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एक ऐसा केंद्रीय बजट जो किसी का नहीं

गरीब, वेतनभोगी, व्यवसायी - कुल मिलाकर सभी बजट से दुखी हैं। क्योंकि इस बजट की अंतर्निहित मैक्रोइकॉनॉमिक्स गलत है - वित्त मंत्री आपूर्ति-पक्ष के अर्थशास्त्र के जरिए कुल मांग की समस्या को हल करने की कोशिश कर रही हैं ।
Budget 2020

केंद्र सरकार ने अपने वार्षिक बजट को 1 फरवरी 2020 को संसद में पेश किया। अपने दूसरे बजट भाषण की शुरुआत में ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की कि "यह बजट (भारत के लोगों की) आय और उनकी खरीदने की शक्ति बढ़ाने का बजट है। और केवल उच्च विकास के माध्यम से ही इसे हासिल किया जा सकता हैं ताकि हमारा युवा इससे लाभान्वित हो और उसे सार्थक रोजगार मिल सके।”

सबसे पहले तो पूरी दुनिया के अनुभव और सबूत बताते हैं कि अर्थव्यवस्था के जरिए युवाओं को लाभ और सार्थक  रोजगार  देने के लिए उच्च विकास न तो आवश्यक है और न ही कोई पर्याप्त शर्त है।

दूसरी बात भारत में वर्तमान मंदी इसलिए है क्योंकि लोगों की आय कम है और इसलिए उनकी खरीदने की क्षमता कम हुई है। इसलिए विकास को बढ़ाने के लिए लोगों की आय तथा खरीदने की शक्ति को बढ़ाना होगा और उन्हें बेहतर वेतन के साथ लाभकारी और सार्थक रोजगार देना होगा न कि विकास को बढ़ावा देकर खरीदने की शक्ति को बढ़ाने की बात से ऐसा होगा।

लोगों की खरीदने की शक्ति को बढ़ाए बिना विकास दर को पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है – इसका रास्ता उलट है। इसलिए, अंतर्निहित मैक्रोइकॉनॉमिक्स गलत है - वित्त मंत्री आपूर्ति-पक्ष अर्थशास्त्र के जरिए कुल मांग की समस्या को हल करने की कोशिश कर रही हैं। बेरोजगारी और गैर-इस्तेमाल की गई क्षमता की समस्या को अर्थशास्त्र द्वारा पूर्ण रोजगार या पूर्ण क्षमता की मान्यताओं से हल नहीं किया जा सकता है।

यह केंद्रीय बजट देश में बढ़ती बेरोजगारी की दर और पूरी तरह से ठहरी हुई औसत वास्तविक मजदूरी की दरों से जुड़ी मंदी की पृष्ठभूमि में पेश किया गया है।अगर मुद्रास्फीति के समायोजन के बाद देखें तो पिछले छह-सात सालों से आम लोगों की औसत आय नहीं बढ़ रही है लेकिन इस अवधि के दौरान प्रति व्यक्ति वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 5 प्रतिशत से अधिक की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ा है।

इसके परिणामस्वरूप आय में असमानता लगातार बड़ी खतरनाक दर से बढ़ रही है। यह इसलिए है कि आम लोगों की खरीदने की शक्ति में कमी है और वह मांग में कमी का बड़ा कारण है, जो मौजूदा आर्थिक मंदी का भी कारण बन रहा है।

मंदी केवल विकास दर में कमी के कारण ही नहीं है बल्कि अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में लाभ के अवसरों के कम होने से निवेश में कमी की वजह से भी है। यह विकास दर को और नीचे लाएगा और भविष्य में और आगे भी खपत और निवेश को कम करेगा और यह दुष्चक्र तब तक जारी रहेगा जब तक कि इसके बारे में कुछ किया नहीं जाता।

इस दुष्चक्र से छुटकारा पाने के लिए राजकोषीय नीति साधन सबसे प्रभावी रास्तों में से एक है। एक विस्तारक राजकोषीय नीति, जिसमें बड़ा सरकारी खर्च शामिल हो इस समस्या को हल कर सकती है। लेकिन, वित्त मंत्री राजकोषीय जिम्मेदारी और बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम का पालन करना पसंद कर रही हैं और इसलिए यह बजट बड़ी आबादी को रोजगार देकर और उनके वास्तविक वेतन की दरों को बढ़ाकर आम लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए कुछ नहीं करता है। उच्च बेरोजगारी, कम वेतन, बढ़ती गरीबी और असमानता के बीच राजकोषीय रूढ़िवाद एक गलत रुख है।

