ईरान की एससीओ सदस्यता एक बेहद बड़ी बात है
15 सितंबर को तीन "समुद्री सीमाओं वाले लोकतांत्रिक" देशों का सुरक्षा गठबंधन AUKUS (ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका) का ऐलान, और 17 सितंबर को ईरान को पूर्ण सदस्य के रूप में शंघाई सहयोग संगठन में शामिल करना पिछले सप्ताह के दो ऐसे बड़े घटनाक्रम हैं, जिनका नाता किसी वैगनरियाई संगीत नाटक की तरह एक दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है।
यह दोनों घटनाक्रम किसी अदृश्य बाधाओं को पार करने जैसा है। AUKUS को यूएस-चीन प्रतिद्वंद्विता के एक नमूने के तौर पर पेश किया जा रहा है, लेकिन ऑस्ट्रेलिया को पनडुब्बियों से लैस करना कोई छोटी बात नहीं है। ऑस्ट्रेलिया अपनी मौजूदा छह कॉलिन्स-श्रेणी की पनडुब्बियों को चालू रख पाने के लिए संघर्ष कर रहा है और अब इसे परमाणु ऊर्जा से चलने वाली पनडुब्बियों का एक बेड़ा बनाने के लिए तैयार किया जा रहा है, जिसके लिए उसके पास न तो प्रशिक्षित लोगों का समूह है और न ही ज़रूरी बुनियादी परमाणु ढांचा है। AUKUS की ख़ौफ़नाक़ हक़ीक़त यही है कि इसके बारे में विस्तार से बहुत कम जानकारी है।
AUKUS की समय सीमा 10-20 साल की होनी चाहिए, इससे कम नहीं। लेकिन, तब तक तो भगवान ही जानता है कि चीन तेज़ी के साथ कहां पहुंच चुका होगा। इतना तो तय है कि AUKUS चीन के ख़िलाफ़ परमाणु युद्ध को लेकर नहीं अस्तित्व में आया है।
दूसरी ओर, परमाणु पनडुब्बियां उच्च गति से पूरी तरह पानी के भीतर अपना काम करने ही लगे,यह तो तक़रीबन अनिश्चित है। वे पश्चिमी प्रशांत और दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर और हिंद महासागर के विशाल महासागरों के दोहन को लेकर अगले 10-20 सालों की समयावधि में आर्टिफ़िशियल इंटेलीजेंस जैसे आने वाले दिनों के संसाधनों से सुसज्जित ऑस्ट्रेलिया को सुरक्षा मुहैया कराने की क्षमता से लैस कर सकते हैं।
संसाधनों पर कब्ज़े के लिए संघर्ष तेज़ हो रहा है और यह संघर्ष महामारी के बाद बड़ी शक्तियों के आर्थिक सुधार के सबसे अहम पहलू के तौर पर उभर रहा है।
इसी तरह, ईरान की सदस्यता को लेकर एससीओ की औपचारिक मंज़ूरी में भी कहीं न कहीं भू-आर्थिक प्रोत्साहन ही है। चीन और रूस की अगुवाई वाले एससीओ ने इस निर्णायक क्षण तक पहुंचने के लिए पूरे 13 सालों तक अपने पांव धीरे-धीरे आगे बढ़ाये हैं।
2008 में एससीओ की सदस्यता के लिए तेहरान के आवेदन के बाद एससीओ ने 2010 के ताशकंद शिखर सम्मेलन में भी नया मानदंड अपनाया था, जो यह तय करता है कि किसी महत्वाकांक्षी सदस्य देश को "संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के ज़रिये उस पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया चाहिए, "जिसका उद्देश्य ईरान को प्रभावी ढंग से अयोग्य घोषित करना हो !
हालांकि, 2015 के जेसीपीओए के मद्देनज़र ईरान के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र के ये प्रतिबंध हटा लिये गये थे, फिर भी एससीओ ने कार्यप्रणाली बदलने से पहले छह साल का समय लिया! मानें या न मानें, ताजिकिस्तान, जिसकी विदेश नीति शायद ही कभी स्वतंत्र रही हो, उसने ईरान की सदस्यता को रोका हुआ था!
