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यूक्रेन की बर्बादी का कारण रूस नहीं अमेरिका है!

तमाम आशंकाओं के बाद रूस ने यूक्रेन पर हमला करते हुए युद्ध की शुरुआत कर दी है। इस युद्ध के लिए कौन ज़िम्मेदार है? कौन से कारण इसके पीछे हैं? आइए इसे समझते हैं। 
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पिछले महीने से यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध छिड़ जाने की आशंकाएँ चल रही थीं, लेकिन ये आशंकाएँ तब हक़ीक़त में बदल गईं जब रूस ने आज सुबह यानी गुरुवार को ही यूक्रेन पर हमला कर दिया। वैसे में इस युद्ध के कारणों और उसके पीछे के इतिहास को जान लेना ज़रूरी है। 

यूक्रेन की राजधानी कीव है। कीव से रूस की राजधानी मास्को तक पहुंचने में मुश्किल से 2 घंटे का समय लगता है। लेकिन यूक्रेन से अमेरिका की दूरी तकरीबन 10 हजार किलोमीटर है। मानचित्र उठा कर देखेंगे तो यूक्रेन और रूस एक दूसरे के पड़ोसी नजर आएंगे। यूक्रेन और रूस की मौजूदगी दुनिया के पूर्वी हिस्से में दिखेगी तो अमेरिका की मौजूदगी यूक्रेन और रूस से बिल्कुल विपरीत दुनिया के पश्चिमी हिस्से में दिखेगी। भौगोलिक मौजूदगी से जुड़े इस चित्र को उकेरने का मकसद था कि बिना किसी जानकारी के भी सामान्य समझ से यह बात समझी जा सके कि रूस और यूक्रेन के बीच के  आपसी तनाव को दोनों देश आपस में सुलझा सकते हैं बशर्ते अमेरिका खुद को दूर रखे। अमेरिका की यहां कोई जरूरत नहीं है।

रूस और यूक्रेन के विवाद में जो सबसे नया मोड़ आया है वह यह है कि यूक्रेन के पूर्वी इलाके डोंबास क्षेत्र के दो प्रांत डोनेटस्क और लुगांस्क को रूस ने संप्रभु राष्ट्र की मान्यता दे दी है। बदले में अमेरिका और यूरोप के देशों की तरफ से रूस पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए हैं। राष्ट्र के नाम संबोधन में पुतिन ने कहा कि जो काम पहले कर देना चाहिए था वह अब किया जा रहा है। रूस पूर्वी यूक्रेन के डोनेत्स्क पिपल्स रिपब्लिक DNR और लुगांस्क पिपल्स रिपब्लिक LPR को संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता देता है और अब इन इलाकों में शांति कायम करना रूस की शांति सेना की जिम्मेदारी है। पुतिन ने कहा कि यूक्रेन कठपुतलियों के इशारे पर चलने वाला एक उपनिवेश भर है। जहां रूसी बोलने वालों को दबाया जाता है। पुतिन ने यूक्रेन की संप्रभुता को काल्पनिक तक बता दिया। साल 2014 से ही यूक्रेन के पूर्वी इलाके खुद को यूक्रेन से अलग करने के संघर्ष में लगे हुए थे। अगर यूक्रेन के पूर्वी इलाके के संघर्ष को केंद्र में रखकर रूस और यूक्रेन की तनातनी को समझने की कोशिश की जाए तो रूस और यूक्रेन के तनाव की जड़ में पहुंचा जा सकता है।

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रूस और यूक्रेन के आपसी विवाद को बहुत संक्षिप्त में समझने की कोशिश करें तो बात यह है कि यूक्रेन साल 1991 तक सोवियत रूस का हिस्सा था। जब सोवियत रूस का विघटन हुआ तब रूस के पश्चिमी हिस्से पर यूक्रेन नामक देश का उदय हुआ। समय के झंझावात से परेशान होकर देश तो बन जाते हैं लेकिन संस्कृतियां नहीं बदलती है। और जब तक संस्कृतियों को एक दूसरे को पूरी तरह से अलग ना करें तब तक अलगाव कर पाना बहुत मुश्किल होता है। रूस के पश्चिमी हिस्से से कटकर यूक्रेन देश तो बना लेकिन यूक्रेन का पूर्वी और रूस का पश्चिमी हिस्सा सांस्कृतिक तौर पर एक ही रहा। यही वजह है कि देश बन जाने के बाद भी यूक्रेन के पूर्वी हिस्से का समर्थन हमेशा से रूस को मिलता रहा।

