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उत्तर प्रदेश चुनाव : डबल इंजन की सरकार में एमएसपी से सबसे ज़्यादा वंचित हैं किसान

सरकार द्वारा एमएसपी पर कुल उत्पादित गेहूं में से सिर्फ़ 15 फ़ीसदी और धान में से सिर्फ़ 32 फ़ीसदी का उपार्जन किया गया। बाकी की फ़सल को किसानों को एमएसपी से कम मूल्य पर व्यापारियों को बेचने पर मजबूर होना पड़ा।
Farming in UP

उत्तर प्रदेश ने 2020-21 में 58.32 मिलियन टन खाद्यान्न अनाज़ का उत्पादन किया था। यह सभी राज्यों में सबसे ज़्यादा था। पूरे देश के उत्पादन का यह करीब़ 19 फ़ीसदी या पांचवा हिस्सा था। खाद्यान्न अनाज़ों में दो बड़ी फ़सलें गेहूं और चावल व दूसरे मोटे अनाज़ और दालें शामिल हैं। उत्तर प्रदेश देश में सबसे ज़्यादा गेहूं उत्पादक राज्य रहा। मध्यप्रदेश और पंजाब को भी इसने पीछे छोड़ दिया। जबकि चावल उत्पादन में बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश दूसरे पायदान पर रहा। मौजूदा वर्ष में भी यही स्थिति रहने का अनुमान है। 

पिछली कृषि जनगणना (2015-16) के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में 2.38 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि उपलब्ध है। यह आंकड़ा बहुत शानदार है। इसमें से 92 फ़ीसदी ज़मीन छोटी और सीमांत जोत है। मतलब 92 फ़ीसदी ज़मीन उन किसानों के हाथ में है, जिनके पास कृषि जोत अधिकतम 2 हेक्टेयर तक ही है। वहीं भारत की बात करें तो 86 फ़ीसदी ज़मीन छोटे और सीमांत प्रकार की जोतों में है। जबकि उत्तर प्रदेश में औसत कृषि जोत का आकार 0.73 हेक्टेयर है, जो भारत के औसत 1.08 हेक्टेयर से कम है। 

संक्षिप्त में कहें तो उत्तर प्रदेश छोटे और सीमांत किसानों वाला राज्य है, जहां भारतीय औसत से कम ज़मीन किसानों के पास उपलब्ध है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश देश में खाद्यान्न उत्पादन में अग्रणी है, क्योंकि यहां भारी संख्या में किसान हैं। तो तय है कि किसान और उनकी आर्थिक स्थिति आने वाले सात चरणों वाले विधानसभा में एक अहम किरदार अदा करेगी। प्रदेश में 10 फरवरी से चुनाव शुरू होने हैं। 

उत्तर प्रदेश में अनाज का कम उपार्जन

किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाता है, ताकि उनके उत्पाद के लिए एक न्यायपूर्ण कीमत निश्चित की जा सके। यह भी पर्याप्त नहीं है, लेकिन इससे उनके श्रम को कुछ मुआवज़ा तो मिल ही जाता है। बाज़ार के स्वामित्व वाले भारत की कड़वी सच्चाई है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य सिर्फ़ सरकारी संस्थाओं द्वारा दिया जाता है, जब वे किसानों से उपार्जन करती हैं। निजी व्यापारी आमतौर पर न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत अदा करते हैं। 

तो कितने किसानों तक यह एमएसपी पहुंच रहा है, वह निर्भर करता है कि कितना उपार्जन हो रहा है। कम मात्रा में उपार्जन का मतलब है कि कम संख्या के किसानों तक एमएसपी पहुंचेगा। ज़्यादा उपार्जन मतलब ज़्यादा किसानों को अच्छी कीमत मिल रही है। 

उत्तर प्रदेश में सरकारी उपार्जन लगातार कम रहा है। भारतीय स्तर से तुलना पर हम पाते हैं कि यह बहुत कम है, जैसा नीचे गेहूं और धान के उपार्जन को बताते चार्ट में दिखाया गया है। 

जैसा ऊपर दिए गए चार्ट में दिखाया गया है कि योगी सरकार के दौर में उपार्जन में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन यह बेहद छोटी और कम है। 2018-19 में, फिर 2021-22 में गेहूं का उपार्जन कुल उत्पादन का 15-16 फ़ीसदी पहुंचने में कामयाब रहा। शायद ऐसा इसलिए रहा कि 2019 और 2022 चुनावी साल थे। 2019 में लोकसभा चुनाव था और 2022 में विधानसभा चुनाव होने हैं। लेकिन 2021 में कोरोना महामारी के बीच राज्य में पंचायत चुनाव करवाए गए। कहा गया कि उपार्जन केंद्र बनाने के बज़ाए ज़्यादा ध्यान चुनावों पर दिया गया इसलिए उपार्जन में कमी आई।  

जो भी बात हो, उपार्जन में कमी का मतलब है कि ज़्यादा किसानों को उनके उत्पाद को व्यापारियों और सौदेबाजों को कम कीमत में बेचने पर मजबूर होना पड़ा। चावल के उपार्जन में भी यही चीज देखने को मिली। नीचे चार्ट देखें।

एक बार फिर उत्तर प्रदेश का उपार्जन देश के औसत उपार्जन से समग्र तौर पर कम रहा। उदाहरण के लिए मौजूदा वर्ष में सरकारी एजेंसियों द्वारा उत्तर प्रदेश में 32 फ़ीसदी धान उत्पाद का उपार्जन होने का अनुमान है। जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह अनुमान 55 फ़ीसदी है। धान और गेहूं दोनों में पंजाब और हरियाणा और हाल में मध्य प्रदेश जैसे राज्य में उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों से ज़्यादा उपार्जन किया गया। 

