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अमेरिका-चीन संबंध निर्णायक मोड़ पर

बाइडेन प्रशासन एक विकट स्थिति में अफगानिस्तान मसले पर चीन से मदद की मांग कर रहा है। दरअसल यह भूमिकाओं का उलट-फेर है, क्योंकि सम्बन्ध तो आमतौर पर अमेरिकी राजनयिक टूलबॉक्स के ही अनुरूप होते रहे हैं।
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पिछले पखवाड़े फोन पर हुई दो बातचीत में चीनी कॉउंसिलर एवं विदेश मंत्री वांग यी (दाएं) ने अपने अमेरिकी समकक्ष एंटनी ब्लिंकन (दाएं) से साफ-साफ कहा कि अफगानिस्तान मसले पर सहयोग-समन्वय किस हद तक होगा, यह चीन के प्रति अमेरिका की नीतियों पर निर्भर करेगा।

बाइडेन प्रशासन अफगानिस्तान पर हताशा की चरम स्थिति में चीन से मदद की गुहार लगा रहा है। इसका सबूत पिछले 16 अगस्त 2021 से लेकर इस महीने के आखिर तक अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की चीनी स्टेट कॉउंसिलर एवं विदेश मंत्री वांग यी से अफगानिस्तान पर सहयोग को लेकर हुई फोन पर उनकी बातचीत है। 

इसे लेकर अमेरिका की चुप्पी से लगता है कि दोनों मंत्रियों के बीच दोनों ही बार की बातचीत खास कर अफगानिस्तान मसले पर ही हुई होगी। लेकिन, पेइचिंग ने जोर दे कर कहा कि बातचीत चीन-अमेरिकी संबंधों पर हुई। उसने बहुत विस्तार से बताया कि उनके बीच क्या-क्या बातचीत हुई !  

ब्लिंकन ने वांग को पहला फोन 16 अगस्त को किया था। इसके बारे में विदेश मंत्रालय ने बताया कि यह बातचीत अफगानिस्तान में “सुरक्षा के हालात और काबुल से अमेरिकी नागरिकों एवं पीआरसी नागरिकों को सुरक्षित वापसी को लेकर हमारे जारी प्रयासों के बारे में की गई थी।”

दूसरा फोन 29 अगस्त 2021 को किया गया था।यह फोन “तालिबान के जनता के प्रति किए गए वादों की जिम्मेदारी निभाने को लेकर उस पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबाव की अहमियत जताने के सिलसिले में की गई थी। तालिबान ने समझौते के वक्त वादा किया था कि वह अफगानियों एवं विदेशी नागरिकों की आवाजाही की आजादी को सुनिश्चित करेगा एवं अफगानिस्तान से जाने के लिए सुरक्षित रास्ता देगा।”

जाहिर है कि इस मामले में वाशिंगटन को चीन की मदद की सख्त जरूरत है। लेकिन, इसके लिए चीन ने कुछ शर्तें रख दी हैं। हालांकि, यह भूमिकाओं का एक अजीब उलट-फेर है, क्योंकि सम्बन्ध तो आमतौर पर अमेरिकी राजनयिक टूलबॉक्स के ही अनुरूप होते रहे हैं। 

पेइचिंग ने वाशिंगटन पर ताना मारा कि चीन के प्रति उसकी दुश्मनी की नीतियों के जारी रहते मदद मांगने की यह कोशिश पूरी तरह से अवास्तविक है। सवाल तो असल यह है कि चीन को उसकी मदद क्यों करनी चाहिए?

