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क्या उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण वाक़ई भाजपा से परेशान हैं ?

एक बार जब विपक्ष अपने मतदाताओं को सुरक्षित कर लेगा ,तो वे अन्य समुदायों के साथ व्यवहारिक गठजोड़ कर पाने में सक्षम हो सकेगा।
भाजपा

1989 के बाद अपने “स्वाभाविक ठिकाने” यानी भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण छोड़ने वाले नहीं हैं। तीस वर्ष से भाजपा से जुड़े राज्य के सबसे समृद्ध अभिजात वर्ग अबतक किसी भी तरह के राजनीतिक,आर्थिक या सामाजिक संकट से प्रभावित नहीं हो पाया है। इसलिए, पुलिस मुठभेड़ में गैंगस्टर विकास दुबे और उसके पांच "ब्राह्मण गुर्गे" की मौत इस प्रवृत्ति को बदल देगी,इसके मानने का कोई आधार नहीं है।

दुबे प्रकरण से ब्राह्मण परेशान तो हैं, लेकिन इसलिए नहीं कि वे गैंगस्टर या उसके आदमियों के साथ वे सहानुभूति रखते हैं। उत्तर प्रदेश के सबसे शिक्षित और राजनीतिक रूप से अति चतुर कुलीन के तौर पर वे समझते हैं कि दुबे के भाग्य तो उसी पल तय हो गया था जब,उसने गोलीबारी में आठ पुलिसकर्मियों को मार दिया था। वे जानते हैं कि राज्य पुलिस ने दुबे को ख़ास तौर पर उसकी जाति के चलते निशाना नहीं बनाया था। हालांकि, दुबे प्रकरण के बाद ब्राह्मणों ने राज्य में सत्तारूढ़ व्यवस्था से राजनीतिक फ़ायदा उठाने के लिए "हाशिए पर" महसूस किये जाने को लेकर एक धारणा ज़रूरी बनायी है। ब्राह्मण मतदाताओं को पता है कि वे संख्यात्मक रूप से अहम तो नहीं हैं, मगर वे निर्णायक मत हो सकते हैं, जो उन्हें एक एकदम सही सौदेबाज़ी की स्थिति में ला खड़ा करता है।

हां, ब्राह्मण उस स्थिति को अबतक पचा नहीं पाये हैं, जिसे वे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में "राजपूत प्रभुत्व" वाली स्थिति कहते हैं और उनमें एक ब्राह्मण मुख्यमंत्री को लेकर तड़प भी है। फिर भी, इस समय जिस सहज स्थिति में वे अपने आपको पाते हैं,उसे जोखिम में डालना तबतक पसंद नहीं करेंगे,जब तक कि कोई ग़ैर-भाजपा पार्टी उन्हें नयी सरकार में बड़ी भूमिका का भरोसा नहीं देती। अगले विधानसभा चुनाव से ठीक दो साल पहले ऐसा ब्राह्मण नेतृत्व वाला गठबंधन धरताल पर तो कहीं नहीं दिखता है। इसलिए, राजपूतों के साथ सत्ता साझा करने में ब्राह्मण शादय सबसे ज़्यादा सामंजस्य बैठा पायेंगे।

