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भारतीय सार्वजनिक जनजीवन में धर्म की भूमिका को समझना

प्यू द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट के लिए किए गए सर्वेक्षण में भारत के अधिकांश लोगों ने कहा है कि विविधता भारत के लिए फ़ायदेमंद है, लेकिन व्यक्तिगत तौर पर समुदायों की आपस में अलगाव पसंद है। 
भारतीय सार्वजनिक जनजीवन में धर्म की भूमिका को समझना
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

पिछले हफ्ते, न्यू यॉर्क के प्यू रिसर्च सेंटर ने भारतीय सार्वजनिक जीवन में धर्म की भूमिका के बारे में एक नया सर्वेक्षण किया था। इसकी रिपोर्ट, भारत में धर्म: सहिष्णुता और अलगाव, धर्म की बदलती भूमिका और देश में धर्मनिरपेक्षता के ऊपर पर कुछ दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। दक्षिणपंथी राजनीति के उदय या उसकी तरक्की के संदर्भ में, यह रिपोर्ट सामाजिक संबंधों के बारे में आम धारणाओं पर संदर्भ का एक नया ढांचा प्रदान कर सकती है और यह जांचने में मदद कर सकती है कि क्या इसके विकल्पों के लिए कोई जगह बची है।

रिपोर्ट से निकाले गए कई निष्कर्षों में एक मुख्य विचार यह पाया गया कि 66 प्रतिशत हिंदू खुद को मुसलमानों से बहुत अलग पाते हैं, यह एक ऐसी भावना है जिसे 64 प्रतिशत मुसलमान भी साझा करते हैं। रिपोर्ट ने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि भारतीय लोग "एक साथ मिलकर धार्मिक सहिष्णुता के प्रति उत्साह तो व्यक्त करते हैं लेकिन साथ ही वे अपने धार्मिक समुदायों को अलग-अलग रखने को निरंतर वरीयता देते हैं- यानी वे अलग-अलग रहकर भी एक साथ रहते हैं"।

ये दो भावनाएँ विरोधाभासी लग सकती हैं, लेकिन कई भारतीयों के लिए ऐसा नहीं है। जबकि वे भारतीय विविधता का सम्मान करते हैं, वे इस अंतर को इस तरह से महत्व देते हैं जो उनकी पहचान को अलग करता है। यहाँ यह ध्यान रखना जरूरी है कि धार्मिक समुदायों के भीतर यह प्रमुख लोकाचार है। यहां, अलगाव का मतलब आम पड़ोस से बचने और अंतर-धार्मिक विवाह का विरोध करने को संदर्भित करता है। ऐसा लगता है कि भारतीय लोगों को मान्यता के बारे में वैध चिंताओं को लोकप्रिय पूर्वाग्रहों से अलग करना चुनौतीपूर्ण लगता है। कम से कम पूर्वाग्रह का कुछ हिस्सा इस बात का अभिन्न अंग है कि कैसे समुदाय खुद का निर्माण और खुद का प्रतिनिधित्व करते हैं; और यहीं पर दक्षिणपंथी राजनीति आती है, जो इन मतभेदों पर चिंताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है और विविधता की स्वीकृति या संस्कृति को कमजोर करने का प्रयास करती है।

सर्वेक्षण में शामिल अधिकांश लोगों ने महसूस किया कि विविधता भारत के लिए फायदेमंद बात है। रिपोर्ट ने यह भी दर्ज़ किया कि 2019 में भाजपा को वोट देने वाले लगभग दो-तिहाई (65 प्रतिशत) हिंदु महसूस     करते हैं कि हिंदू होना और हिंदी बोलना वास्तव में भारतीय होने का सबसे महत्वपूर्ण घटक है। यह समूह यह भी महसूस करता है कि धार्मिक विविधता से भारत को लाभ मिलता है और इसकी तुलना में हिंदुओं के लगभग अन्य आधे हिस्सा (करीब 47 प्रतिशत)  जिन्होंने 2019 में गैर-भाजपा दलों को वोट दिया था, वे मानते हैं कि भारत को विविधता से कोई लाभ नहीं मिला है।

