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उत्तर प्रदेश: राष्ट्रीय कार्यकारिणी समेत सभी संगठन भंग, सपा में बड़े बदलाव के संकेत!

माना जा रहा है कि हाल ही में हुए उपचुनावों में मिली हार के बाद अखिलेश यादव के लिए पार्टी में व्यापक बदलाव को और टालना संभव नहीं था।
Akhilesh Yadav

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद भी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सदन में नेता प्रतिपक्ष के रूप में शपथ ली, तब शायद अखिलेश को लगा होगा कि आने वाले वक्त में वो डैमेज कंट्रोल कर लेंगे। लेकिन उनके और आज़म ख़ान द्वारा छोड़ी गई रामपुर और आज़मगढ़ लोकसभा सीट हारने के बाद सपा को जो झटका लगा, इसका दर्द शायद अरसे तक न जाए। क्योंकि अखिलेश यादव और पार्टी के दिग्गजों को ये पता है कि इन दोनों क्षेत्र में हार का मतलब पार्टी के कोर वोट बैंक मुस्लिमों और यादवों का बिखर जाना है।

और फिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बढ़ती लोकप्रियता भी अखिलेश यादव को उनकी पार्टी के फ्यूचर पर सोचने के लिए मजबूर कर रही है। यही कारण है कि शायद अखिलेश यादव ने पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समेत सभी संगठन और प्रकोष्ठ भंग कर दिए हैं। सिर्फ उत्तर प्रदेश ईकाई महत्वपूर्ण पदों को जस का तस रखा गया है।

इस जानकारी को समाजवादी पार्टी के ट्वीटर हैंडल से साझा किया गया।

वैसे तो समाजवादी पार्टी ने इस बड़े फैसले के पीछे कारण क्या है, इसकी पुष्टि तो नहीं की है, लेकिन इस फैसले को लेकर ये ज़रूर कयास लगाए जा सकते हैं इसके ज़रिए अखिलेश यादव डैमेज कंट्रोल में जुटे हुए हैं। साथ ही आने वाले सालों में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र भी सपा का ये बड़ा फैसला साबित हो सकता है। एक-एक कर कारणों पर नज़र डालते हैं।

विधानसभा चुनाव में माहौल तो बना पर जीत हाथ न लगी

एक ओर दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर किसान आंदोलनरत थे, कोरोना के नदियों किनारे लाशे तैर रही थीं, आवारा पशुओं ने किसानों की ज़िंदगी उजाड़ रखी थी, ऐसे तमाम मुद्दों को लेकर समाजवादी पार्टी ने भाजपा पर करारा हमला बोला, ये मुद्दे इतने वाजिब थे कि इनके ज़रिए प्रदेश में कड़ी टक्कर तो तय मानी जा रही थी, लेकिन नतीजे एक बार फिर भाजपा के पक्ष में आए और अखिलेश सपने धरे-धरे के धरे रह गए।  

योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा ने 255 सीटें अकेले के दम पर जीतकर सत्ता में वापसी की जबकि समाजवादी पार्टी को केवल 111 सीटों से संतोष करना पड़ा। सपाने 2012 में जितना वोट पाकर सरकार बनाई थी, उससे अधिक वोट पाकर भी वह सरकार बनाने से चूक गई।

ऐसे में पार्टी के अंदर से और बाहर राजनीतिक विश्लेषकों को उम्मीद थी कि अखिलेश यादव सिर्फ हार पर चिंतन नहीं करेंगे बल्कि साथ ही संगठन के स्तर पर बड़ा बदलाव भी करेंगे। हालांकि ऐसा तुरंत नहीं हुआ। माना जा रहा है कि हाल ही में हुए उपचुनावों में मिली हार के बाद अखिलेश यादव के लिए पार्टी में व्यापक बदलाव को और टालना संभव नहीं था।

उपचुनाव में हार भी बड़ा कारण!

समाजवादी पार्टी के लिए प्रदेश की दो सबसे सुरक्षित सीटें रामपुर और आज़मगढ़ ही हैं, क्योंकि यहां से पार्टी के दो सबसे वरिष्ठ और दिग्गज नेता चुनाव लड़ते हैं, आज़मगढ़ से ख़ुद पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव और रामपुर से आज़म खान। ऐसे में यहां हार जाना पूरे संगठन, विश्लेषकों और कार्यकारिणी पर तो सवाल खड़ा करेगा ही।

हालांकि इस बार विधानसभा चुनाव में विधायकी लड़ने के लिए अखिलेश और आज़म ने अपनी-अपनी सीटें छोड़ दी थीं, आज़म गढ़ से जहां अखिलश ने अपने भाई धर्मेंद्र यादव तो रामपुर से आज़म खान के करीबी आसिम रजा को प्रत्याशी बनाया गया था, लेकिन दोनों ही जगह सपा को करारी हार मिली। यानी यहां भी भगवा ब्रिगेड ने सेंधमारी कर दी। जिसके बाद अखिलेश और आज़म के वर्चस्व पर तो सवाल उठे ही साथ ही पार्टी की कार्यकारिणी भी विश्लेषकों के निशाने पर आ गई।

दोनों सीटों पर उपचुनाव में मिली हार के बाद अखिलेश ने बीजेपी पर निशाना साधा था। उन्होंने कहा था कि "बीजेपी की यह जीत बेईमानी, छल, लोकतंत्र और संविधान की अवहेलना, जबरदस्ती, प्रशासन द्वारा गुंडागर्दी, चुनाव आयोग की 'धृतराष्ट्र' की दृष्टि और बीजेपी की 'कौरव' सेना द्वारा जनता के जनादेश के अपहरण की जीत है।"

2024 लोकसभा की तैयारी में अखिलेश?