कोई शक नहीं कि उत्तर प्रदेश में राजपूत पहले के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मुखर हैं। नफ़रत फ़ैलाने वाले भाषण देने और सुर्खियां बटोरने वाले सुरेश राणा जैसे लोगों को सशक्त किया गया है। फिर भी, भाजपा के पक्ष में उच्च जाति को एकजुट करने के संदर्भ में ब्राह्मण-बनाम-राजपूत का झगड़ा जारी है। लखनऊ स्थित बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख और राज्य की राजनीति पर लम्बे समय से नज़र रखने वाले प्रोफ़ेसर शशिकांत पांडे कहते हैं, "इसे किसी परिवार के भीतर की प्रतिद्वंद्विता की तरह देखा जाना चाहिए। किसी परिवार में जिस तरह भाई-बहन विशेषाधिकारों पर हिस्सेदारी के लिए लड़ते हैं, ब्राह्मणों और राजपूतों के झगड़े उसी तरह के हैं, लेकिन ब्राह्मणों को बीजेपी में एक ठिकाना मिल गया है और वहां अब भी उनके बने रहने की संभावना है।" इसका एक कारण यह है कि कांग्रेस के पतन के बाद भाजपा आम तौर पर उच्च जातियों और विशेष रूप से ब्राह्मणों को मंत्रिपरिषद में अधिकतम प्रतिनिधित्व देती दिखायी देती है। और दूसरा कारण यह है कि अपने सामूहिक मानसिक ढांचा में ब्राह्मण समुदाय राज्य की मौजूदा सत्तारूढ़ व्यवस्था की भाषा, प्रतीकवाद, कल्पना और मुद्दों के साथ एकरूपता महसूस करता है।

ग़ैर-संभ्रांत ओबीसी और दलित मतदाताओं को उच्च जाति के इस समूह के साथ जोड़ लिया गया है, जिसने भाजपा के लिए सामूहिक मतदान किया है, जो क़रीब हर सामाजिक समूह का दुर्जेय राजनीतिक गठबंधन बना दे रहा है। भले ही ब्राह्मणों का दावा हो कि वे राजपूतों के "अधीन" महसूस कर रहे हैं, लेकिन सामान्य समझ यही बताती है कि वे इस स्थिति में भी समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी में नहीं जायेंगे। इसलिए, दुबे मुठभेड़ के संदर्भ में पिछले दो महीनों से सुर्खियों में बनी रही "पहली ब्राह्मण मुठभेड़" से यह अंदाज़ा लगाना कि "ब्राह्मण समुदाय उबल रहा है" "क्योंकि वह ब्राह्मण था",इससे इस राजनीतिक भविष्यवाणी का पता नहीं लगाया जा सकता है। हक़ीक़त यही है कि दुबे मुठभेड़ के बाद ब्राह्मण कुलीनों ने अपने असंतोष को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया और मीडिया को सत्तारूढ़ व्यवस्था को इस बात का संकेत दे दिया कि उनके पास जितना है,उससे वे कहीं ज़्यादा की उम्मीद करते हैं। सही मायने में यह एक जाल है और विपक्ष इसमें फंस गया है। व्हाट्सएप पर प्रसारित होती "मारे गये ब्राह्मणों" की सूची मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के "ब्राह्मण विरोधी" व्यवस्था के "सबूत" नहीं हैं। इसके बजाय, "ब्राह्मण नाराज़ हैं" वाली धारणा को ज़्यादा तूल इसलिए दिया गया है, क्योंकि इससे धारणा से भाजपा को अपने मूल मतदाता को लुभाने को लेकर ज़्यादा तर्कसंगत आधार मिलेगा।

कुछ लोगों का मानना है कि समाजवादी पार्टी के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री,अखिलेश यादव को उस परशुराम की मूर्ति लगाने के अपने वादे से फ़ायदा हुआ है,जिनका ब्राह्मणों के बीच बहुत सम्मान है। ऐसा मानने वाले इस बात को भूल जाते हैं कि वह समाजवादी पार्टी ही है,जिसके मुख्य वोट बैंक रहे ओबीसी के दावे ने ब्राह्मणों को आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में चुनौतियों देकर संकट में डालने का अहसास कराया है। मायावती ने भी अपनी पार्टी की 2007 की उस चुनावी जीत को दोहराने की उम्मीद में ब्राह्मणों को तुष्ट करने की कोशिश में है,जिसे ब्राह्मणों के वोटों को बीएसपी के पक्ष में हस्तांतरित करने का श्रेय जाता है। असल में ये दोनों नेता अपने आप को भुलावे में रख रहे हैं। उत्तर प्रदेश के एक राजनीतिक नेता कहते हैं, "वे बिना किसी आधार का ऐलान कर रहे हैं कि ब्राह्मण बीजेपी से नाराज़ हैं,मगर सवाल है कि क्या वे सही में परेशान हैं या उनका मोहभंग हुआ है,तो किस स्तर पर यह सब हुआ है"। आख़िर ब्राह्मणों के नाराज होने की बात पर कोई पार्टी किस तरह से निष्कर्ष निकाल लिया ? उन्होंने इसे टीवी पर सुना, और अब हर कोई कह रहा है कि ऐसा ही है।”

