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उत्तर प्रदेश: न्यूनतम वेतन और राज्य कर्मचारी घोषित करने की मांग को लेकर स्कीम वर्कर्स का संघर्ष जारी

“सरकार के पास हमारा मामूली भर मानदेय देने के लिए भी पैसे नहीं है, तो क्यों नहीं सरकार तमाम सरकारी योजनाओं को बंद कर देती है। कम से कम हमें यह तो तसल्ली रहेगी कि अब बस हमें पूरी तरह से घर और परिवार ही देखना है। लेकिन यहां तो ये हालात हैं कि लंबी ड्यूटी और थकान भरे काम करने के बाद एक सम्मानजनक वेतन मिलना तो दूर,  यहां तो जो थोड़ा बहुत मानदेय भी मिलता है, वह भी कई महीने लटक जाता है। ऊपर से हमारे साथ जो बुरा व्यवहार होता है सो अलग।”
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“स्कीम वर्कर्स को राज्य कर्मचारी घोषित करो”, “दान नहीं अधिकार चाहिए , हमको भी सम्मान चाहिए”, “आज करो अर्जेंट करो, हमको परमानेंट करो” आदि नारों और अपनी लंबित मांगों के साथ कल यानि  28 अक्टूबर को उत्तर प्रदेश के  लखनऊ, सीतापुर, गोरखपुर, देवरिया, इलाहाबाद, फिरोजाबाद, रायबरेली, सोनभद्र, बिजनौर, मऊ, कानपुर, जौनपुर, जालौन, गाजीपुर, चन्दौली, बनारस में लाखों स्कीम वर्कर्स ने अपनी मांगों को ले कर प्रदर्शन किया। 

यह प्रदर्शन ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियन (एक्टू) के राज्य स्तरीय आह्वान पर संगठन से संबंधित आशा वर्कर्स यूनियन, मिड-डे मील और आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन के बैनर तले  किया गया। अपने-अपने जिला मुख्यालय के समक्ष कर्मचारियों ने एक दिवसीय धरना और प्रदर्शन का आयोजन किया और साथ ही मुख्यमंत्री के नाम अपनी लंबित मांगों का ज्ञापन जिलाधिकारी को सौंपा। 

आपको यह बता दें कि प्रदेशभर की आशा वर्कर्स, मिड-डे मील में कार्यरत रसोइए, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आदि लंबे समय से उत्तर प्रदेश सरकार से स्वयं को राज्य कर्मचारी घोषित करने से लेकर मौजूदा समय में मिलने वाले  1500 और 2000 अति अल्प मानदेय के बदले  21000 हजार न्यूनतम वेतन लागू करने के साथ अन्य बुनियादी आधिकारों की मांग कर रही हैं। ये स्कीम वर्कर्स लगातार संघर्षरत हैं। यहां तक कि करोना काल में (और अभी भी)  करोना वॉरियर के बतौर रात-दिन एक करते हुए इन्होंने अपनी जान की परवाह किए बगैर काम किया। इस पर अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि का भुगतान तो दूर, मिलने वाला मामूली सा मानदेय भी कभी समय पर नहीं मिला। 

इसी मुफलिसी से तंग आकर पिछले दिनों मुरादाबाद के सिविल लाइन्स के महलकपुर की रहने वाली आशा कार्यकर्ता सरिता ने आत्महत्या कर ली। पिछले तीन महीनों से उसे प्रोत्साहन राशि नहीं मिली थी जिसके चलते उनके पास गैस सिलिंडर भरवाने तक का पैसा नहीं था। आर्थिक तंगी से जूझते हुए आखिरकार उन्होंने ज़हर खा कर प्राण त्याग दिए।

प्रदर्शन में शामिल रायबरेली जिले के अंतर्गत आने वाले ऊंचाहार तहसील के गांव गढ़ी पिपराहा की रहने वाली फूलमती पिछले 12 सालों से स्कूल में रसोइए का काम कर रही हैं। 1000 में काम शुरू किया था और इन 12 सालों में मानदेय बढ़ कर हुआ तो मात्र डेढ़ हजार ही हुआ है। वे कहती हैं काम बढ़ता गया लेकिन मानदेय नहीं बढ़ा।अब डेढ़ हजार भले ही मिलता हो लेकिन वह भी कभी समय से नहीं मिलता। उनके मुताबिक पिछले 6 महीने से तो किसी भी रसोइयों को मानदेय मिला ही नहीं। लेकिन सरकार को यह सुध नहीं कि आखिर हम गरीब लोग कैसे अपना परिवार पालेंगे। तो वहीं रसोइया आशा देवी कहती हैं हम सब रसोइए बीस मई तक स्कूल में खाना बनाती हैं लेकिन  हमें कभी मई का भुगतान नहीं किया जाता आखिर ऐसा क्यों है। 

