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उत्तराखंड : क्या संकट में अपनी राज्य की जनता का नेतृत्व कर सके त्रिवेंद्र?

कोरोना महामारी के समय एक राज्य के प्रशासक के रूप में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत क्या अपनी भूमिका के साथ न्याय करते नज़र आए? अपने कमजोर फ़ैसलों और केंद्र पर निर्भरता के चलते त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार लगातार सवालों के घेरे में है।
त्रिवेंद्र सिंह रावत

एक छोटे से हिमालयी राज्य की करीब सवा करोड़ जनता कोरोना के बड़े संकट के समय जब-जब अपने मुखिया की ओर देखती है तो वह मुखिया केंद्र के अपने मुखिया का मुंह ताकता नज़र आता है। उधर से कोई फ़रमान जारी हुआ तो जनता को पढ़कर सुना दिया। उधर से जो हुक्म आया उसका पालन किया। कोई पहलकदमी नहीं की। कोरोना महामारी के समय एक राज्य के प्रशासक के रूप में मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत क्या अपनी भूमिका के साथ न्याय करते नज़र आए? अपने कमजोर फैसलों और केंद्र पर निर्भरता के चलते त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार लगातार लोगों के निशाने पर आ रही है। मुख्यमंत्री के फैसलों पर सवालिया निशान लग रहे हैं।

मार्च के आखिरी हफ्ते में जनता कर्फ्यू और उसके बाद लॉकडाउन के फैसले का जनता ने पूरी तरह पालन किया। लेकिन इस दौरान कई ऐसे मामले आए जब लोगों को अपने मुखिया से निराशा मिली। लॉकडाउन के बाद सड़कों पर श्रमिकों का काफिला पैदल ही मीलों दूरियां तय करने लगा, पुरुष-महिलाएं-बच्चे हजारों किलोमीटर लंबे सफ़र पर भूखे पेट पैदल ही निकल पड़े। ये 21वीं सदी के समूचे विकास पर सवाल उठाती भयावह तस्वीरें थीं। उत्तराखंड के भी लाखों लोग जगह-जगह फंसे थे और अपने राज्य के मुखिया से मदद मांग रहे थे। ये वो लोग थे जो पढ़ाई और रोजगार के उद्देश्य से दूसरे राज्यों में गए थे। क्योंकि इन दोनों मामलों में राज्य की स्थिति चिंताजनक है। नेताओं, विधायकों, सामाजिक प्रतिनिधियों के पास प्रवासियों की फ़ोन कॉल्स आ रही थीं। सोशल मीडिया पर लोग अपनी तकलीफें लिख रहे थे।

क्या केंद्र के आज्ञाकारी शिष्य की भूमिका से चलेगा काम

इस दौरान केरल, राजस्थान, पंजाब जैसे राज्य संकट की घड़ी में जिस तेजी से कार्य कर रहे थे, उत्तराखंड के मुखिया सिर्फ एक आज्ञाकारी शिष्य की तरह दिखाई दे रहे थे। उऩ्होंने इस समय में जो कार्य सबसे अधिक तन्मयता से किया वो सामाजिक दूरी बनाए रखने की अपील थी। क्योंकि वो जानते थे कि स्वास्थ्य के मोर्चे पर हमारी स्थिति क्या है, इसलिए बचाव का एक मात्र रास्ता सोशल डिस्टेन्सिंग ही है। लोगों ने अपने मुखिया की बात मानी भी। वैसे भी पलायन के चलते राज्य के पर्वतीय जिलों की आबादी कम है और भौगोलिक संरचना के चलते घर यहां दूर-दूर हैं।

प्रवासियों की वापसी के मुद्दे पर त्रिवेंद्र सिंह रावत की चुप्पी अखरती है

नौकरियां चली गईं। शिक्षण संस्थान बंद हो गए। राज्य के लोग जहां-तहां फंस गए। घर वापसी की मांग तेज़ हो गई। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की टीम ने गुजरात के लोगों को चुपचाप हरिद्वार से एसी बसों से रवाना कर दिया और फिर वहां से बसें खाली लौट आईँ। जबकि गुजरात में मौजूद उत्तराखंड के लोग वापसी के लिए बेचैन हो रहे थे। इस घटना के उजागर होते ही विपक्षी दलों और जनता का त्योरियां चढ़ गईं। ये कैसे मुखिया थे जो वहां तक पहुंचकर अपने ही लोगों को छोड़ आए। प्रवासियों को लाने की मांग जितनी तेज़ हो रही थी, राज्य के मुखिया की चुप्पी उतनी ही गहरी।