ब्राह्मण उस10% ईडब्ल्यूएस नौकरी के कोटे से ख़ुश हैं, जिसका ठोस फ़ायदा उच्च जातियों के भीतर के कुलीन वर्ग द्वारा उठाये जाने की संभावना है। जैसा कि अध्ययनों से पता चलता है कि शीर्ष 10% अगड़ी जातियों के पास कुल धन का तक़रीबन 60% हिस्सा है। सांस्कृतिक क्षेत्र में भी ब्राह्मणों को "प्रतीकात्मक" लाभ हासिल है। मिसाल के तौर पर, अयोध्या में बनने वाले राम के लिए समर्पित मंदिर ओबीसी की लामबंदी से समर्थित उच्च जाति के वर्चस्व को ही मज़बूत करेगा। ब्राह्मण गांव और तहसील स्तर पर भी आरएसएस के संगठनों में भी विभिन्न पदों पर काबिज हो रहे हैं।

समाजवादी पार्टी का ग़लत आकलन परशुराम के उस प्रतीक से शुरू होता है, जिसे उसने ब्राह्मणों को तुष्ट करने के लिए चुना है। सबसे पहले तो यह एक बहस का विषय है कि क्या किसी वंचित समुदाय की तरह ब्राह्मण भी इस तरह के किसी प्रतीकात्मक मूर्ति के लिए तरस रहे हैं दूसरी बात कि भाजपा यह दावा कर सकती है कि अपने कार्यकाल के दौरान राम ने बाबर के सेनापति,मीर बाक़ी और मुसलमानों को अयोध्या के "विवादित स्थल" से बाहर कर दिया है।

जहां तक बीएसपी की बात है,तो इसने ब्राह्मण मतदाताओं की अपनी संख्या को 2002 के विधानसभा चुनाव में मिले छह प्रतिशत से बढ़ाकर 2007 के चुनाव में 17% करते हुए 11% की बड़ी छलांग लगायी थी। हालांकि उस वर्ष भी ब्राह्मणों के 42% मतदाताओं ने 2002 में मिले 50% के मुक़ाबले बीजेपी को ही वोट दिया था। 2007 के चुनाव में समाजवादी पार्टी को भी ब्राह्मण वोटों में से 7%वोट मिला था। 2012 में भी 38% ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट दिया था। लेकिन,2019 के लोकसभा चुनावों ने सब कुछ बदलकर रख दिया; सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव बाद किये गये अध्ययन के मुताबिक़, 82% ब्राह्मणों ने बीजेपी को वोट दिया, और तक़रीबन इतने ही राजपूतों ने भी बीजेपी को वोट दिया। इसके अलावा,कहा जाता है कि "मोदी फ़ैक्टर" ने भी भाजपा के वोट शेयर में 12% को बढ़ा दिया था।

