रही है।”

वृंदावन में परिधान-निर्माताओं ने कहा कि लगातार दो लॉकडाउन के परिणामस्वरूप वर्क ऑर्डर के साथ उत्पादन में 60 फीसदी की गिरावट आई है।


उन्होंने कहा कि चूंकि महामारी के दौरान मंदिरों को बंद कर दिया गया था, और विदेशी पर्यटकों को भारत आने से रोक दिया गया था, और परिवहन पर भी प्रतिबंध लगा हुआ था, ऐसे वक्त में देश में जन्माष्टमी समारोह भी लघु स्तर पर मनाए गए थे। हालांकि यही किसी तरह उद्योग को चालू रखे हुए थे, अन्यथा इस तरह की सभी की सभी कार्यशालाएँ बंद हो जातीं।

मथुरा के एक थोक व्यापारी नरेश शर्मा ने कहा कि पूरे भारत और दुनिया भर से तीर्थयात्री ब्रजभूमि आते हैं; लौटते हुए वे अपने देवताओं के लिए रंगीन वस्त्र खरीदते हैं। उन्होंने कहा कि हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के कुशल श्रमिक अपने घरों में या बड़े शोरूम के जरिए स्थापित इकाइयों में भगवान की रंग-बिरंगी पोशाकें और उनके श्रृंगारिक सामान का उत्पादन करते हैं।

कारोबारी शर्मा ने कहा कि ये पोशाकें प्रतिदिन दर्जनों विदेशी देशों में मंदिरों और व्यक्तियों के लिए कुरियर से भेजी जाती हैं। उन्होंने कहा, "मथुरा और वृंदावन पोशाक, मुकुट और नॉक-नैक के निर्माण का केंद्र हैं, हालांकि राजस्थान के नाथद्वारा में भी ऐसी पोशाकें बनाई एवं बेची जाती हैं।"

यह उद्योग कैसे काम करता है, यह बताते हुए, मथुरा के एक निर्माता जुनैद ने कहा कि वे नई डिजाइनों के साथ व्यापारियों से संपर्क करते हैं। एक बार जब नई डिजाइन स्वीकृत हो जाती हैं, तो उन्हें थोक में ऑर्डर मिलते हैं। निर्माता अपने द्वारा नियोजित कारीगरों से ये काम करवा कर समय पर उसकी डिलवरी करा देते हैं।

जुनैद ने कहा कि बिचौलिए भी इस कड़ी में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, और निर्माताओं और व्यापारियों के बीच लाभ मार्जिन के अंतर को अक्सर नीचे ले आते हैं और इससे अंततः उत्पाद महंगा हो जाते हैं। उन्होंने कहा, “कई निर्माता सीधे व्यापारियों के पास नहीं जाते हैं, उन्हें काम का आर्डर बिचौलियों के जरिए मिलता है। ये बिचौलिए ही इस कारोबार पर राज करते हैं। वे निर्माताओं के लाभ मार्जिन में हिस्सा लेते हैं।”

जुनैद ने कहा कि तात्कालिक वजहों के अलावा, सरकार की "दोषपूर्ण" नीतियों ने भी इस उद्योग को बहुत बड़ा झटका दिया है। उन्होंने आगे कहा, “पहले नोटबंदी ने हमारे कारोबार को बुरी तरह बाधित किया, फिर जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) आया। पहले हम कच्चे माल की पूरी खरीद पर 2.5 फीसदी वैट (वैल्यू एडेड टैक्स) का भुगतान करते थे। लेकिन अब, अलग-अलग मदों पर 5 फीसदी से लेकर 18 फीसदी तक जीएसटी शुल्क लिया जा रहा है। इससे हमारी इनपुट लागत बढ़ गई है, लेकिन विभिन्न वस्तुओं के लिए व्यापारियों से हमें जो दर मिलती है, वह कमोबेश एक जैसी ही है।"

जुनैद बताते हैं, "नतीजतन, कई निर्माताओं ने उत्पादों को वजन के बजाय इकाइयों में बेचना शुरू कर दिया है। लेकिन यह भी हमारी मदद नहीं कर रहा है।" जुनैद का यह पुश्तैनी व्यवसाय था।

वृंदावन में इस्कॉन के अधिकारियों ने भी स्वीकार किया कि कोविड-19 के प्रकोप​ से पिछले दो वर्षों से जन्माष्टमी उत्सव पर बुरा असर डाला है। इसके चलते उन्हें देश-दुनिया के 250 मंदिरों में भगवान की पोशाकों एवं उनके श्रृंगार के अन्य सामानों के लिए जारी किए जाने वाले आदेशों में 30 फीसदी की कटौती करनी पड़ी। ​

