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भारतीय मीडिया में बड़े पदों पर 90 प्रतिशत उच्च जाति समूहों का है कब्ज़ा

ऑक्सफैम इंडिया-न्यूज़लॉन्ड्री द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट मैं पाया गया है कि भारत में मीडिया के ऊंचे पदों पर 90 प्रतिशत कब्ज़ा उच्च जाति से संबद्ध रखने वाले लोगों का है, और चौंकाने वाला तथ्य यह है कि एक भी दलित या आदिवासी, भारतीय मुख्यधारा के मीडिया के नेतृत्व का हिस्सा नहीं है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : Newslaundry

वैसे तो हमारा देश अमृतकाल के दौर से गुजर रहा है और सरकार की तरफ से ऐसे दावे किए जा रहे हैं कि अब देश समावेशिता और तरक्की की तरफ बढ़ रहा है। लेकिन हक़ीक़त कुछ और ही बयां कर रही है। यूं तो अमृतकाल में देश का हर तबका बेरोज़गारी, महंगाई और भूख से प्रताड़ित हुआ है लेकिन वंचित तबके स्थिति बहुत भयावह है। इस बात की तसदीक इस तथ्य से होती है कि ऑक्सफैम इंडिया ने मीडिया पर 2019 के पहले सर्वेक्षण के बाद, किए गए दूसरे सर्वेक्षण में चौंकाने वाले खुलासे किए हैं।

यह सर्वेक्षण और उस पर रिपोर्ट ऑक्सफैम इंडिया और न्यूज़लॉन्ड्री ने 'हू टेल्स अवर स्टोरीज मैटर्स: रिप्रेजेंटेशन ऑफ मार्जिनलाइज्ड कास्ट ग्रुप्स इन इंडियन मीडिया' नामक शीर्षक से जारी कि है जो बताती है कि प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में लगभग 90 प्रतिशत नेतृत्व वाले पदों पर सामान्य जाति या उच्च जाति समूहों का कब्जा है और यह भी कि मुख्यधारा के मीडिया आउटलेट का अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) के तबके से एक भी व्यक्ति नेतृत्व नहीं कर रहा है।

दक्षिण एशिया के सबसे बड़े समाचार मीडिया फोरम ‘द मीडिया रंबल’ द्वारा जारी रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में 5 में से हर 3 लेख सामान्य जाति के लेखकों द्वारा लिखे गए हैं, जबकि हाशिए पर रहने वाली जातियां (एससी, एसटी या ओबीसी) केवल 5 में से 1 लेख का योगदान कर पाती हैं।

2019 के बाद किए गए दूसरे मीडिया विविधता सर्वेक्षण, जिसकी रपट ऑक्सफैम इंडिया- न्यूज़लॉन्ड्री ने 14 अक्टूबर को जारी की है, में पाया गया है कि हिंदी और अंग्रेजी टीवी डिबेट में 5 प्रतिशत से भी कम पैनलिस्ट एससी या एसटी श्रेणियों से आते हैं।

ऑक्सफैम इंडिया के सीईओ अमिताभ बेहर ने बताया कि, "तीन साल के अंतराल में तैयार की गई हमारी यह दूसरी रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत में न्यूजरूम देश के वंचित समुदायों के लिए कोई समावेशी जगह नहीं हैं। हक़ीक़त यह है कि इतने वर्षों के बाद भी मीडिया संगठनों के मालिक/नेता दलितों, आदिवासियों और बहुजन समाज के बाशिंदों के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने में विफल रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी जताया गया है कि देश में मीडिया को न केवल अपने कवरेज में बल्कि अपनी भर्ती प्रणाली में भी समानता के संवैधानिक सिद्धांत को बरकरार रखने की जरूरत है। इसलिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि मीडिया संगठन भर्ती करने की प्रणाली में एक महत्वपूर्ण बदलाव लाए और सुनिश्चित करें कि देश भर में न्यूज़रूम अधिक विविध और समावेशी बन जाए। यह भारत को बिना भेदभाव और अन्याय वाला देश बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।"

ऑक्सफैम इंडिया-न्यूज़लॉन्ड्री रिपोर्ट ने मीडिया में विविधता की जांच कैसे की

रिपोर्ट ने लगभग 43 भारतीय प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया आउटलेट्स के कवरेज, सामाजिक नेतृत्व, और उनमें काम कर रहे पत्रकारों की जाति संरचना का अध्ययन किया। अप्रैल 2021 और मार्च 2022 के बीच किए गए शोध में 20,000 से अधिक पत्रिका और समाचार पत्रों के लेखों, 76 एंकरों और 3318 पैनलिस्टों के साथ 2075 प्राइम टाइम बहस और 12 महीने की ऑनलाइन समाचार रिपोर्टों का विश्लेषण किया गया। यह शोध, लेखकों/प्रतिभागियों की सामाजिक स्थिति, समाचार सामग्री की प्रमुखता और समाचार कवरेज के विषय जैसे गुणात्मक मानकों पर किया गया था। रिपोर्ट ने, यूपीएससी और केंद्रीय विश्वविद्यालयों के डेटाबेस को सूचना के सेकंडरी स्रोत मानते हुए समाचार संगठन के कर्मचारियों के बीच विभिन्न जाति समूहों के प्रतिनिधित्व की भी जांच की है।

विश्लेषण क्या कहता है?