मायूसी ही मायूसी

यहां तक कि प्रत्यक्ष कर-दाता वेतनभोगी मध्यम वर्ग भी खुश नहीं है। नई आयकर योजना में, कई टैक्स-स्लैब हैं, कुछ थोड़ी कम कर दरों के बावजूद, छूट और कर रियायतें ( 5 लाख रुपए तक आय पर मौजूदा छूट के अलावा), प्रभावी कर की दरें वास्तव में बहुमत के लिए ऊपर जा सकटी हैं उनमें से 15 लाख रुपये और उससे अधिक की आय वर्ग को अगर छोड़ दे तो।

अब देखिए, बजट के तुरंत बाद बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बीएसई) का सेंसेक्स 1000 अंक से अधिक गिर गया और कारोबारी इससे नाखुश हैं। व्यापारी वर्ग यह भी महसूस कर रहा है कि दुनिया में सबसे कम लाभ-टैक्स दर से तब तक ज्यादा फायदा नहीं होगा (जैसा कि वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में उल्लेख किया है) जब तक कि लाभ कमाने के अवसर पैदा न हों। उदाहरण के लिए, 30 प्रतिशत टैक्स के साथ 1,00,000 रुपये का लाभ 20 प्रतिशत टैक्स के साथ 80,000 रुपए के लाभ से बेहतर है क्योंकि शुद्ध लाभ 70,000 रुपए से घटकर 64,000 रुपए हो जाएगा। इसलिए, इस बजट ने सभी वर्गों को दुखी कर दिया है।

उसके ऊपर यह बजट भारतीय जीवन बीमा निगम (LIC) के निजीकरण के साथ-साथ 2 लाख करोड़ रुपये के भारी विनिवेश की योजना का प्रस्ताव भी करता है। अन्य सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के विनिवेश, जैसे कि एयर इंडिया, भारत पेट्रोलियम, टिहरी और उत्तर-पूर्व की जलविद्युत परियोजनाएं, कोकनोर (COCNOR) और इसी तरह की घोषणा पहले ही की जा चुकी है।

विनिवेश नकारात्मक पूंजी खर्च हैं। पूंजीगत खर्च 2019-20 में 3.5 लाख करोड़ रुपए से बढ़ाकर 2020-21 में 1.1 लाख करोड़ रुपए करने का प्रस्ताव किया गया है और विनिवेश से आय 65,000 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 2.1 लाख करोड़ रुपए करने का प्रस्ताव है। इसलिए, शुद्ध पूंजीगत खर्च में मंदी के कारण 2.85 लाख करोड़ रुपए से 2 लाख करोड़ रुपए हो जाएगा, तब जब मौजूदा श्रम शक्ति को काम देने के लिए लिए पर्याप्त दर पर निजी निवेश नहीं हो रहा है।

राजस्व हानी
 
जहां तक बजट के राजस्व पक्ष का सवाल है, सरकार को चालू वित्त वर्ष में पिछले वर्ष के बजट की तुलना में तीन लाख करोड़ रुपये के टैक्स-राजस्व कमी होने की उम्मीद है। राजस्व में यह हानि मुख्य रूप से 1.55 लाख करोड़ रुपये के कॉर्पोरेट लाभ टैक्स में आई कमी की वजह से होगी। उत्पाद शुल्क और माल और सेवा कर में कमी पिछले साल के बजट के मुकाबले 50,000 करोड़ रुपये से अधिक की होगी।

सीमा शुल्क संग्रह में कमी 30,000 करोड़ रुपये से अधिक की है। फिर आयकर में 10,000 करोड़ रुपये की कमी है। ये सभी संशोधित अनुमान हैं। हालांकि, लेखा महानियंत्रक (CGA) डेटा के रुझानों से राजस्व प्राप्तियों की प्रवृत्ति हमें बताती है कि बजट के संशोधित अनुमानों में वास्तविक राजस्व की कमी कम से कम 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की होगी। इसलिए, यह कहना सही होगा कि सरकार अपनी गणना और अपेक्षाओं के अनुसार कर/टैक्स जुटाने में नाकामयाब रही है।

टैक्स राजस्व में आई कमी के परिणामस्वरूप, केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी डेढ़ लाख करोड़ रुपये से अधिक घटने की उम्मीद है, जो प्रत्येक राज्य सरकार के वित्तीय स्पेस को कम कर रहा है। यह 2019-20 के संशोधित अनुमान के अनुसार है, वास्तविक कमी 2 लाख करोड़ रुपये से अधिक होने की संभावना है, जो कि चालू वित्त वर्ष में जीडीपी का 1 प्रतिशत से अधिक बैठता है। इसलिए, इस वर्ष न केवल केंद्र के खर्च में बल्कि राज्य सरकारों के खर्च में भी कमी आने की संभावना है (एफएमआरबी की रोक के चलते), जो कि बजट की अपेक्षाओं के अनुसार करों को बढ़ाने में विफल रहा है।

