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इशिता! तुम्हारी जाति क्या है?

जाति भारतीय समाज की कटु सच्चाई है। हिन्दी प्रदेश का बौद्धिक तबका इससे इतना आक्रांत है कि मुझे लगता है कि इस प्रदेश का बौद्धिक पिछड़ेपन तथा फासीवाद के बीज इसी में निहित हैं।
Ishita kishor
फ़ोटो साभार: ट्विटर

जाति भारतीय समाज की कटु सच्चाई है। हिन्दी प्रदेश का बौद्धिक तबका इससे इतना आक्रांत है कि मुझे लगता है कि इस प्रदेश का बौद्धिक पिछड़ेपन तथा फासीवाद के बीज इसी में निहित हैं। पिछले दिनों मेरी नज़रों में दो ऐसी घटनाएँ घटित हुईं, जिससे यह पता लगता है कि जाति विमर्श की लोगों के मन कितनी गहरी पैठ है। पहला प्रकरण:-अभी कुछ समय पहले ही गोरखपुर में बहुचर्चित राजनेता हरिशंकर तिवारी; जिन्होंने अपराध से बेशुमार दौलत कमाई तथा राजनीति में आए,की मृत्यु हुई,तो बड़ी संख्या में उनके सजातीय बौद्धिक समुदाय ; प्रोफेसर, बड़े पत्रकार, कवि, लेखक और शिक्षाविद सभी ने इस प्रकार शोक व्यक्त किया, जैसे कि उनका कोई सगा चला गया हो। इससे पहले भी जिन अख़बारों में मैंने गोरखपुर में काम किया, जिनमें 90% पत्रकार उनकी जाति के थे, वे गर्व से उन्हें 'ब्राह्मण शिरोमणि' लिखते थे। दूसरा प्रकरण तो और दिलचस्प है:- '22 मई को यूपीएससी का रिजल्ट निकला, जिसमें बिहार की रहने वाली तथा नोएडा में अध्ययनरत छात्रा इशिता किशोर ने पूरे देश में प्रथम स्थान प्राप्त किया', क्योंकि उसके नाम के साथ न उसकी जाति का और न ही पिता की जाति का उल्लेख था,जो उसकी जाति को बताता। गूगल पर उसी दिन करीब सात लाख लोगों ने उसकी जाति पूछी अब तो यह आंकड़ा बहुत बड़ा हो गया होगा। हिन्दी क्षेत्र की दस प्रमुख जातियों के सोशल मीडिया एकाउंट ने इशिता को अपनी-अपनी जाति का गौरव बताकर बधाइयाँ दीं, फिलहाल अभी भी उसकी जाति की तलाश जारी है। यह प्रवृत्ति सबसे अधिक मध्यवर्ग में पनपी है, क्योंकि जिसके पास गौरव करने के लिए कुछ भी नहीं होता,वह जाति में ही गौरव तलाशता है। विगत कुछ वर्षों पहले जब 'गोरखपुर में चित्रगुप्त महासभा' ने प्रेमचंद जयंती मनाना शुरू किया,तब मुझे ज्ञात हुआ उनकी जाति कायस्थ थी। इसी तरह आजकल दिनकर, निराला, रामबिलास शर्मा और फणीश्वरनाथ रेणु जैसे महान रचनाकारों को भी हमने जाति के आधार पर बाँट लिया है और उसी के आधार पर उनकी प्रशंसा और आलोचना की जाने लगी।

ऐसा नहीं है कि इस तरह की जातिगत अवधारणा पहले नहीं थी। उच्च जातियों में जातिगत अभिमान पहले से ही था, लेकिन उसका इतना विकृत रूप नहीं था। नब्बे के दशक में दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हुईं। पहला 'वैश्विक स्तर पर तथा भारत में भूमण्डलीकरण तथा उदारवादी नीतियों का लागू होना', जिसका परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर निजीकरण हुआ तथा सरकारी नौकरियाँ नाममात्र रह गईं। दूसरा 'मण्डल कमीशन की रिपोर्ट का लागू होना' , जिससे बड़े पैमाने पर पिछड़ों की न केवल सत्ता में तथा नौकरियों में भागीदारी बढ़ी, जिन चीज़ों पर पहले उच्च जातियों का लगभग वर्चस्व था। इन दोनों परिघटनाओं ने उच्च वर्ग में एक तरह की असुरक्षा की भावना पैदा की तथा वे भी पहली बार जातीय अस्मिता के पहचान की तलाश करने लगे। इसी दौर में ब्राह्मणों ने बड़े पैमाने पर परशुराम जयंती तथा राजपूतों ने महाराणा प्रताप की जयंती मनाने की बड़े पैमाने पर लगे। 'ब्रह्मसेना तथा करणीसेना' जैसे अतिवादी संगठन  उभरकर सामने आ गए।  संस्मरण रहे कि राजपूतों की इसी करणीसेना के लोगों ने फिल्म 'पद्मावत' के विरोध में राजस्थान से लेकर दिल्ली तक के सिनेमाघरों में तोड़-फोड़ की थी। इसी समय उच्च जातियों में लेखकों, विचारकों तथा कलाकारों की जयंतियाँ जातिगत आधार पर मनाने का प्रचलन शुरू हुआ। 