भिन्न जिलों के तमाम रसोइयों से बात करने पर उन्होंने बताया कि उनकी नियुक्ति स्कूलों में खाना बनाने के लिए हुई थी, लेकिन उनसे खाना बनवाने के अलावा कक्षाओं की साफ-सफाई करवाना, घास कटवाना आदि काम भी करवाए जाते हैं, जो उनके कार्य क्षेत्र के दायरे में नहीं आता है। यहां तक कि उन्हें टीचरों के आने से पहले स्कूल पहुंच जाना होता है और छुट्टी के बाद टीचरों के जाने के बाद ही जाना मिल पाता है। वे कहती हैं इतनी लंबी डयूटी करने के बाद आख़िर उन्हें मिलता क्या है। सिर्फ पन्द्रह सौ वो भी समय से नहीं मिल पाता। नौकरी अस्थाई है सो अलग। फूलमती और आशा देवी की तरह ये शिकायतें आज हर उस महिला की है, जो न्यूनतम से मानदेय पर रसोइए का काम  कर रही हैं।

बताते चले कि दिसम्बर 2020 में सरकारी व अर्ध सरकारी प्राइमरी स्कूलों में मिड-डे मील बनाने वाले रसोइयों को लेकर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला दिया था।  कोर्ट ने प्रदेश के सभी रसोइयों को न्यूनतम वेतन भुगतान का निर्देश दिया था। कोर्ट ने कहा कि  मील रसोइयों को इतना कम मानदेय देना  बंधुआ मजदूरी है, जिसे संविधान के अनुच्छेद 23 में प्रतिबंधित किया गया है। कोर्ट ने ये भी कहा कि सरकार का संवैधानिक दायित्व है कि किसी के मूल अधिकार का हनन न होने पाए। सरकार न्यूनतम वेतन से कम वेतन नहीं दे सकती। कोर्ट के इस फैसले से रसोइयों में वेतन बढ़ोत्तरी की उम्मीद जगी थी लेकिन कोर्ट के इस फैसले के बाद भी एक साल होने को आया योगी सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया। यही बदहाली राज्य में कार्यरत आशा बहुओं की भी है,  न नौकरी स्थाई है, न मेहनत का उचित पैसा ही मिलता है और जो मिलता भी है वो कभी समय से   नहीं मिल पाता।

तो वहीं लखनऊ के बीकेटी क्षेत्र की रहने वाली आशा बहू ऊषा देवी कहती हैं, “सरकार के पास हमारा मामूली भर मानदेय देने के लिए भी पैसे नहीं है, तो क्यों नहीं सरकार तमाम सरकारी योजनाओं को बंद कर देती है। कम से कम हमें यह तो तसल्ली रहेगी कि अब बस हमें पूरी तरह से घर और परिवार ही देखना है। लेकिन यहां तो ये हालात हैं कि लंबी ड्यूटी और थकान भरे काम करने के बाद एक सम्मानजनक वेतन मिलना तो दूर,  यहां तो जो थोड़ा बहुत मानदेय भी मिलता है, वह भी कई महीने लटक जाता है। ऊपर से हमारे साथ जो बुरा व्यवहार होता है सो अलग। कहने को तो हम वर्किंग हैं लेकिन स्थिति हमारी यह है कि न तो हम इतना कमा पा रहे हैं कि अपने बच्चों तक की भी स्कूल की फीस दे सकें और न इस काम की वजह से अपने परिवार की तरफ से पूरा ध्यान दे पा रहे हैं... बस इसी उम्मीद पर काम से जुड़े हैं कि कभी न कभी तो सरकार हमारी बात सुनेगी और हमारी मांगों पर ध्यान देगी और हमारी दशा देखकर हमारे लिए एक सम्मानजनक वेतन तय करेगी।" 

उत्तर प्रदेश आशा बहू वर्कर्स यूनियन की रायबरेली जिले की उपाध्यक्ष गीता मिश्रा ने हमें बताया, “अब तय कर लिया है कि अपने आंदोलन से हम बहनें पीछे हटने वाली नहीं  हैं। जब तक सरकार हमारी मांगों को मान नहीं लेती, तब तक हमारा संघर्ष विभिन्न तरीकों से जारी रहेगा।”

वे कहती हैं, “हम हिंसक आंदोलन में विश्वास नहीं करते, हम शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीकों से अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं और लड़ते रहेंगे। आगामी समय में हम एक बड़ी गोलबन्दी के साथ लखनऊ कूच करेंगे।”