जब योगी छात्रों को लाए और त्रिवेंद्र देखते रहे

इसके बाद उत्तर प्रदेश सरकार कोटा में फंसे अपने छात्रों को वापस ले आई तो फिर त्रिवेंद्र सिंह रावत पर सवाल उठने लगे। आखिर कैसे योगी अपने छात्रों को ला सकते हैं और त्रिवेंद्र नहीं। ये मुद्दा बढ़ता देख त्रिवेंद्र भी योगी के नक्शेकदम चले और कोटा से विद्यार्थियों को लाने के लिए बसें चलीं।

केंद्र के साथ कुछ ज्यादा ही मिलाई ताल

अप्रैल के आखिरी हफ्ते में केंद्र ने श्रमिकों के साथ ही छात्रों, तीर्थ यात्रियों, पर्यटकों, पेशेवरों समेत सभी फंसे हुए लोगों को वापस लाने का आदेश दिया। उत्तराखंड सरकार ने फटाफट वेबसाइट जारी की और वापस आने की इच्छा रखने वाले लोगों को रजिस्ट्रेशन करने को कहा। मात्र कुछ ही दिनों में एक लाख 65 हजार से अधिक लोगों ने रजिस्ट्रेशन कराया। केंद्र को लगा कि इतने लोग एक साथ लौटेंगे तो उन्हें क्वारंटीन करना, स्वास्थ्य जांच करना, इस सबको मैनेज करना मुश्किल हो सकता है, तो केंद्र ने कदम पीछे खींच लिये, फिर त्रिवेंद्र सिंह रावत के कदम अपने आप पीछे हट गए। जबकि यही वो समय था जब झारखंड ने तेलंगाना में फंसे अपने लोगों को वापस लाने के लिए रेल मंत्रालय से बात कर ट्रेन चलवा दी। उस समय तक रेलवे ने श्रमिकों के लिए ट्रेन की घोषणा भी नहीं की थी।

विरोध के बाद बदलने पड़े फ़ैसले

इसके बाद प्रवासियों का गुस्सा फूट पड़ा। सोशल मीडिया पर ऐसे संदेश भी आए कि अब वे कभी उत्तराखंड नहीं लौटेंगे और उत्तराखंड की सरकार ने उन्हें इतना निराश किया है। इसके बाद वाम दलों, जन संगठनों ने प्रवासियों को लौटाने की मांग को लेकर अपने-अपने घरों से धरना दिया। कांग्रेस ने प्रवासियों को लौटाने की मांग तेज़ की। वोट और अगले चुनाव के लिहाज से ये स्थिति भाजपा के अनुकूल नहीं जा रही थी। फिर मुख्य सचिव उत्पल कुमार सिंह मीडिया के सामने आए और कहा कि चरणबद्ध तरीके से अन्य राज्यों में फंसे लोगों को लाया जाएगा। उन्होंने कहा कि सभी को एक साथ नहीं लाया जा सकता। स्वास्थ्य परीक्षण, वाहनों की व्यवस्था, रूकने की व्यवस्था जैसी बातें देखनी हैं। रेल मंत्रालय से भी बात की गई है। फिर राज्य सरकार ने उत्तराखंड के लोगों को ट्रेन से लाने का खर्च उठाने का भी जिम्मा लिया।

लॉकडाउन में अपनों से नहीं की कोई रैबार

यही बात उत्तराखंड की सरकार ने पहले कह दी होती तो इतना हंगामा न होता। लेकिन इस सब के दौरान त्रिवेंद्र सिंह रावत राज्य के बाहर फंसे अपने लोगों के साथ खड़े दिखाई नहीं दिए। उन्हें किसी तरह राहत पहुंचाने वाली बात नहीं की। जिन्हें अक्सर रैबार के ज़रिये वो राज्य में निवेश के लिए बुलाते रहे। “आवा आपणा घौर”(अपने घर आइये), मेरा गांव-मेरा तीर्थ का संदेश भेजते रहे।   

यूपी के विधायक अमनमणि तोड़ गए उत्तराखंडियों के सब्र का बांध

आग में घी का काम कर दिया अमनमणि त्रिपाठी प्रकरण ने। जब लोगों को एक जिले से दूसरे जिले की सीमा लांघने की इजाज़त नहीं थी। उत्तर प्रदेश के महाराजगंज से एक विधायक 11 लोगों के साथ तीन गाड़ियों में सड़क मार्ग से चमोली के गौचर तक पहुंच जाते हैं और एक जिम्मेदार एसडीएम की ड्यूटी के चलते बद्रीनाथ पहुंचने से पहले लौटाए जाते हैं। लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन करते हुए ये विधायक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के दिवंगत पिता की पितृ पूजा के उद्देश्य से बद्रीनाथ तक पहुंचने का पास हासिल कर लेते हैं। बाद में उत्तर प्रदेश सरकार ने विधायक के इस कदम से अपना पल्ला झाड़ लिया। लेकिन उत्तराखंड में विधायक को आवाजाही की अनुमति देने वाले अपर मुख्य सचिव ओमप्रकाश घिर गए। ये सवाल भी उठे कि क्या ओमप्रकाश बिना मुख्यमंत्री की जानकारी के इस तरह की स्वीकृति दे सकते हैं।