दक्षिणपंथ के कई अभियान, फिर चाहे वे "घर वापसी", "लव जिहाद", "जबरन धर्मांतरण" या "एंटी-रोमियो स्क्वॉड" हों, ये सभी अभियान हिंदू और भारतीय होने के अंतर्निहित संगम की अपील है जो हिंदू समुदाय के बीच प्रचलित है। हालाँकि, धर्मनिरपेक्ष संगठनों द्वारा "इस्लामोफोबिया" की झूठी धारणा पर चलाए गए अभियानों के जरिए सामुदायिक पहचान बनाने के प्रयास इस विरोधाभासी तरीके को कमजोर करती हैं। (जैसा कि मैंने पहले लिखा था, जब बहुसंख्यक लामबंदी एक फोबिया का दावा कर रही है, उसके मुक़ाबले में केवल यह दोहराना कि 'इस्लामोफोबिया है' बहुसंख्यक समुदाय के लिए इस तरह की तरजीह बहुत कम मायने रखती है)। इस तरह के अभियान एक तरफ विविधता और अंतर के बीच निरंतरता और दूसरी तरफ मान्यता और पूर्वाग्रह के बीच की समझ बनाने में विलक्षण रूप से अनुपयोगी साबित हुए हैं।

इस तथ्य का पता लगाना कि पहचान अनिवार्य है, इस तरह की कई भावनाएं सभी धार्मिक समुदायों के भीतर हैं। अंतर-धार्मिक विवाहों के प्रतिरोध को इस संबंध में भी समझना होगा जिसे डॉ॰ बीआर अंबेडकर ने अंतर-जातीय विवाह के जरिए जातिगत मतभेदों को मिटाने का तरीका बताया था। अधिक सौहार्दपूर्ण समझ के साथ-साथ अंतर-धार्मिक मतभेद कैसे मौजूद हैं कि समुदाय एक-दूसरे की सांस्कृतिक या जनसांख्यिकीय खतरा पैदा किए बिना सह-अस्तित्व में रह सकते हैं (योगी आदित्यनाथ के भाषण के विपरीत जो कहते हैं कि दो अलग-अलग धार्मिक "समुदाय" सह-अस्तित्व में नहीं रह सकते हैं)। क्या अंतर-धार्मिक विवाहों के प्रश्न के प्रति व्यक्तिगत पसंद और एक तटस्थ दृष्टिकोण ऐसे प्रश्न में शामिल नैतिकता और चिंताओं की समस्या को सुलझा पाएगा, खासकर जब वे भारतीय दक्षिणपंथ द्वारा जानबूझकर चलाए जा रहे अभियानों का केंद्र बन गए हैं?

आलोचक दार्शनिक रिचर्ड रॉर्टी ने तर्क दिया कि 1960 के दशक तक, प्रगतिवादियों या प्रगतिशील ताकतों का ज़ोर "सांस्कृतिक मान्यता" के बजाय "पूर्वाग्रह के उन्मूलन" पर अधिक था। "मतभेदों की राजनीति" और मान्यता के दावे को साबित करने के लिए पहचान के महत्व पर अनुचित जोर देने से पूर्वाग्रहों के खिलाफ लड़ाई कमजोर पद गई। उन्होंने उस वक़्त कहा था कि बजाय इसके, हमें "सामान्य मानवता" के सरल विचार को प्रोत्साहित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, जो विचार समानताओं को उजागर करता है, जहां सभी समुदायों को समान बुनियादी जरूरतों अधिकारों को समान रूप से हासिल करने में अपमान और प्रताड़णा का सामना करना पड़ता है। भारत में पहले के धर्मनिरपेक्ष लोकाचार ने इस तरह की धारणा को प्रोत्साहित किया था, जैसे कि बॉलीवुड फिल्मों के माध्यम से दिखाया जाता था कि चोट लगने पर खून सभी का बहता है, और सबके खून का रंग लाल होता है।

प्यू सर्वेक्षण में पाया गया है कि हिंदू अपनी धार्मिक पहचान और भारतीय राष्ट्रीय पहचान को आपस में घनिष्ठ और नजदीकी रूप से से जुड़ा पाते हैं: लगभग दो-तिहाई हिंदुओं (64 प्रतिशत) का कहना है कि "वास्तव में" भारतीय होने के लिए हिंदू होना "बहुत महत्वपूर्ण" है। यह इस तथ्य को दर्शाता है कि "कई हिंदुओं के लिए, धार्मिक विविधता को महत्व देने (कम से कम सिद्धांत के तौर पर) और यह महसूस करने के बीच कोई विरोधाभास नहीं है कि हिंदू अन्य धर्मों का पालन करने वाले साथी नागरिकों की तुलना में किसी तरह अधिक प्रामाणिक रूप से भारतीय हैं"।