गीता आगे कहती हैं, “एक दशक से अधिक समय से आशा वर्कर्स स्वास्थ्य विभाग की नींव बनी हुई हैं। अपने बच्चों को तन्हा छोड़कर देश के बच्चों, माताओं और आमजनों की हिफ़ाज़त में अपना सर्वस्व लगा रही हैं। सरकार सिर्फ काम का बोझ लाद रही है और देने के लिए दो हजार भी नहीं है। न्यूनतम वेतन व राज्य कर्मचारी के दर्जे व समाजिक सुरक्षा के लिए 10 लाख का स्वास्थ्य बीमा व 50 लाख के जीवन बीमा दिये जाने के सवाल को अगर सरकार हल नहीं करती है तो हम प्रदेश की राजधानी की ओर कूँच करेंगे।”

आशा बहू सरिता त्रिपाठी ने कहा कि कितना हास्यास्पद है कि 2000 व 1500 का मानदेय दिवाली जैसे त्योहार पर न देने वाली सरकार अपने झूठे कामों के प्रचार में अरबों रुपए खर्च कर रही है। उन्होंने आशा व रसोईए बहनों के बकाया मानदेय की दीपावली से पूर्व भुगतान की मांग करते हुये कहा कि अगर सरकार मे ज़रा भी शर्म बची हो तो तत्काल भुगतान कर देना चाहिए। 

तो वहीं मिड-डे मील (रसोइया कर्मी) वर्कर्स की नेता सुशीला कहती हैं, “सरकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय के दिसम्बर 2020 के 2005 से एरियर सहित न्यूनतम वेतन दिये जाने वाले आदेश का अनुपालन नहीं कर रही है। न हमारे किये गये काम का मानदेय ही दे रही है। हम सभी स्कीम वर्कर्स को एकजुट होकर संघर्ष के ज़रिये अपना हक  हासिल करना होगा।”

सीतापुर जिले की आशा बहू संगठन की नेत्री रमा देवी कहती हैं, “सुन रहे हैं मुख्यमंत्री हम आशाओं को स्मार्ट फोन देने की तैयारी में हैं। वे हंसते हुए कहती हैं। स्मार्ट फोन तो हमको मिल जाएगा लेकिन हम उत्तर प्रदेश सरकार से पूछना चाहते हैं कि हर महीने फोन को रिचार्ज कराने का पैसा कहां से लाएंगे, तो सरकार से हमारा विनम्र निवेदन है कि स्मार्टफोन का गिफ्ट देने के बजाय हमें हमारी मेहनत का उचित दाम दिया जाए और लंबित पड़ी हमारी मांगों को सुना जाए।”

ऐक्टू प्रदेश अध्यक्ष विजय विद्रोही कहते हैं, “आशा वर्कर्स ने मातृ मृत्यु दर व शिशु मृत्यु दर को विगत वर्षो में अभूतपूर्व ढंग से नियंत्रित करने मे शानदार भूमिका निभाई, कोविड सर्वे बिना सुरक्षा उपकरणों के जान जोखिम में डालकर किया, सरकार जिस 100 करोड़ टीके लगाये जाने को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है, उसमें पहले दिन से आशा कर्मियों का योगदान है। एक तरह से आज़ सम्पूर्ण सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली आशा कर्मियों के कंधे पर है, पर सरकार के एजेंडे में आशा हैं ही नहीं। रोज़ 18 घंटे के मात्र 50 रु डे कर गुलामी जैसी स्थिति बनी हुई है। कार्य केंद्रों पर जेंडर आधारित उत्पीडन, काम को लेकर अपमान तो सामान्य बात है।”

उन्होंने आगे कहा, “सेवा नियमावली निर्मित किया जाना, न्यूनतम वेतन की गारंटी, स्वास्थ्य बीमा व जीवन बीमा व स्थाईकरण का  सवाल है ,ज़िसको लेकर लम्बी लडाई की तैयारी करनी होगी । वे कहते हैं मिड-डे मील से जुड़ी रसोइयों और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं की भी स्थिति बहुत दयनीय है । छोटे बच्चों के लिए संपूर्ण पोषण और भोजन की जिम्मेदारी को संभालते हुए ये बहनें बहुत मामूली से मानदेय पर खटने को विवश हैं।”

वे आगे के संघर्ष के बारे में कहते हैं कि अब अगली लड़ाई लखनऊ में होगी, जहां 29 नवम्बर को प्रदेशभर की स्कीम वर्कर्स अपनी जायज़ मांगों के साथ प्रदर्शन करेंगी।