इस्कॉन के एक अधिकारी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, "हम ​बेहतरीन ढंग से बनाए गए 1000 परिधानों की खरीदारी दुनिया भर में स्थापित भगवान कृष्ण के हमारे मंदिरों के लिए करते थे, जिसकी कीमत ​2.5​​ लाख से ​7.5​​ लाख रुपये के बीच हुआ करती है। लेकिन महामारीजनित संकट के कारण अपना आर्डर घटा कर ​​600​ करना पड़ा।"

यह आरोप लगाया गया है कि विश्व बैंक की 'प्रो पुअर' पर्यटन परियोजना ने बहुत पहले से कारीगरों को बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने के लिए प्रतिबद्ध किया था, लेकिन सरकार ने उत्पादकों को एक विशेष बाजार चलाने में मदद नहीं की जिससे कि लाभ वास्तविक उत्पादन इकाइयों को दिया जा सके।

जो लोग हमेशा चुनाव जीतने के लिए ध्रुवीकरण की "परखी हुई" रणनीति का उपयोग करते हैं और दावा करते हैं कि वे हिंदू धर्म के एकमात्र मशाल वाहक हैं, उन्हें इस उद्योग के बचाव में आगे आना चाहिए, क्योंकि यह भगवान कृष्ण से संबंधित है।

मथुरा-वृंदावन के निर्माताओं का कहना है कि, "​सिर्फ नफरत भरे भाषणों से लोगों को धार्मिक आधार पर बांटने से इन चुनावों में काम नहीं चलेगा।"

हम धीरे-धीरे अलग-थलग पड़ रहे हैं’

​70 ​वर्षीय शरफुद्दीन खान चमकदार मुकुट और उसमें ज़री जरदोज़ी (सोने की स्ट्रिंग) की जटिल सुई का काम दिखाते हुए इस संवाददाता से कहते हैं "​पहले आप अपने हाथ धो लें और फिर किसी भी वस्तु को छुएं क्योंकि यह पवित्र है।" ​खान की यह नसीहत हिंदू धर्म और उसके देवता के प्रति उनके मन में गहरी इज्जत को जाहिर करती है।

मथुरा के मटिया गेट पर शरफुद्दीन खान का अपना वर्कशॉप है, जो श्रीकृष्ण जन्मस्थान से दो किलोमीटर के दायरे में ही है। खान को यह हुनर अपने बालिदैनों से विरासत में मिला है।

मुसलमानों के इस क्षेत्र में एक दम मौजू होने (चूंकि मुस्लिम कारीगर ज़री ज़रदोज़ी कढ़ाई के काम में कुशल हैं), के बावजूद शरफुद्दीन खान को लगता है, उत्तर प्रदेश में नफरत और कट्टरता के माहौल के कारण मुस्लिम कारीगरों को "धीरे-धीरे अलग-थलग" किया जा रहा है।

हिंदू कारीगर पोशाकों की सिलाई करते हैं, आकर्षक पैटर्न और कर्ल बुनते हैं, जो आंख को रमणीय लगते हैं।

खान, जो पिछले 40 वर्षों से इसी धंधे में है, आगे कहते हैं, ​"अब तक, हमारा उद्योग समावेशी रहा है। इसके निर्माता ज्यादातर मुस्लिम हैं, उपभोक्ता हिंदू हैं और व्यापारियों में दोनों समुदायों के सदस्य शामिल हैं। इस व्यवसाय में कुल कार्यबल में से, 40 फीसदी मुस्लिम कारीगर हैं। लेकिन इस भाईचारे को बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है।" ​

वे आगे बताते हैं, "पहले भी सांप्रदायिक दंगे हुए थे, लेकिन वे क्षणिक होते थे। लेकिन नफरत का ऐसा माहौल कभी नहीं रहा।”
अमीर ने दावा किया कि मुस्लिम कारीगर हिंदू देवी-देवताओं की उतनी ही इज्जत करते हैं, जितना कि वे अपने खुदा या अल्लाह की करते हैं। उन्होंने कहा कि जब उनकी कला के लिए उनकी प्रशंसा की जाती है, तो उन्हें खुशी होती है। उन्होंने कहा कि भगवान कृष्ण के लिए पोशाक बनाना "महज रोजी-रोटी का मुद्दा नहीं है बल्कि यह मुस्लिम कारीगरों द्वारा उस देवता को एक भावनात्मक भेंट है।"

आखिर में वे सिर्फ एक ही बात कहते हैं, "हम हिंदुस्तानी हैं, और हमारा काम हमारी मिली-जुली संस्कृति और विभिन्न धर्मों के लिए आपसी सम्मान का प्रतीक है।"

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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