अमेरिका का सहूलियत के हिसाब से रिश्ते बनाना बड़ा आम रहा है, ऐतिहासिक रूप से इसे पूर्व सोवियत संघ से रिश्तों में नरमीयत लाने में उपयोग किया गया था। दुर्भाग्यपूर्ण है कि सोवियत-विघटन के बाद का रूस भी आज अमेरिका के साथ वैसी ही चुनिंदा सम्बन्ध बनाये जाने वाला रवैया रखे हुए है। लेकिन, अमेरिका रूस को उतनी अहमियत नहीं देता, उसे एक कमतर मानता है।

चीन की बात कुछ और है। अफगान के आज के परिदृश्य में वह अधिक प्रासंगिक और असरदार है। जब तक अमेरिका अफगानिस्तान में सुरक्षा मुहैया कराता रहा, तबतक चीन अपरोक्ष रूप से फायदे में रहा, लेकिन आज के हालात में ऐसा नहीं है। इसके अलावा, चीन के पास अमेरिकी मंशाओं पर गहरी शंका करने का कारण भी है।

यह शीशे की तरह एकदम साफ है कि पराजित आइएसआइएस के लड़ाकों को सीरिया के मैदान से हवाई जहाज के जरिए यहां लाया गया था। उन्हें लाने वाले को स्थानीय लोकभाषा में दाएश एयरलाइंस के रूप में जाना जाता है। इन लड़ाकों को आज आइएसआइएस कहा जाता है। हामिद करजई ने खुद कहा है कि बिना किसी निशान वाले हेलीकाप्टर्स अंधेरे का फायदा उठाते हुए इन अजनबियों को देश के दूर-दराज इलाके में गिरा गए थे। और यह काम तब किया गया था, जब अफगान का आसमान बदस्तूर नाटो की निगहबानी में था! 

यह कहना काफी है कि परस्पर भरोसा एवं सम्मान के बिना पेइचिंग अफगानिस्तान के मामले में अमेरिका के साथ किसी तालमेल का समर्थन नहीं कर सकता। यह चीन की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज से भी काफी जोखिम भरा और खतरनाक है। 

अमेरिकी विदेश मंत्री ब्लिंकन ने चीनी विदेश मंत्री वांग को पहला फोन 16 अगस्त 2021 को किया था, जिसका मकसद चीन को तालिबान पर यह दबाव डालने के लिए सहमत करना था कि तालिबान “अतिवादी रवैया छोड़े, कायदे से हुकूमत को बदले और सबको साथ लेकर चलने वाली सरकार का गठन करे... तथा मुल्क छोड़ने के ख्वाहिशमंद सभी लोगों को हिफाजत से यहां से जाने दे।” 

लेकिन वांग ने ब्लिंकन को झिड़क दिया, यह कहते हुए उन पर उंगली भी उठा दी कि मौजूदा संकट केवल यही दिखाता है कि “आयातित विदेशी मॉडल की यांत्रिक नकल एक ऐसे मुल्क के अनुरूप नहीं हो सकती,जिसका इतिहास, जिसकी संस्कृति, जिसकी राष्ट्रीय स्थितियां पूरी तरह से अलग और विशिष्ट हों और आखिरी बात यह कि इन परिस्थितियों में खुद को वहां जमा लेना तो एकदम असंभव है।” संक्षेप में अमेरिका को निर्देश देने की कोई नैतिक अथवा राजनीतिक हैसियत नहीं है।

बुनियादी रूप से वांग ने दोहराया कि अफगानिस्तान को यह तय करना है कि वह “अपनी राष्ट्रीय स्थिति के मुताबिक”  एक उदार एवं सबको साथ लेकर चलने वाला राजनीतिक ढांचा बनाए। सरल शब्दों में, अफगान तालिबान इस्लामिक पद्धति पर आधारित शासन व्यवस्था को चुनता है, जिसकी ज्यादा उम्मीद है, तो भी चीन उसके साथ रहना सीख  सकता है। और, अगर तालिबान संगठन पश्चिमी शैली के बहु-दलीय पार्टी वाले लोकतंत्र, चुनाव इत्यादि वाला ढ़ांचे को चुनता है, तो भी उसे कोई दिक्कत नहीं है। 