विश्लेषण कहता है कि, भारतीय मीडिया में एससी, एसटी और ओबीसी के पूरे के पूरे प्रतिनिधित्व में बहुत ही मामूली सा सुधार हुआ है। 12 महीने चला शोध बताता है कि नेतृत्व, बाई-लाइन लिखने वालों, ओपिनियन लेखन और सामग्री के मामले में प्रिंट, डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया में सामान्य जाति समूहों का प्रभुत्व है। इसकी तुलना 2019 की रिपोर्ट से की गई जिसमें सामान्य श्रेणी से पत्रकारों की संख्या 88 प्रतिशत से अधिक थी जो इस वर्ष लगभग 86 प्रतिशत है। जबकि सबसे बड़ा बदलाव अनुसूचित जाति वर्ग के प्रतिनिधित्व में देखा जा सकता है, जिसने 2022 में 3.17 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज़ की है।

14 हिंदी और अंग्रेजी अखबारों के विश्लेषण से पता चला कि मीडिया संगठन जाति और आदिवासी मुद्दों को कवर करने के मामले में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के पत्रकारों को नियुक्त करने में विफल रहे हैं। जब 8 समाचार चैनलों का विश्लेषण किया गया तो पाया गया कि आधे से अधिक एंकर उच्च जाति समूहों के हैं, जबकि किसी भी चैनल में एक भी दलित या आदिवासी पत्रकार बहस की मेजबानी या एंकरिंग करता नहीं पाया गया।

सर्वेक्षण के दौरान विश्लेषण की गई 12 पत्रिकाओं में से किसी एक में भी एससी/एसटी समुदाय का सदस्य नेतृत्व की स्थिति में नहीं था या थी। जबकि, डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तुलना में एससी और एसटी के प्रतिनिधित्व में तुलनात्मक रूप से अधिक सुधार दिखा है। डिजिटल मीडिया में एससी और एसटी वर्ग का प्रतिनिधित्व पहले के शून्य से क्रमशः 11 प्रतिशत और लगभग 3 प्रतिशत बढ़ा है। जबकि ओबीसी श्रेणी में थोड़ी वृद्धि देखी गई है, लेकिन सामान्य श्रेणी का प्रतिनिधित्व अभी भी लगभग 77 प्रतिशत है।

अंत में रिपोर्ट ने जाति के मामले में अधिक पारदर्शी भर्ती प्रणाली, समान और उचित वेतन के कार्यान्वयन पर मीडिया संगठनों को अधिक संवेदनशील होने की सिफारिश की है।

असमानताओं का दौर जारी है

यदि आप महंगाई, बेरोज़गारी और बढ़ती भूख के आंकड़े उठा कर देखें तो करोड़ों लोगों के लिए यह अमृतकाल मृत्यु काल में बदलता नज़र आने लगेगा। खासकर दलित और आदिवासी तबकों के लिए जिनके लिए रोजगार के अवसर लगातार घट रहे हैं। सरकारी नौकरियों में भर्ती पर रोक से आरक्षण बेअसर हो गया ही और निजी खिलाड़ी आरक्षण को लागू करने को तैयार नहीं हैं।

ब्रिटेन की प्रधानमंत्री लिज़ ट्रस को इसलिए इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा क्योंकि उन्होंने अपने ‘मिनी बजट’ में अरबपतियों कि लिए 45 अरब पाउंड टैक्स की देनदारी को माफ कर दिया था। वह भी ऐसे दौर में जब देश में महंगाई, बेरोज़गारी और बैंक कर्ज़ की बढ़ती दर से जूझ रहा था। इससे देश में हंगामा खड़ा हो गया और अंतत ट्रस को इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन क्या हिंदुस्तान में इस बात से कोई फर्क पड़ता है, यदि पड़ता तो मोदी जी आज देश के प्रधानमंत्री नहीं होते और इस्तीफा दे चुके होते। मोदी सरकार ने पिछले 8 सालों में बड़े पूंजीपतियों/कॉरपोरेट घरानों के 10.7 लाख करोड़ रुपए माफ किए हैं जबकि अकेले 2021 में यह माफी 2.02 लाख करोड़ रुपए की रही है। देश की वंचित समुदाय के सामने चुनौती अनगिनत हैं और बिना संगठित हुए कुछ भी हासिल करना नामुमकिन नज़र आता है। लोकतंत्र की नींव को मज़बूत करने के लिए समाज का समावेशी होना जरूरी है।

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