ये कहना ग़लत नहीं होगा साल 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने मायावती के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में भाजपा को कड़ी टक्कर दी थी। लेकिन इस बार अखिलेश यादव बड़े दलों के साथ गठबंधन की तैयारी कर रहे हैं, जैसे वो ममता बनर्जी को समर्थन देने के लिए तैयार है और तेलंगाना में केसीआर से भी मुलाकात कर चुके हैं, दूसरी ओर पीछे के दरवाज़े से ही सही कांग्रेस को भी समर्थन देंगे ही। इसके लिए उन्हें प्रदेश में ख़ुद को मज़बूत करना बेहद ज़रूरी है, शायद यही कारण है कि पार्टी ने पीछ की हार को भुलाकर आने वाले लोकसभा चुनाव में फोकस करने की ठान ली है।

अखिलेश यादव पहले ही अपनी संसदीय सीट छोड़कर पूरी तरह से राज्य में अपना ध्यान केंद्रित कर चुके हैं। राज्य विधानसभा के विपक्ष के नेता यह जानते हैं कि 2024 का लोकसभा चुनाव ही वह अगली बड़ी चुनौती है जिसका उन्हें सामना करना है।

समाजवादी पार्टी हो या कोई भी क्षेत्रीय पार्टी उसे अच्छे से पता होता है कि उसका वोट बैंक क्या है, फिर समाजवादी पार्टी की बात करें तो साल 2011 में हुई बंपर जीत को याद करना चाहिए, जब प्रदेश भर के यादव और मुस्लिम समेत पूरे पिछड़ा वर्ग ने एकमुश्त होकर अखिलेश यादव पर विश्वास जताया था, लेकिन धीरे-धीरे अखिलेश उन्ही वोटों को खोते चले गए। ऐसे में अगर मुस्लिम और यादव ही उनका साथ नहीं देंगे, तो शायद सपा का जीतना बेहद मुश्किल हो जाएगा।

CSDS की रिपोर्ट में सामने आया था कि विधानसभा चुनाव में सपा को 83 प्रतिशत मुस्लिम वोट मिले थे. मुस्लिम समुदाय ने बसपा और कांग्रेस को भी वोट नहीं दिया था. वहीं, ओवैसी की पार्टी को भी साफ नकार दिया गया. पहली बार ऐसा हुआ कि इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय ने पहली बार इतनी बड़ी संख्या में किसी एक पार्टी को वोट किया था. ऐसे में सपा 47 से डायरेक्ट 111 सीटों पर पहुंच गई और सपा के 31 मुस्लिम विधायक जीत गए।

अब इन वोटों को कैसे रोककर रखा जाए और कैसे इन्हें एक बार फिर सपा के लिए वोटों में तब्दील किया जाए, इसके लिए ग्राउंड पर काम कर सके, ऐसे संगठन और कार्यकारिणी का बदलवा शायद होना ही चाहिए था और अखिलेश यादव इसी तरफ कदम बढ़ा भी चुके हैं।

जल्द गठित होंगी सपा की इकाइयां

माना जा रहा है कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी अगस्त के आख़री हफ़्ते या सितंबर में बुलाई जाएगी। सपा की विधानसभा चुनाव में हार के बाद ही इस बात ही पार्टी संगठन को भंग करने की संभावना जताई जा रही थी। अखिलेश यादव ने चुनाव नतीजे आने के बाद संगठन से बात कर हार के कारणों की समीक्षा की थी। वैसे भी संगठन बने पांच साल हो गए थे। प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम भी नई कमेटी नहीं बना पाए थे। वैसे प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम का पद अभी बहाल रखा गया है। माना जा रहा है कि राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर जिला कार्यकारिणी तक व्यापक बदलाव होगा और भितरघातियों को संगठन से बाहर किया जाएगा।

भाजपा की राजनीति और संगठनात्मक संरचना को करीब से फॉलो करने वाले एक्सपर्ट्स और कुछ हद तक विपक्ष भी मानता रहा है कि भाजपा की जीत में सबसे बड़ी भूमिका उसके ग्राउंड लेवल पर मौजूद काडर बेस कार्यकर्त्ता हैं। ऐसी स्थिति में अखिलेश यादव भी समाजवादी पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूत करने की मंशा रखते हैं और उनके इस उलटफेर को इसी दिशा में एक कदम समझा जा सकता है।

क्योंकि पिछले 2019 के लोकसभा चुनाव से लगाकर अबतक एक्सपर्ट एक बात कह रहे हैं कि मुद्दे तो अनेक हैं और बेहद संजीदा हैं, लेकिन जनता के बीच ले जाने में विपक्ष हर बार विफल हो जाता है।

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