ओमप्रकाश का पत्र.jpg

सीपीआई-एमएल के गढ़वाल सचिव इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि यदि मुख्यमंत्री की जानकारी में ऐसा हुआ या उनकी जानकारी के बगैर ये हुआ, दोनों ही सूरतों में ये फैसला मुख्यमंत्री पर सवाल खड़े करता है। उत्तर प्रदेश के सिंचाई मंत्री भी योगी के पिता की तेरहवीं में शामिल में होने उनके गांव पहुंच गए थे। जब आम लोगों की जरूरी आवाजाही रोकी गई है, ऐसे समय में ये लोग कैसे यहां पहुंच गए, इन्हें क्यों नहीं लौटाया गया।

मुख्यमंत्री क्वारंटीन हैं, सरकार आइसोलेशन में

वरिष्ठ पत्रकार योगेश भट्ट कहते हैं कि कोरोना मामलों की शुरुआत में तो मुख्यमंत्री एक्टिव से लगे लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता रहा, जहां उन्हें मोर्चे पर आना चाहिए था, उन्होंने खुद को कैद कर लिया। आपदा की स्थिति में जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधि से उम्मीद लगाती है, जबकि मुख्यमंत्री ने सारी व्यवस्था नौकरशाहों के हाथ छोड़ दी है। मंत्रियों ने भी खुद को क्वारंटीन किया हुआ है। पूरी सरकार ही आसोलेशन में है।

अमनमणि मामले पर योगेश कहते हैं कि देहरादून में फंसे लोगों को राज्य के अन्य जिलों में जाने की अनुमति नहीं मिली। लोगों ने तीस दिनों से एप्लीकेशन लगा रखी है। ग्रीन केटेग्री के जिलों में आवाजाही की अनुमति नहीं दी गई वहीं उत्तर प्रदेश के विधायक के काफिले को राज्य में एक हफ्ते आवाजाही की छूट दे दी गई।

अब भविष्य को लेकर क्या नीति है सरकार

योगेश भट्ट कहते हैं कि हमारे राज्य में कोरोना संकट में हमारे मुख्यमंत्री ने लोगों से सिर्फ अपील की है कि हमारे राहत कोष में पैसा दीजिए। प्लानिंग के पार्ट पर जीरो रहे। अब जो दो लाख लोग बाहर से आएंगे, हम उनसे कराएंगे क्या? राज्य में चारधाम यात्रा ठप हो गई। पर्यटन इस साल खत्म हो गया। जीडीपी में जिसकी करीब 50 प्रतिशत की भागीदारी है। आम लोगों के पास खेतों के बहुत छोटे टुकड़े हैं। सरकार चकबंदी करा नहीं सकी। इतनी बड़ी संख्या में वापसी से पहाड़ का सोशल स्ट्रक्चर बिगड़ जाएगा। राज्य में कई जगह प्रवासियों की वापसी पर नाराजगी जताते हुए प्रशासन को ज्ञापन दिए गए हैं। अगर सरकार ने प्रवासी को लोगों को वहीं मदद की होती तो भी बेहतर होता।

इसके अलावा इस समय इंड्स्ट्रीज़ सरकार को ब्लैकमेल कर रही है। श्रमिकों को वेतन देना, उनकी आवाजाही की व्यवस्था से हाथ खड़े कर रही है। प्रोडक्शन बंद है तो वे कैसे श्रमिकों को सिक्योरिटी देंगे।

कुछ ऐसी ही स्थिति स्कूलों में फीस को लेकर रही। मुख्यमंत्री राहत कोष में पैसा जमा कराने के बाद स्कूल एसोसिएशन ने अभिवावकों से फीस मांगनी शुरू कर दी। इस मामले पर भी जब हंगामा बढ़ा तो सिर्फ ट्यूशन फीस लेने का आदेश जारी किया गया।

उत्तराखंड को नोवल कोविड-19 वायरस से उतनी दिक्कत नहीं हुई, दिक्कत आर्थिक गतिविधियों के ठप होने से हो रही है। लॉकडाउन के इन 45 दिनों में सरकार ने भविष्य की नीतियों को लेकर कोई दूरदर्शिता नहीं दिखाई। क्या त्रिवेंद्र सिंह रावत के पास भविष्य की नीतियों को लेकर कोई आइडिया है। 

(वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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