इसी पूर्वी यूक्रेन के दो प्रांत- डोनेत्स्क पिपल्स रिपब्लिक DNR और लुगांस्क पिपल्स रिपब्लिक LPR को रूस ने संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता दे दी है। अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार कहते हैं कि साल 1991 में जब यूक्रेन बना तब से लेकर अब तक देखा जाए तो यूक्रेन में तीन तरह के राजनीतिक विचार हावी हैं। पहला विचार वह है जो यूरोपियन यूनियन और अमेरिका का समर्थन करता है। दूसरा विचार वह है जो रूस का समर्थन करता है। और तीसरा विचार वह है जिसके केंद्र में यूक्रेन पहले आता है और यूक्रेन को ध्यान में रखते हुए अमेरिका और रूस का समर्थन आता है। यूक्रेन का पूर्वी हिस्सा शुरू से ही रूस के समर्थन में रहा है। यूक्रेन के पूर्वी हिस्से की संप्रभुता को लेकर के रूस और यूक्रेन के बीच शुरू से ही तनातनी चलती आ रही है।

जो विचार उसका समर्थन करता है उसके खिलाफ बोलने वाली जनता को अमेरिका का सहारा मिलता है। अमेरिका बहुत लंबे समय से चाह रहा है कि यूक्रेन पर उसकी छत्रछाया बनी रहे। चूंकि यूक्रेन और रूस एक ही तरह की संस्कृति का हिस्सा रहे हैं इसलिए रूस से अलगाव चाहने वाले यूक्रेन के लोगों को लगता है कि यूक्रेन का ज्यादातर संबंध यूरोप की ओर होना चाहिए। 

यूक्रेन के पूर्वी हिस्से का तनाव इतना गहरा है कि वहां अलगाववादी घटनाएं होती आई हैं। साल 2014 में यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में शांति स्थापित करने के लिए बेलारूस की राजधानी मिंस्क में यूक्रेन, रूस, फ्रांस और जर्मनी के बीच मिंस्क समझौता हुआ। यह समझौता फेल हो गया। शांति स्थापित नहीं हुई। इसकी वजह यह थी कि यूक्रेन का कहना था कि यूक्रेन के पूर्वी हिस्से डोनेटस्क से रूस अपनी सेना हटा ले। वह पूरा क्षेत्र यूक्रेन का हो जाए। उधर रूस को यह भरोसा था कि यूक्रेन का पूर्वी क्षेत्र रूस का ही रहेगा इसलिए रूस पूर्वी क्षेत्र में जनमत संग्रह की मांग कर रहा था। रूस का कहना था कि जनमत संग्रह के जरिए यूक्रेन के पूर्वी क्षेत्र की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का फैसला किया जाए।

यूक्रेन को डर था कि अगर जनमत संग्रह होगा तो यूक्रेन का पूर्वी क्षेत्र यूक्रेन के हाथों से निकल जाएगा। यूक्रेन के पूर्वी क्षेत्र में रूस के समर्थन में मौजूद नैरिटिव को हटा पाना यूक्रेन के बस की बात नहीं।यूक्रेन का पूर्वी क्षेत्र यूक्रेन के बाकी क्षेत्रों से तकरीबन 427 किलोमीटर की सीमा रेखा से जुड़ा हुआ है। औद्योगिक तौर पर देखा जाए तो यूक्रेन का पूर्वी क्षेत्र समृद्धि क्षेत्र है। इसलिए पूर्वी क्षेत्र को यूक्रेन गंवाना नहीं चाहता। 

रणनीतिक लिहाज से यूक्रेन का पूर्वी क्षेत्र रूस के लिए महत्वपूर्ण है। इधर यूक्रेन को लगता है कि जब तक पूर्वी क्षेत्र में शांति स्थापित नहीं होगी तब तक यूक्रेन खुद को यूरोपियन यूनियन में शामिल होने के लिए खुद को ढंग से प्रस्तुत नहीं कर पाएगा। 