वांग ने मशविरा दिया कि अमेरिका को इन बातों में उलझने की बजाए अपना ध्यान अफगानिस्तान में रचनात्मक भूमिका निभाने में लगाना चाहिए। उसे अफगानिस्तान में  “स्थिरता कायम करने, अशांति को दूर करने तथा शांति एवं पुनर्निर्माण को साकार करने”  में सहयोग करना चाहिए। दूसरे शब्दों में, अमेरिका यहां फिर कोई दखल देने से दूर रहे और अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में मदद करे।

वांग यह कहते हुए ब्लिंकन पर बरस पड़े कि अमेरिका को सबसे पहले विगत में पूर्वी तुर्केमेनिस्तान इस्लामिक आंदोलन को एक आतंकवादी संगठन करार देने के “गलत एवं खतरनाक” फैसलों को सुधार कर और “आतंकवाद-निरोध के मसले पर दोहरे मानदंड” को तत्काल रोकते  हुए उसे “अफगानिस्तान एवं अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद-निरोधक सहयोग के मुद्दे पर चीन-अमेरिका सहयोग के आड़े आने वाली बाधाओं को दूर करनी चाहिए।”

वांग ने ब्लिंकन को स्पष्ट रूप से याद दिलाया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच वीटोधारी देशों में से एक चीन भी है और वह “समकालीन अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में” एक प्रमुख भागीदार है। इसीलिए, जहां एक तरफ़ “अमेरिकी पक्ष एकतरफा और जानबूझ कर चीन को आगे बढ़ने से रोकता है एवं दबाब बनाता है।  उसके वैध अधिकारों एवं हितों को भी नजरअंदाज करता है। वहीं दूसरी तरफ, चीन से समर्थन एवं सहयोग की आस भी रखता है, तो ऐसा वह नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसे तर्क अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में कहीं नहीं टिकते।” 

ब्लिंकन ने वांग को साफ तौर पर भरोसा दिलाया है कि अमेरिका और चीन के बीच के मतभेदों को "आने वाले दिनों में रचनात्मक तरीके से धीरे-धीरे हल किया जा सकता है।" उन्होंने "रचनात्मक और व्यावहारिक तरीके से" क्षेत्रीय सुरक्षा पर अमेरिका-चीन सहयोग की भी बात की।   

28 अगस्त को हुई दूसरी बातचीत में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की सुरक्षित निकासी सुनिश्चित करने के सिलसिले में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में वाशिंगटन की योजना को लेकर चीनी समर्थन के साथ-साथ यह गारंटी देने के लिहाज से खास थी कि तालिबान अफगानिस्तान को आतंकवाद के लिए एक सुरक्षित आश्रय में नहीं बदलेगा।

वांग की प्रतिक्रिया थी कि अफगानिस्तान के हालात में "बुनियादी बदलाव हुए हैं, और सभी पक्षों के लिए तालिबान के साथ संपर्क बनाना और सक्रिय रूप से मार्गदर्शन करना जरूरी है… खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका को अफगानिस्तान को लेकर तत्काल जरूरी आर्थिक, आजीविका और मानवीय सहायता मुहैया कराने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ काम करने की जरूरत है, नए अफगान राजनीतिक ढांचे को सरकारी संस्थानों के सामान्य संचालन को बनाए रखने, सामाजिक सुरक्षा और स्थिरता को कायम रखने, मुद्रा मूल्यह्रास और मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने और जल्द से जल्द शांतिपूर्ण पुनर्निर्माण के सफर को शुरू करने में मदद करने की जरूरत है।”  

सीधे-सीधे शब्दों में कहें, तो चीन तालिबान पर दबाव बनाने को लेकर सुरक्षा परिषद का इस्तेमाल करने के किसी भी अमेरिकी कोशिश को रोक देगा। वांग ने अफगानिस्तान में सुरक्षा स्थिति के लिए अमेरिका को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराया और कहा कि वाशिंगटन को "दोहरे मानदंडों का इस्तेमाल करना या आतंकवाद से चुनिंदा तरीके से लड़ना बंद कर देना चाहिए।"

