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उत्तर प्रदेश: कांग्रेस की नज़र दलित-मुस्लिम वोट पर!

'जय जवाहर-जय भीम' के नारे के साथ कांग्रेस अपनी खोई ज़मीन को तलाशने में लगी है। कांग्रेस प्रदेश में दलित-मुस्लिम समुदाय को अपने पक्ष में संगठित करने का प्रयास कर रही है।
ambedkar

उत्तर प्रदेश में क़रीब तीन दशक से हाशिये पर रहने वाली कांग्रेस अब राज्य में एक बार ख़ुद को मज़बूत करने का प्रयास कर रही है। 'जय जवाहर-जय भीम' के नारे के साथ कांग्रेस अपनी खोई ज़मीन को तलाशने में लगी है।

लोकसभा चुनाव 2024 से पहले कांग्रेस प्रदेश में दलित-मुस्लिम समुदाय को अपने पक्ष में संगठित करने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस का मानना है कि अगर ये दोनों बड़े वोट बैंक उसके पक्ष में आते हैं तो वह भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को सत्ता से बाहर कर सकती है।

कमज़ोर होता बहुजन आंदोलन

कांग्रेस दलित समाज के बीच अपने लिए संभावना देख रही है क्योंकि दलित समाज का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) पिछले एक दशक से लगातार कमज़ोर हो रही है। प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में उसके पास केवल एक सीट है जिसके कारण 'बहुजन आंदोलन' भी कमज़ोर होता जा रहा है।

'बहुजन आंदोलन' के समय लगभग अस्सी के दशक के आख़िर से प्रदेश के क़रीब 21-22 प्रतिशत दलित वोटों पर बीएसपी का क़ब्ज़ा था।

लेकिन अब माना जाता है कि बीएसपी सुप्रीमों मायावती की ज़मीनी राजनीति से सक्रियता ख़त्म होने के साथ ही, दलित वोटों में भी बिखराव हो रहा है। 

बीएसपी के वोट शेयर में भी भारी गिरावट देखी जा रही है। विधानसभा चुनाव 2017 में 22.24 प्रतिशत वोट लाने वाली मायावती की पार्टी का वोट शेयर विधानसभा चुनाव 2022 में क़रीब 9.43 प्रतिशत गिर गया और बीएसपी का वोट केवल 12.81 प्रतिशत रह गया।

ऐसा कहा जाता है बीएसपी के पास केवल 'जाटव' वोट बचा है और 'गैर-जाटव' का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ जा चुका है और कुछ हिस्सा समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ चला गया है। 

सपा और मुसलमान

मुस्लिम समाज को सपा की ओर जाते देख कांग्रेस उस पर भी क़ब्ज़ा जमाने की योजना बना रही है। मुस्लिम वोट बैंक जो प्रदेश में लगभग 19-20 प्रतिशत है, 'बाबरी मस्जिद विध्वंस' के बाद से (सपा) के साथ था।

पिछले विधानसभा चुनावों तक मुस्लिम समाज ने सपा के पक्ष में लगभग एकतरफा वोट किया था। यही कारण था कि सपा भले चुनाव हार गई लेकिन उसने बीजेपी को कड़ी चुनौती दी थी। बीजेपी 313 सीटों से गिरकर 255 सीटों पर आ गई और सपा 47 सीटों से उठकर 111 सीटों तक चली गई।

लेकिन प्रदेश में हाल में हुए निकाय चुनावों और राहुल गांधी की 'भारत जोड़ों यात्रा' के बाद से राजनीतिक गलियारों में ऐसे संकेत आ रहे हैं कि मुस्लिम समाज का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ बढ़ रहा है।

निकाय चुनाव 2023 में अब तक का सबसे ख़राब प्रदर्शन करने वाली कांग्रेस को एक उम्मीद की किरण भी दिखाई दी। कांग्रेस को मुरादाबाद जैसी मुस्लिम बाहुल्य सीटों पर बड़ी संख्या में वोट मिला। 

सपा से मुसलमानों की बढ़ती दूरी के दो मुख्य कारण माने जा रहे हैं - एक सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव का कई मुस्लिम मुद्दों पर ख़ामोश रहना और दूसरा बीजेपी और संघ के ख़िलाफ़ राहुल गांधी की मुखरता। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भगवा राजनीति के ख़िलाफ़ राहुल गांधी की आक्रामकता को देखकर मुस्लिम समाज, कांग्रेस को राष्ट्रीय विकल्प के रूप मे देख रहा है। 

'जय जवाहर-जय भीम' अभियान

'जय जवाहर-जय भीम' के नारे के साथ 'संविधान को बचाने' के नाम पर कांग्रेस, दलित-मुस्लिम को संगठित करने की कोशिश कर रही है वह ताकि बीजेपी को उत्तर प्रदेश में चुनौती दे सके।