2019 में न सिर्फ़ भाजपा को उच्च जाति के वोटों का चार-चौथाई हिस्सा मिला, बल्कि ओबीसी समूह की कुर्मी जाति के चार-चौथाई और निचले ओबीसी वोटों के तीन-चौथाई वोट भी मिले। कुल मिलाकर, राज्य की वोट देने वाली आधी आबादी ने भाजपा को वोट दिया था। जाटव, मुस्लिम और यादव, समाजवादी पार्टी और बसपा के पारंपरिक मतदाता रहे हैं, जो कुल मिलाकर राज्य की आबादी का 40% हैं। ब्राह्मण आबादी तो महज़ 9-11% ही हैं और चूंकि इस बात की बिल्कुल संभावना नहीं दिखती कि वे भाजपा के किसी भी प्रतिद्वंद्वी पार्टी को अपना समर्थन देंगे, इसलिए, वे अकेले विपक्ष के लिए फ़र्क़ भी नहीं डाल सकते हैं।

लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफ़ेसर, रमेश दीक्षित कहते हैं, “विपक्ष को अपने ख़ुद के वोट बैंक पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मायावती को वोट देने में समस्या यह है कि वह अपने ख़ुद के वोट बैंक से नहीं जुड़ी हुई हैं, और इसलिए समाजवादियों को इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है।” दीक्षित का मानना है कि अपनी मौजूदा रणनीति के साथ समाजवादी पार्टी, बसपा या कांग्रेस ब्राह्मण वोटों को एकजुट नहीं कर पायेंगे। कांग्रेस नेता,जितिन प्रसाद द्वारा "सभी ब्राह्मणों को एकजुट करने" के लिए शुरू की गयी ब्राह्मण चेतना परिषद के कामयाब होने की संभावना इसलिए नहीं है, क्योंकि उनके सामने बड़ी चुनौती यही है कि ब्राह्मण तो पहले से ही एकजुट हैं-पिछले चुनाव में भाजपा को 82% वोट मिले थे।वे कहते हैं,"बीजेपी को लेकर उनकी तमाम शिकायतें बाक़ी बचे ब्राह्मणों के इस 9% वोट को हासिल करने की ही कोशिश है।"

असल में सवाल तो यही है कि ब्राह्मण उन दलों को वोट क्यों देंगे,जिनके डीएनए में ब्राह्मणवाद का विरोध निहित है ? दीक्षित कहते हैं, “ब्राह्मण समाजवादी या बसपा के साथ असहज महसूस करेंगे। ‘हम श्रेष्ठतर हैं’ की उनकी भावना को यहां चुनौती मिलेगी।” कांग्रेस में जाने से शायद ब्राह्मणों को बढ़त भी मिल सकती थी। लेकिन इस समय यह विशाल पुरानी पार्टी ख़ुद को ही मज़बूत करने में लगी हुई है।

कानपुर में रह रहे राजनीतिक विज्ञान के जानकार,एके वर्मा कहते हैं, "ब्राह्मणों के भीतर पुराने दिन लद जाने को लेकर कुछ कसमसाहट तो है , लेकिन ऐसा लगता है कि विपक्षी पार्टियां मतदाताओं में आये बदलाव को भांपने की क्षमता खो चुकी हैं।" 1989 के बाद से बहुत कुछ बदल गया है, लेकिन वे अब भी जाति की तरफ़ ही देख रहे हैं, न कि घटनाक्रम में आ रहे बदलाव को समझने के लिए रणनीतियों को तैयार करने पर कोई ध्यान दे पा रहे हैं।”

कुछ टीकाकारों का कहना है कि कोविड-19 से निपटने को लेकर लगाये गये लॉकडाउन ने ब्राह्मणों के आर्थिक हितों को चोट पहुंचायी है, और निश्चित रूप से यह बात कहीं न कहीं सही भी है। लेकिन,दूसररी तरफ़ लॉकडाउन से ऐसे समुदायों को भी नुकसान पहुंचा है,जो बहुत ही कम समृद्ध हैं। भारत में ब्राह्मणों की वार्षिक घरेलू आय 1.67 लाख रुपये है, जो दलितों से लगभग दोगुनी है और ओबीसी से बहुत ज़्यादा है। इसलिए, भाजपा के प्रतिद्वंद्वियों को ख़ास तौर पर ग़ैर-ब्राह्मण मतदाताओं-दलितों के बीच के असंतोष पर ग़ौर देना चाहिए।