यह अच्छी तरह से साबित होता है कि यह दक्षिणपंथ द्वारा राष्ट्रवाद पर लगातार चलाए गए अभियानों का परिणाम है, जिसने इसे एक लोकप्रिय विचार में बदल दिया है कि कौन राष्ट्रवादी है कौन नहीं। दिलचस्प बात यह है कि सर्वेक्षण "जीवन जीने के एक हिंदू तरीके" की ओर इशारा करता है जिसे आइडिया ऑफ इंडिया माना जाता है, जो यह सवाल खड़ा करता है कि क्या भारत के विचार में उसके सामाजिक जीवन में विविधता एक अंतर्निहित सिद्धांत है या नहीं? यहां हिंदू की धार्मिक पहचान के बजाय उसकी एक सामाजिक और सांस्कृतिक रूप में अधिक कल्पना की जा रही है। आरएसएस प्रमुख ने हाल के सार्वजनिक भाषणों में यह बात कही है और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कुछ फैसलों में इसका जिक्र किया है। लेकिन सवाल यह है कि कोई ठोस शब्दों में धार्मिक रूप को सामाजिक रूप से कैसे अलग करेगा? कोई कैसे गारंटी देगा कि यह किसी का आधिपत्य नहीं रहेगा? और क्या यह बदलाव विविधता की आधुनिक संवेदनशीलता को  समायोजित करने का एक तरीका है-जबकि ठोस रूप से यह एक बहुसंख्यक एजेंडे का हिस्सा है?

भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में, रिपोर्ट में कहा गया है कि, "आज, भारत के मुसलमान लगभग सर्वसम्मति (यानी लगभग 95 प्रतिशत) ये कहते हैं कि उन्हें भारतीय होने पर बहुत गर्व है और भारतीय संस्कृति के प्रति काफी उत्साह भी व्यक्त करते हैं: इनमें से 85 प्रतिशत का मानना है  कि भारतीय लोग अपने आप में पूर्ण नहीं हैं, लेकिन भारतीय संस्कृति दूसरों से श्रेष्ठ है।" यह निश्चित रूप से नैतिकता की अंतर्निहित समानता की ओर इशारा करती है जो धार्मिक समुदायों में फैली हुई है, चाहे फिर वे हिंदू हो या मुस्लिम। उदाहरण के लिए, रिपोर्ट में कहा गया है कि, "भारत में मुसलमान भी हिंदूओं की तरह कर्म में विश्वास करते हैं (प्रत्येक से 77 प्रतिशत का ऐसा मनना है) और 54 प्रतिशत भारतीय ईसाई भी इसी दृष्टिकोण को साझा करते हैं।" इस्लाम और ईसाई धर्म में स्वदेशी योगदान के रूप में शायद कोई जाति के सवाल को जोड़ सकता है। यह, शायद, भारतीय लोकतंत्र और सार्वजनिक तर्क में मुसलमानों के भरोसे को स्पष्ट करता है, जो चुनावों में बड़े तौर पार हिस्सा लेते हैं और अपनी सभी सीमाओं के बावजूद कानूनी प्रणाली में विश्वास करते है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद इस बात को कहा था कि भारत में कोई घरेलू आतंकवाद नहीं है, और आतंकवाद का अधिकांश हमला सीमा पार से निर्यात किया जाता है। अर्थात्, हिंदुओं और मुसलमानों की साझा सांस्कृतिक मान्यताओं (जैसे कर्म का सिद्धांत) और चुनावी प्रक्रियाओं में मुसलमानों की सक्रिय भागीदारी अपनेपन की भावना को परिलक्षित करती है।

इसका निष्कर्ष इस तरह से निकाला जा सकता है कि देश की दक्षिणपंथी ताक़तें समाज में अंतर्निहित अलगाव को खत्म करने वाली निरंतरताओं को समझती है और वे ध्रुवीकृत मतभेदों के साथ पदानुक्रमित एकजुटता पैदा करने का प्रयास कर रही है। इस बीच, धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील ताक़तें, धर्मनिरपेक्ष एकजुटता पर जोर देती हैं, वह भी बायनरी/द्विआधारी विचार के माध्यम से जो सामाजिक वास्तविकता को संबोधित नहीं करता हैं जिसमें अलगाव और पूर्वाग्रह के साथ निरंतरता और समानताएं मौजूद हैं। भविष्य में इससे भी अधिक द्वंद्वात्मक दृष्टिकोण की जरूरत पड़ सकती है: यह स्वीकार करते हुए कि पूर्वाग्रहों के साथ-साथ समुदायों में एकजुटता की संभावना भी मौजूद है, वह भी परंपरा या रूढ़िवाद से संस्कृति की बराबरी किए बिना ऐसा किया जा सकता है।

लेखक दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में राजनीतिक अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Understanding the Role of Religion in Indian Public Life

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