यूक्रेन अपने दम पर तो रूस से भिड़ंत कर नहीं सकता है। इसलिए साल 2016 से यूक्रेन ने नाटो की मदद लेनी शुरू की। साल 2016 में नाटो ने घोषणा की कि यूक्रेन को भावी हमलों से बचाने के लिए नाटो अपने सैन्य प्रतिष्ठानों को पूर्वी यूरोप के पोलैंड लिथुआनिया और एस्तोनिया जैसे बाल्टिक देशों में स्थापित कर रहा है। साल 2018 में नाटो के साथ यूक्रेन के पश्चिमी इलाके में सैन्य अभ्यास के कैंप लगे। दिसंबर 2021 में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने नाटो की सदस्यता लेने का ऐलान किया था। यूक्रेन की इस घोषणा के बाद से ही रूस की नाराजगी बढ़ गई है। रूस की नाराजगी स्वाभाविक भी है क्योंकि नाटो की यूक्रेन में मौजूदगी का मतलब है कि रूस की सुरक्षा को खतरा।

अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार इस पूरे प्रकरण पर अपनी राय रखते हुए कहते हैं कि असल सवाल तो यह है कि अगर नाटो यूक्रेन की मदद करना चाहता है तो अब तक यूक्रेन को सदस्यता क्यों नहीं दी? और यूरोपियन यूनियन ने अब तक यूक्रेन को अपने भीतर शामिल क्यों नहीं किया? जब हम इस सवाल का जवाब ढूंढते हैं तो जो जवाब सामने आता है उससे लगता है कि तनातनी तो जारी रहेगी लेकिन युद्ध नहीं होगा। वजह यह है कि नाटो के सदस्यों को पता है कि यूक्रेन के पूर्वी हिस्से पर रूस की मजबूत मौजूदगी है। अगर वह युद्ध लड़ेंगे तो ज्यादा नुकसान नाटो को ही होगा। यह भारत अमेरिका को भी पता है कि कई तरह के झूठे नैरिटब गढ़कर अगर हमला किया गया तो अफगानिस्तान से भी बुरा होगा। नुकसान केवल अमेरिका का होगा। फायदा किसी का भी नहीं होगा। फायदा केवल उन कंपनियों का होगा जो अमेरिका सहित पश्चिम की दुनिया में हथियार के कारोबार में लगी हुई हैं। उन्हीं की लॉबी युद्ध का उकासावा छेड़ रही है। जिस पर यूक्रेन के राष्ट्रपति का कहना है कि अमेरिका के युद्ध की बयानबाजी की वजह से उसके देश में डर का माहौल बन गया है। अमेरिका इस तरह की बयानबाजी करने से बाज आए। 

जहां तक यूरोपियन यूनियन की सदस्यता की बात है तो जब यूरोपियन यूनियन की पूरी सदस्यता यूक्रेन को मिलेगी तो बेहतर जिंदगी की चाह में बहुत बड़ा प्रवास यूरोप के देशों की तरफ होने लगेगा। इस चिंता के डर से यूरोप वाले यूरोपियन यूनियन की सदस्यता यूक्रेन को नहीं दे रहे हैं। 

न्यूज़क्लिक के एडिटर इन चीफ प्रबीर पुरकायस्थ अपने इंटरव्यू में बताते हैं कि साल 1991 के बाद जब से यूक्रेन बना है तब से ही उसकी आर्थिक हालात रसातल में गिरती गई है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि अमेरिका की वजह से रूस के साथ युद्ध का माहौल यूक्रेन में हमेशा बना रहा। इस माहौल से यूक्रेन कारगर तरीके से बाहर नहीं निकल पाया। अमेरिका की हमेशा से यह चाहत है कि यूक्रेन उसकी छत्रछाया में चले ना कि रूस के। 1991 में जो यूक्रेन की जीडीपी थी, उसके मुकाबले यूक्रेन 20% और कमजोर हुआ है। यूक्रेन में तकरीबन 50% से ज्यादा लोग रूसी नस्ल के है। इनका स्वाभाविक लगाव रूस से हो जाता है। लेकिन फिर भी अमेरिका की चाहत की वजह से इस देश के लोगों का बंटवारा अमेरिकी समर्थक और रूसी समर्थक के बीच होते रहा है। यही इस देश में राजनीतिक विवाद का कारण है। करीबन 3 महीने से वहां जंग की आबोहवा चल रही है। यह आबोहवा यूक्रेन के लिए बहुत खराब है। यही देख कर यूक्रेन के राष्ट्रपति का कहना है कि जंग उनके हित में नहीं है। उन्हें शांति चाहिए। यूक्रेन की परेशानी का हल कभी भी जंग का डंका बजाकर नहीं निकल सकता। जंग की बहुत कम उम्मीद है।

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