प्रदेश अल्पसंख्यक कांग्रेस के अध्यक्ष शाहनवाज़ आलम ने न्यूज़क्लिक से कहा कि "कांग्रेस कार्यकर्ता दलित-मुस्लिम बस्तियों में यह संदेश लेकर जा रहे हैं कि केवल इन दो समुदाय के कांग्रेस के साथ संगठित होने से ही संविधान को बचाया जा सकता है। दलित-मुस्लिम मिलाकर क़रीब 42 प्रतिशत वोट होता है। यह वोट 1989 तक कांग्रेस के साथ था तो बीजेपी संसद में मात्र दो सीटों तक सीमित थी। लेकिन जब से यह वोट बंट गया तब से सांप्रदायिक शक्तियां मज़बूत होती चली गईं।"

शाहनवाज़ आलम ने कहा, "संविधान को केवल बाबा साहेब अंबेडकर का संविधान कहकर एक व्यक्ति तक सीमित नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे डॉ. अंबेडकर के विरोधियों को, संविधान को निशाना बनाने का मौक़ा मिलता हैं। यह भारत का संविधान है और इसे देश का संविधान कहना चाहिए।"

उन्होंने दावा किया कि कांग्रेस की अल्पसंख्यक इकाई ने क़रीब सात लाख दलित परिवारों तक अपना 'जय जवाहर-जय भीम' का संदेश पहुंचाया है। शाहनवाज़ आलम ने बताया कि अगस्त में चले इस अभियान का लक्ष्य साढ़े पांच लाख दलित परिवारों तक, भाजपा सरकार में संविधान पर बढ़ते हमलों और कांग्रेस पार्टी का दलित समाज के लिए जारी संघर्ष का संदेश पहुंचाना था। 

हालांकि राजनीति के जानकार मानते हैं कि अगर दलित और मुस्लिम समाज का विश्वास कांग्रेस ने जीत लिया तो भविष्य की गठबंधन की राजनीति में उसको बड़ा फ़ायदा होगा। कांग्रेस दबाव बनाकर सहयोगी क्षेत्रीय दलों से अधिक सीटें मांग सकेगी।

कांग्रेस कर रही है अस्सी के दशक की राजनीति 

दलित चिंतक रविकांत चंदन मानते हैं कि "अगर कांग्रेस गंभीरता से प्रयास करे तो उसके लिए दलित समाज में संभावना है। क्योंकि इस समय नेतृत्व संकट से गुज़र रहा है और उसको भी एक राजनीतिक विकल्प की तलाश है।"

रविकांत चंदन कहते हैं कि "दलित समाज का जो हिस्सा बीजेपी के साथ है वह उसका परंपरागत वोटर नहीं है बल्कि सपा को रोकने के लिए बीजेपी में गया है। अगर कांग्रेस विकल्प की तरह उभरती है तो दलित समाज का एक हिस्सा उसके साथ आ सकता है।"

लखनऊ विश्वविद्यालय में मानवशास्त्र के प्रोफेसर रहे नदीम हसनैन कहते हैं कि "मुस्लिम वोटों का रुझान कांग्रेस की तरफ़ है और मुस्लिम वोटों के बिना कांग्रेस उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं जीत सकती है। अगर दलित और मुस्लिम एक साथ कांग्रेस के पाले में आ जाते हैं तो प्रदेश में बीजेपी के लिए यह एक बड़ा झटका होगा।"

राजनीतिक विश्लेषक डॉ. उत्कर्ष सिन्हा कहते हैं कि "कांग्रेस दोबारा अपनी अस्सी के दशक वाली राजनीति कर रही है। अगर वह दलित-मुस्लिम को अपने साथ संगठित कर लेती है तो उसको ब्राह्मण समाज का अतरिक्त समर्थन भी मिल सकता है।"

कांग्रेस का पतन 

अस्सी के दशक के आख़िर तक दलित-मुस्लिम दोनों कांग्रेस के परंपरागत वोट हुआ करते थे। इसके अलावा कांग्रेस को 'ब्राह्मण समाज' का समर्थन भी हासिल था। लेकिन कांशीराम के बहुजन आंदोलन ने कांग्रेस से दलित समाज को छीन लिया, वहीं 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंसक के बाद मुसलमानों का भरोसा भी कांग्रेस से उठ सा गया। इसके अलावा अस्सी के आख़िर और नब्बे के दशक की शुरुआत आते आते 'अयोध्या आंदोलन' से प्रभावित होकर ब्राह्मण समाज भारतीय जनता पार्टी में चला गया।

यही कारण माना जाता है कि देश के महत्वपूर्ण राज्य में 1989 में सत्ता से बाहर हुई कांग्रेस अब प्रदेश की 403 सीटों वाली विधानसभा में मात्र 02 सीटों पर है। संसद में प्रदेश की 80 सीटों में से कांग्रेस के पास केवल एक सीट है। अब देखना यह है कांग्रेस लोकसभा चुनाव से पहले स्वयं को उत्तर प्रदेश में तीन दशक बाद दोबारा खड़ा कर पाती है या नहीं।

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