किसानों को बड़ा नुकसान

किसानों को आखिर कितना नुकसान झेलना पड़ा? फिर कितने किसानों को अपना उत्पाद घोषित एमएसपी से कम पर बेचने पर मजबूर होना पड़ा? इसका सटीक जवाब खोजना मुश्किल है। लेकिन तर्क के साथ कुछ अनुमान लगाए जा सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में 2020-21 में गेहूं और चावल उपार्जन का मामला लीजिए। 157 लाख मीट्रिक टन कुल उत्पादित चावल में से "रिकॉर्ड स्तर" पर 66.84 लाख मीट्रिक टन का उपार्जन हुआ, जिसके लिए किसानों को 12,491.88 करो़ड़ रुपये का भुगतान किया गया। इस खरीद के लिए प्रति क्विंटल 1,868 रुपये का एमएसपी तय किया गया था। इसका मतलब हुआ कि 90 लाख मीट्रिक चावल को संभावित तौर पर एमएसपी के बजाए कम कीमत पर बेचा गया। सरकार का कहना है कि 12.98 लाख किसानों ने अपनी धान की फ़सल एमएसपी पर बेची। इसी अनुपात में अगर हम एमएसपी के नीचे बेची गई धान की फसल (90 लाख मीट्रिक टन) को ध्यान में लें, तो हम पाते हैं कि करीब़ 13 लाख किसानों को अपनी धान की फ़सल एमएसपी से नीचे बेचने पर मजबूर होना पड़ा।

इसी तरह सरकार द्वारा 56.41 लाख मीट्रिक टन गेहूं का उपार्जन किया गया। जबकि कुल उत्पादन 355 लाख मीट्रिक टन था। इसका मतलब हुआ कि किसानों द्वारा 319 लाख मीट्रिक टन गेहूं एमएसपी से कम कीमत पर व्यापारियों को बेचा गया। सरकार की तरफ से एमएसपी 1,925 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया था। सरकारी उपार्जन से 10.22 लाख गेहूं किसानों को 11,141.28 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। इसी अनुपात से देखें, तो बचे हुए एक करोड़ बीस लाख किसानों अपनी गेहूं की फ़सल एमएसपी से कम कीमत पर बेची। 

आज एमएसपी और निजी व्यापारियों द्वारा दी जाने वाली कीमतों में अंतर क्षेत्र के हिसाब से अलग-अलग है। ऐसी रिपोर्ट तक थीं कि कुछ जगह धान 1150 रुपये प्रति क्विंटल तक किसानों द्वारा बेची गई, जबकि समर्थन मूल्य 1,868 रुपये प्रति क्विंटल था। मतलब किसानों को बेइंतहां नुकसान हुआ, वह भी इसलिए कि सरकार उनसे उपार्जन करने में नाकामयाब रही। 

बढ़ता असंतोष

ऊपर जो कहानी बताई गई है, वो सिर्फ़ दो मुख्य फ़सलों की है। जबह दूसरी फ़सलों की बात आती है, तो योगी सरकार का रिकॉर्ड और भी ज़्यादा बदतर है। राज्य सभा में 10 दिसंबर को उपभोक्ता मामलों और खाद्य व सार्वजनिक वितरण की राज्य मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति द्वारा एक सवाल के जवाब में बताया गया कि उत्तर प्रदेश में 2017-18 से मोटे अनाज की तीन मुख्य फ़सलों- ज्वार, बाजरा और रागी का उपार्जन शून्य रहा है। इनमें से कुछ सालों में सिर्फ़ मक्के का ही थोड़ी सी मात्रा में उपार्जन किया गया है। फिर सरसों और मूंगफली, जिनका उत्तर प्रदेश में उत्पादन बंपर स्तर पर होता है, उनका उपार्जन भी बहुत ही कम किया गया है। 2017-18 में सरसों का उपार्जन शून्य था, 2018-19 में 1,211.41 मीट्रिक टन, 2019-20 में 1,455 मीट्रिक टन और 2020-21 में सिर्फ़ 319.20 मीट्रिक टन का उपार्जन किया गया। 

मोटे अनाजों को प्रदेश के उन भीतरी इलाकों में ज़्यादा उत्पादित किया जाता है, जहां सिंचाई की सुविधाएं कम होती हैं, आमतौर पर जहां भूमि का स्वामित्व छोटे और सीमांत किसानों के पास होता है, यह लोग आमतौर पर समाज के पिछड़े तबकों से आते हैं। यही वह वर्ग है जो सरकार द्वारा नज़रंदाज किए जाने का नुकसान उठाता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश और कुछ दूसरी जगह गन्ना बड़ी फ़सल है। लेकिन इसका एफआरपी (फेयर एंड रिमनरेटिव प्राइस) पिछले कुछ सालों से बढ़ा ही नहीं है, बल्कि शक्कर मिलों पर किसानों का बेइंतहा बकाया हो चुका है। अब जब चुनाव पास आ रहे हैं, तब कुछ भुगतान किया गया है, लेकिन अब भी किसानों को पूरा पैसा आने का इंतजार है।

कृषि उत्पादन में अग्रणी रहने के बावजूद उत्तर प्रदेश राज्य इस तरह नाराज़ और असंतोष में रह रहे किसान समुदाय का घर है। यही नाराज़गी लखनऊ में बीजेपी के नेतृत्व वाली तथाकथित डबल इंजन की सरकार का संतुलन खराब कर सकती है।   

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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