ज़ाहिर है, तेहरान का एससीओ में ज़ोरदार स्वागत के साथ शामिल करना और इस संगठन का जल्दबाज़ी के साथ विस्तार किया जाना दिखाता है कि बीजिंग और मॉस्को के बीच ज़बरदस्त तालमेल है।
तीन बातों पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। सबसे पहले और सबसे अहम बात तो यह है कि ईरान के ख़िलाफ़ पश्चिमी प्रतिबंध जल्द ही हटाये जाने वाले हैं। ईरान ने अपनी इच्छा से यूरेनियम संवर्धन को समायोजित करने की पहल को रोक लिया है, ऐसे में अमेरिका के पास सिर्फ़ दो ही विकल्प बचते हैं और वह यह कि अमेरिका या तो ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला करे और उन्हें तबाह कर दे (जिसका मतलब चौतरफ़ा युद्ध होगा), या फिर धमकाना छोड़ दे और सही मायने में किसी समझौते पर पहुंचे, ताकि तेहरान अपनी जेसीपीओए प्रतिबद्धताओं को लेकर जल्द से जल्द मजबूर हो जाये।
रूस पर तेहरान की निर्भरता और वियना वार्ता में चीन की मदद कम हो गयी है, जबकि वाशिंगटन की हताशा साफ़-साफ़ दिखती है। ब्रिटेन की बिल्कुल नयी नवेली विदेश सचिव लिज़ ट्रस 20 सितंबर को अपने ईरानी समकक्ष अमीर अब्दुलाहियन के साथ वार्ता के लिए अपने विदेशी दौरे में फटाफट न्यूयॉर्क पहुंच गयी हैं।
यूके के विदेश मंत्रालय के मुताबिक़, ट्रस के इस मिशन का मक़सद अब्दुल्लाहियन को यह बताना है कि "यूके, यूएस और हमारे अंतर्राष्ट्रीय साझेदार परमाणु समझौते को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध हैं, लेकिन हर बीतते दिन के साथ ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए बातचीत में देरी करता रहा है, इसका मतलब यह है कि वहां कूटनीति के लिए कम गुंज़ाइश है।"
इसके अलावा, "विदेश सचिव ईरान को लेकर उसकी परमाणु प्रतिबद्धताओं का पूरी तरह अनुपालन करने के बदले प्रतिबंध हटाने के अमेरिकी प्रस्ताव को फिर से रखेंगी। वह ईरान से परमाणु समझौते पर वियना वार्ता (JCPoA) में फिर से लौटने का आह्वान करेंगी, और एक बार फिर ईरान की उन परमाणु प्रतिबद्धताओं के अनुपालन पर ज़ोर देंगी, जो कि सभी पक्षों के सर्वोत्तम हित में है।”
बेशक, "ट्रस (यह भी) कहेंगी कि हमारे देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्तों का कोई भी नया रूप एक साझे हित में होना चाहिए, लेकिन ईरान के निरंतर परमाणु ग़ैर-अनुपालन और बढ़ते परमाणु कार्यक्रम इस अहम प्रगति के बीच आड़े आ रहे हैं।"
अगर सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाये, तो ट्रस का प्रस्ताव यह होगा कि प्रतिबंधों के हटने के बाद ही पश्चिमी शक्तियों और ईरान के बीच के रिश्तों का एक "नया रूप" सही मायने में शुरू हो सकता है।
मास्को और बीजिंग ईरान को एससीओ के शिविर में लाने की जल्दीबाज़ी में हैं। जो शुरूआत में आते हैं,फ़ायदा उसे ही मिलता है। इससे पहले कि तेहरान के लिए दिखती यह सहूलियत बाद में पश्चिमी साथियों की भीड़ के साथ मुश्किल में न बदल जायें, मास्को और बीजिंग अपनी चालें चल रहे हैं।
मास्को को ईएईयू (Member states of the Eurasian Economic Union) और ईरान के बीच व्यापार समझौते को मज़बूत करने और ईरान के पुनर्निर्माण में एक बड़ी हिस्सेदारी पाने की उम्मीद है। जहां तक चीन का सवाल है, तो उसे उम्मीद है कि ईरान के साथ कथित 25-वर्षीय 400 बिलियन डॉलर के आर्थिक समझौते लागू हों, जो जल्द ही बड़ी कमाई देना शुरू कर देगा।
इस बीच, तेहरान में नयी "रूढ़िवादी" सरकार का उदय उनके लिए एक आश्वस्त करने वाला कारक बन गया है। इब्राहिम रईसी सरकार ने पूर्वी देशों के साथ घनिष्ठ रिश्ता बनाने में रुचि दिखायी है और यह मास्को और बीजिंग जल्द से जल्द इसका फ़ायदा उठा लेना चाहते हैं।