एक सटीक उदाहरण साल 2004 का होगा, जब कांग्रेस ने भाजपा सरकार के "इंडिया शाइनिंग" अभियान को चुनौती दी थी। विश्लेषकों ने कांग्रेस पार्टी की उस साल की चुनावी कामयाबी के लिए "इंडिया शाइनिंग" और हक़ीक़त के बीच के फ़ासले को सामने लाने की उसकी क्षमता को श्रेय दिया था। हालांकि, तब मीडिया ने भी बहुत ख़ास भूमिका निभायी थी। उस समय ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाक़े से इस तरह की ज़मीनी रिपोर्टिंग लगातार आ रही थी, जिसमें भाजपा के अपार समृद्धि को लेकर किये जाने वाले दावों को आम तौर पर खारिज किया जा रहा था।

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से कांग्रेस नेता और पूर्व सांसद,ललितेश पति त्रिपाठी कहते हैं, “अगर यह लड़ाई आर्थिक मोर्चे पर लड़ी जाती है, तब तो भाजपा को खड़े होने की ज़मीन तक नहीं मिलेगी, लेकिन जब विपक्ष सुशांत सिंह राजपूत और रिया चक्रवर्ती के मामले में लड़ रहा हो, तब तो इस बात पर चर्चा ही नहीं हो सकती कि जीडीपी में 23 प्रतिशत की गिरावट क्यों आयी है।"

हक़ीक़त तो यही है कि विपक्ष ने जहां ख़ुद को ला खड़ा किया है, उससे कुछ लोगों को कूढ़न हो सकती है।ऐसा इसलिए,क्योंकि अंतत: ब्राह्मणों ने उस पार्टी के साथ अपनी क़िस्मत को जोड़ लिया है, जो राज्य में धर्मनिरपेक्षता को लेकर बनावटी हमदर्दी भी नहीं दिखा पाती है, जहां 19% आबादी मुसलमानों की है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफ़ेसर,मिर्ज़ा असमर बेग कहते हैं,“सभी पार्टियां जाति का इस्तेमाल करती हैं, उनमें और भाजप में फ़र्क़ इतना ही है कि भाजपा सबसे बड़े हथियार,यानी धर्म का इस्तेमाल करती है। चूंकि धर्म का दायरा जाति से कहीं बड़ा होता है, इसलिए यह ज़्यादा असरदार है।” वह आगे कहते हैं, “भारत में आप हर जाति समूह को संतुष्ट नहीं कर सकते, भले ही आप सत्ता में हों, लेकिन एक हिंदू पहचान जाति को स्वीकार करती है। भाजपा इस बात को अच्छी तरह से समझती है। इसलिए,भले ही इसे सभी जातियों के बीच राजनीतिक फ़ायदा समान रूप से नहीं मिले, लेकिन प्रत्येक समूह के इन तमाम असंतोषों को धर्म से ज़रूर ढका जा सकता है।

धनवान और ज़्यादा शिक्षित होने की वजह से ब्राह्मण अपनी संख्या से कहीं ज़्यादा ताक़तवर हैं। वे मुखर हैं और वास्तव में राजनीतिक और सामाजिक धारणाओं(Narratives) को निर्धारित करने की हालत में हैं। लेकिन,ओबीसी, दलित और मुसलमान ही हैं,जो उच्च जाति के आधिपत्य को चुनौती दे सकते हैं। अब भी उत्तर प्रदेश में हर पार्टी के बीच ब्राह्मण वोट के लिए होड़ मची हुई है,ऐसा तब है,जबकि भाजपा ब्राह्मणों को नाराज नहीं करना चाहती, फिर भी बाक़ी सभी पार्टियां ब्राह्मणों को ही लुभाने की कोशिश में लगी हुई हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Are Brahmins of Uttar Pradesh Really Upset With BJP?

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