ऐक्टू राष्ट्रीय सचिव डॉ कमल उसरी ने बताया, “आज 100 करोड़ कोविड वैक्सीन डोज लगाएं जाने का प्रचार-प्रसार करते हुए केंन्द्र व राज्य सरकार थक नही रही है। लेकिन इस लक्ष्य जिन बहादुर कर्मचारियों ने कोरोना वॉरियर्स ने पूरा किया है, सरकार उनके बारे में बात करने को तैयार नहीं है। कोरोना संकट के समय अपने जान की परवाह किए बग़ैर रात दिन काम करने वाली आशा कर्मी को कोरोना वॉरियर्स घोषित करते हैं, स्थाई करने के बजाय कई महीनों से उन्हें पारिश्रमिक भी नहीं दिया जा रहा है। रसोइयों ने कोविड के मरीजों के लिए बने कोरेनटाइन सेंटर पर भोजन बनाया, लेकिन अभी भी उनका सात महीने से तक़ का वेतन बकाया है। इसलिए सरकार की श्रमिक विरोधी गलत नीतियों का विरोध करते हुए ऐक्टू राष्ट्रीय स्तर पर स्कीम वर्कर्स की गोलबंदी लगातार कर रही है।”

 उत्तर प्रदेश मिड-डे मील वर्कर्स यूनियन की संयोजक शीला देवी का कहना है कि रसोईए के लिए आल इंडिया सर्विस नियमावली बनाई जाए। उन्होंने बताया कि हमारी अन्य महत्वपूर्ण मांगें भी हैं जिनके लिए हम संघर्ष कर रहे हैं। इनमें रसोईए के लंबित 7 माह के मानदेय  का भुगतान तुरंत किया जाए, केंद्र प्रायोजित योजनाओं जैसे आईसीडीएस, एनएचएम व मिड-डे मील स्कीम के बजट आवंटन में बढ़ोतरी कर इन्हें स्थायी बनाने, आईसीडीएस और मिड-डे मील स्कीम के सभी लाभार्थियों के लिए अच्छी गुणवत्ता के साथ पर्याप्त अतिरिक्त राशन तुरंत प्रदान करने की मांगें शामिल हैं। इन योजनाओं में प्रवासियों को शामिल करने की मांग भी शामिल हैं।

उत्तर प्रदेश वर्कर्स यूनियन फूलपुर की संयोजक आशा बहू मंजू देवी ने बताया कि हम बहुत अपमानजनक, जोखिम भरी स्थितियों में अल्प मानदेय व अनुतोष राशि पर कार्य करने के लिए विवश हैं और उसका भी भुगतान कभी भी समय से नही होता है। पाररिवारिक जीवन इन परिस्थितियों में बहुत कठिन है। त्योहारों के समय भी मानदेय व अनुतोष राशियों का भुगतान नही किये गये हैं। अत: बाध्य होकर हमें अपनी मांगों के लिए सामूहिक रुप से एकत्र होकर मांग करनी पड रही है।

स्कीम वर्कर्स की मांगे इस प्रकार हैं:

1. सभी स्कीम वर्कर्स जिसमें आशा कर्मी, रसोइए, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आदि शामिल हैं, के लम्बित बकायों का भुगतान तुरन्त किया जाए।

2. कोविड-19 महामारी प्रबन्धन कार्य में लगे आशा कर्मियों के लिए सुरक्षात्मक उपकरण, अस्पताल में भर्ती को प्राथमिकता, 50 लाख रुपये का बीमा कवर, आश्रितों को पेंशन/ नौकरी प्रति माह दस हजार रुपये का अतिरिक्त कोशिश जोखिम भत्ता, संक्रमित हुए सभी वर्कर्स के लिए न्यूनतम दस लाख रुपये का मुआवजा दिया जाए।

3. 45वें व 46वें भारतीय श्रम सम्मेलन की सिफारिशों के अनुसार आशा/संगिनी को श्रमिक के रूप में मान्यता दी जाए।

4. सभी स्कीम वर्कर्स के लिए प्रतिमाह 21,000 हजार रूपए प्रति माह न्यूनतम वेतन और दस हजार रुपये प्रति माह पेंशन तथा ई एस आई, पीएफ प्रदान किया जाए।

5. आशाओं की आल इंडिया सर्विस नियमावली बनाई जाए।

6. सभी को कम से कम 15 दिनों का आकस्मिक अवकाश, चिकित्सा अवकाश, प्रशूति अवकाश, सर्दी गर्मी का अवकाश दिया जाए।

7. स्वास्थ्य अस्पतालों सहित पोषण (आईसीडीएस और मिड-डे मील स्कीम सहित) और शिक्षा जैसी बुनियादी सेवाओं के निजी करण पर रोक लगाई जाए।

लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।

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