हालांकि, कुछ बातें चिंताजनक भी हैं, जो इस तरह हैं: रईसी सरकार भी एक कट्टर राष्ट्रवादी सरकार है जो देश की सामरिक स्वायत्तता को संजोये रखेगी और राष्ट्रीय हितों को सुरक्षित करने के लिहाज़ से वह शायद ही कोई समझौता करे और इसने पश्चिमी पूंजी और उन्नत प्रौद्योगिकी से देश के आर्थिक उत्थान के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किये हैं।
रईसी के विदेश मंत्री के रूप में अमीर अब्दुल्लाहियन का चुनाव अपने आप में एक बेहद आकर्षक घटनाक्रम है। वह 1979 की क्रांति के आदर्शों के प्रति अपनी अटूट प्रतिबद्धता के सिलसिले में संकल्पित राजनीतिक साख वाले एक उच्च अनुभवी पेशेवर राजनयिक हैं, जो आईआरजीसी के कुलीन क़ुद्स फ़ोर्स के दिवंगत प्रमुख जनरल क़ासिम सुलेमानी के क़रीबी सहयोगी भी थे। दोनों ने मिलकर एक साझे नज़रिये के साथ ईरान की न्याय और प्रतिरोध की राजनीति के मक़सद से दिवंगत जनरल की सहज व्यावहारिकता के आधार पर अमेरिका के प्रयासों के समानांतर इराक़ में आईएसआईएस के ख़िलाफ़ शक्तिशाली तरीक़े से एक ज़बरदस्त संघर्ष छेड़ दिया था।
अब्दुल्लाहियन उन अमेरिकी राजनयिकों से भी परिचित हैं जिन्होंने 2007 में बग़दाद में ग्रीन ज़ोन में अमेरिकी कब्ज़े के तहत एक अशांत इराक़ में साथ-साथ बने रहने के उन बुनियादी नियमों पर वार्ता की थी, जो बाद में तेहरान के लिए काम आयी। यह तय है कि इस पूरे सप्ताह अब्दुल्लाहियन न्यूयॉर्क में सबकी नज़र के केन्द्र में होंगे।
आख़िरकार, अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ी से बदल रही स्थिति को लेकर ईरान का रवैया एससीओ के ख़ुद के भविष्य के लिए बेहद अहम होने जा रहा है। भले ही रूस और चीन अपनी आतंकवाद-विरोधी चिंताओं के राग अलाप रहे हों, लेकिन यह पूरी कहानी नहीं है,बल्कि यह असली कहानी भी नहीं है। जैसा कि इतिहास में कोई भी महान शक्ति करती, वे भी अफ़ग़ान पुनर्निर्माण के नज़रिये से आगे बढ़ रहे हैं।
वे इस बात को लेकर पूरी तरह सचेत हैं कि अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य पश्चिमी देश भी जल्द से जल्द अफ़ग़ानिस्तान के ट्रिलियन-डॉलर मूल्य के खनिज भंडार तक पहुंच बनाने ने की कोशिश करेंगे।
रूसी टिप्पणीकार अफ़ग़ानिस्तान के भीतर जल्द से जल्द विशेष बलों के अभियान की ज़रूरत पर बातें कर रहे हैं। जिस तरह माली या कुछ अन्य अफ़्रीकी देशों में खनिज संसाधनों को लेकर बड़ी शक्तियों के बीच एक क्रूर शक्ति संघर्ष चल रहा है,उसी तरह का संघर्ष अफ़ग़ानिस्तान पर भी छिड़ सकता है।
रूस और चीन अपनी नीतियों के बीच तालमेल बैठा रहे हैं। ईरान यहां एक "X" फ़ैक्टर बन गया है। उम्मीद है कि एससीओ की सदस्यता तेहरान को मास्को और बीजिंग के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित करेगी, जो कि अभी तक एक परिकल्पना ही बनी हुई है। अब तक तो ईरान ने अफ़ग़ानिस्तान के प्रति बहुत हद तक एक स्वतंत्र नीति ही अपनायी है।
पहली बार, 17 सितंबर को दुशांबे में एससीओ शिखर सम्मेलन के मौक़े पर ईरान रूस, चीन और पाकिस्तान के साथ एक विशेष विदेश मंत्री स्तर के प्रारूप में दिखायी दिया। लेकिन, यह एक सतही प्रदर्शन था, क्योंकि अब्दुल्लाह न्यूयार्क के लिए पहले ही दुशांबे छोड़ चुके थे।
ईरान सही मायने में एक 'स्विंग स्टेट' बना हुआ है। अपनी गौरवपूर्ण सभ्यतागत विरासत को देखते हुए इसमें भीड़ में चलने की मानसिकता का अभाव है। चाहे सीरिया और इराक़ हो या फिर अफ़ग़ानिस्तान का मामला हो, विश्व समुदाय में बढ़ते इसके एकीकरण से ईरान की सामरिक स्वायत्तता कमज़ोर नहीं होगी। गेंद अब सही मायने में और पूरी तरह से पश्चिमी देशों के पाले में है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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