खर्च को कम करना

अंत में बजट के खर्च पर जाते हैं, केंद्रीय बजट का कुल आकार 30.42 लाख करोड़ रुपए है, जो कि वर्ष 2020-21 के लिए अपेक्षित जीडीपी का 13.5 प्रतिशत है (वह भी 10 प्रतिशत की नाममात्र वृद्धि की धारणा के साथ है)। 2018-19 में, बजटीय खर्च जीडीपी का 12.9 प्रतिशत था और वास्तविक खर्च  जीडीपी का 12.2 प्रतिशत से कम है। 2019-20 में, बजटीय खर्च 13.6 प्रतिशत था और संशोधित अनुमान 13.2 प्रतिशत है और वास्तविक खर्च इस वर्ष जीडीपी के अनुपात (सकल घरेलू उत्पाद की कम विकास दर के बावजूद) के रूप में कम होगा। इसलिए, अगले साल जीडीपी राशि का सरकारी खर्च के अनुमान  13.5 प्रतिशत को थोड़ा सावधाने के साथ लिया जाना चाहिए।

इस संदर्भ में, यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के सरकार में आने से पहले केंद्र सरकार का वास्तविक खर्च 2011-12 में 14.4 प्रतिशत 2012-13 में 13.8 प्रतिशत और 2013-14 में 13.6 प्रतिशत था। फिर धीरे-धीरे इस खर्च को 2018-19 (वास्तविक) तक सकल घरेलू उत्पाद के 12.2 प्रतिशत तक ला दिया गया। इसलिए, वर्तमान नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए शासन के दौरान खर्च में भारी कटौती हुई है।
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स्रोत: पिछले वर्षों के बजट दस्तावेज और आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20, भारत सरकार।

यदि हम विभाग और मंत्रालय-वार खर्चों को देखते हैं और चालू वित्त वर्ष (2019-20) के लिए बजटीय अनुमानों के साथ संशोधित अनुमानों की तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि वित्त मंत्री द्वारा बजट भाषण में जिन मंत्रालयों पर जोर दिया गया है, उनमें भारी कटौती हुई है।

कृषि सहयोग और किसानों के कल्याण विभाग में 22 प्रतिशत की कटौती है (.28,581 करोड़ रुपए), खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग में 40 प्रतिशत (7,000 करोड़ रुपये) की कटौती है। अन्य मंत्रालय जिनके खर्च में महत्वपूर्ण कटौती हुई है उसमें महिला और बाल विकास मंत्रालय (लगभग 3,000 करोड़ रुपये), पर्यटन मंत्रालय (773 करोड़ रुपये), कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय (458 करोड़ रुपये), पंचायती राज मंत्रालय (43 प्रतिशत की कटौती), नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय ( में 26 प्रतिशत की कटौती यानि 363 करोड़), पेयजल और स्वच्छता विभाग (में 1,656 करोड़ रुपए), जल संसाधन विभाग, नदी विकास और गंगा कायाकल्प (727 करोड़ रुपये की कटौती), आवास और शहरी मामलों के  मंत्रालय (में 56565 करोड़ रुपए की कटौती) और इसी तरह केंद्रीय क्षेत्र की योजनाओं में 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की कटौती शामिल है।
 
वर्ष 2020-21 में खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग का बजट अपने वर्तमान बजट से 36 प्रतिशत कम है। इस्पात मंत्रालय का बजट आधे से भी कम हो गया है और कपड़ा मंत्रालय का बजट 27 प्रतिशत से अधिक कम हो गया है। यहां तक कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना – मनरेगा के बजट में, रोजगार संकट के बीच कटौती की गई है। कई विभागों और मंत्रालयों के लिए बजट में शायद ही कोई वृद्धि की गई है।

यह बात स्पष्ट है कि यह कोई विस्तारवादी बजट नहीं है, जो बजट देश में बेरोजगारी, कम वेतन, गरीबी और असमानता में वृद्धि की ज्वलंत समस्याओं को दूर करने या फिर विकास को पुनर्जीवित करने में सक्षम हो। वास्तव में, यह एक ऐसा बजट है, जिसका किसी को भी कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।

लेखक, सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में सहायक प्रोफेसर हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

A Union Budget For No One

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