वांग ने इस बात को दोहराया कि पेइचिंग इस पर विचार करेगा कि उसे "चीन के प्रति अपने रवैये के आधार पर संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ कैसे जुड़ना है।" दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने चीन के खिलाफ वाशिंगटन के "वुहान-वायरस" अभियान को आगे बढ़ाने की भी बात कही।

यह बात साफ है कि अफगानिस्तान की घटना के बाद अमेरिका-चीन रिश्ता चौराहे पर खड़ा है। चीन को लेकर बाइडेन प्रशासन ने जो सख्त रुख अपनाया था, अब उसके टिके रहने की संभावना नहीं है। पेइचिंग का मानना है कि उसने तूफान को थाम लिया है। इसके उलट अमेरिका आज एक बहुत ही कमजोर महाशक्ति है, जिसमें आत्मविश्वास और राष्ट्रीय एकता की कमी है, और अफगानिस्तान में मिली हार ने इसकी विश्वसनीयता को धूमिल कर दिया है।

यह इस बात से और भी साफ हो गयी है कि अमेरिका की अगुवाई के सिलसिले में ट्रान्साटलांटिक गठबंधन के भीतर के मतभेद सामने आ गए हैं और इससे वाशिंगटन के लिए चीन के खिलाफ अपनी नियंत्रण रणनीति के पीछे यूरोपीय सहयोगियों को लामबंद करने की कोशिशें और भी मुश्किल हो जाएंगी। अंतरराष्ट्रीय धारणा तो यही है कि अफगानिस्तान में मिली हार अमेरिकी आधिपत्य के अंत का प्रतीक है।

कोई शक नहीं कि अफगान संकट का अमेरिकी राजनीति पर भी गंभीर असर पड़ेगा। इस संकट में 2022 में मध्यावधि चुनाव के बाद कांग्रेस को नियंत्रित करने को लेकर डेमोक्रेट की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने की क्षमता है, और यह संदेह बढ़ रहा है कि राष्ट्रपति बाइडेन को दूसरा कार्यकाल मिल भी पायेगा या नहीं।

मार्च में हुई उस अलास्का वार्ता के मुकाबले ब्लिंकन इस समय खुद शांत पड़ गए दिखते हैं, जहां उन्होंने "ताकत की हैसियत" से चीन से बात करने पर जोर दिया था। वे दिन अब लद गए हैं कि कभी ब्लिंकन चीन के आंतरिक मामलों में आसानी से घुस जाते थे और चोट पहुंचाकर बाहर निकल आते थे।

हाल के अपने दक्षिण-पूर्व एशियाई दौरे के दौरान उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी चीन की राजनीतिक व्यवस्था या उसके घरेलू मुद्दों से किनारा कर लिया था। अमेरिका के लिए चीन के सहयोग और मदद की जरूरत निकट भविष्य में दोनों देशों के रिश्तों का मूलमंत्र बनने जा रही है।

इस पृष्ठभूमि में बाइडेन के विशेष दूत जॉन केरी एक सितंबर को चीन के दौरे पर हैं। केरी के पास अमेरिका-चीन रिश्तों का भरपूर अनुभव है और उन्हें बाइडेन का भरोसा भी हासिल है। ब्लिंकन अपने पूर्ववर्ती माइक पोम्पिओ के रास्ते पर चल रहे हैं और मेगाफोन कूटनीति का सहारा ले रहे हैं, जिसमें चीनी अधिकारियों का समर्थन भी है। यहीं केरी की कम अहम कूटनीति से फर्क पड़ सकता है। आखिरकार, अफगानिस्तान को लेकर अमेरिका और चीन के बीच हितों में शायद ही समानता है, जिसे वांग ने कभी नकारा नहीं है।

(एम.के.भद्रकुमार एक पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।)

साभार: इंडियन पंचलाइन

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