दलितों और पिछड़ों में यह प्रवृत्ति एक दूसरे तरह से देखने में आई :- राजनीति और सरकारी नौकरियों में भागीदारी के बावज़ूद उन्हें उच्च जातियों के समान सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हो पाई, तब उनमें भी इतिहास या मिथकों के ऐसे नायकों की तलाश शुरू हुई जिससे वे यह सिद्ध कर सकें, कि उनके इतिहास की परम्परा भी गौरवशाली थी, जिससे वे वर्तमान में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर सकें। इसमें अगर हम देखें तो दलित जातियों में बड़े पैमाने पर 'रविदास या वाल्मीकि जयंती' मनाने का प्रचलन शुरू हुआ,यहाँ तक कि एक अतिपिछड़े समुदाय माली जोतीबा फुले की जयंती मनाने लगा। राजभर समुदाय या पासी समुदाय 'सुहेलदेव' की तथा कोइरी समुदाय अपने को 'अशोक और चन्द्रगुप्त' की परम्परा से जोड़ने लगा। इसी जाति में एक तबका अपने को 'रामायण में वर्णित भगवान राम के पुत्र कुश' से अपने को जोड़ने लगा। ये तो केवल कुछ उदाहरण मात्र हैं,जबकि इसकी सूची बहुत लम्बी है। इस तरह की अस्मिता और जातीय पहचान की राजनीति का सबसे अधिक फ़ायदा भाजपा को मिला, उसने इन अस्मिताओं को हिन्दुत्व से जोड़ दिया।एक उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है।

बिहार में एक मुसहर जाति है, जो अत्यन्त ग़रीबी के कारण चूहे मारकर खा लेते हैं। बिहार में एक बड़े इलाके को मुसहरी कहा भी जाता है, जहाँ पर ज़मीन के सवाल पर 70-80 के दशक में नक्सलवादियों ने बड़े आंदोलन भी चलाए थे। इन्हीं मुसहरों ने शबरी का मिथक ; जो रामायण में एक छोटे से हिस्से के चरित्र के तौर पर सामने आती है, उसके दो भाई 'दीना और भदरी' बताए जाते थे, जो बड़े योद्धा थे,चूँकि मुसहर अपने-आप को शबरी का वंशज समझते हैं,इसे देखते हुए संघ परिवार की हिन्दुत्ववादी ताक़तों को यह कहकर लामबंद करने की कोशिश की गई थी कि वह रामकाज (राम के छूटे हुए काम) को पूरा करने में सहयोग दें। इन दोनों भाइयों (दीना और भदरी) को राम-लक्ष्मण के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है,हालाँकि संघ परिवार के लोग इस बात के प्रति बेहद सचेत हैं कि ठेकेदारों और उनके गुर्गों के ख़िलाफ़ 'नोनिया और बेलदार जातियों' की रक्षा के लिए दीना-भदरी के संघर्ष को बहुत रेखांकित न किया जाए। इस सम्बन्ध में एक दूसरा उदाहरण है:- 'राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद आंदोलन के दौरान भाजपा राष्ट्रीय स्वयंसेवक गठजोड़ ने निषादों के मिथकीय नायक निषादराज गुहया : जिसने कथित तौर पर राम की मदद की थी, उसकी छवि का इस्तेमाल बेहद होशियारी से किया था।' वर्ष 1990 में जब आडवाणी अपनी रथयात्रा पर निकले थे और उनके कारवाँ को अयोध्या पहुँचने से रोका गया था,तब अयोध्या में कारसेवकों को पहुँचाने के लिए इन निषादों को ही लामबंद कि‌या गया था।

वास्तव सच्चाई यह है कि जाति और अस्मिता की राजनीति उस जाति के केवल थोड़े से ऊँचे तबके को ही फ़ायदा पहुँचाती है, पूरी जाति को नहीं तथा इसका सबसे ज्यादा फ़ायदा प्रतिक्रियावादी ताक़तें ही उठाती हैं, जैसा कि हम आज देख रहे हैं कि जातीय नायकों और मिथकों को भाजपा ने बहुत कुशलता के साथ अपने से जोड़कर दलित-पिछडे़ लोगों को अपने साथ लामबंद किया तथा उसे देश की सत्ता हासिल करने में इस परिघटना की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है।

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