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उत्तराखंड चुनाव: ‘बेटी पढ़ाओ’ और ‘लड़की हूं लड़ सकती हूं’ के नारों को खोखला बताती उम्मीदवारों की लिस्ट

कुल 70 में से 59 सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी है, लेकिन मात्र 5 महिलाओं को टिकट मिला है, वहीं कांग्रेस की 64 उम्मीदवारों की सूची में मात्र 6 महिलाएं हैं।
Uttarakhand congress women wing
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अब तक 5 और कांग्रेस ने 6 महिलाओं को टिकट दिया है

लैंगिक नज़रिये से देखें तो अगली उत्तराखंड विधानसभा में सिर्फ नाम भर की महिलाएं नज़र आएंगी। कुल 70 में से 59 सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी है, लेकिन मात्र 5 महिलाओं को टिकट मिला है, वहीं कांग्रेस की 64 उम्मीदवारों की सूची में मात्र 6 महिलाएं हैं। यानी उत्तराखंड के लिए नीतियां तय करने वाले ज्यादातर पुरुष ही होंगे।

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” का नारा और इस अभियान का गुणगान करने वाली भाजपा ने जिन 5 महिलाओं को टिकट दिया है, उनमें से 3 की पहचान उनके पतियों से है। स्वर्गीय हरबंश कपूर की पत्नी सविता कपूर, स्वर्गीय प्रकाश पंत की पत्नी चंद्रा पंत और कुंवर प्रणब सिंह चैंपियन की पत्नी कुंवरानी देवयानी। 

उत्तराखंड की राजनीति में भाजपा और कांग्रेस के बीच ही सत्ता हस्तांतरित होती रही है। उत्तराखंड क्रांति दल, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, वाम दल और अब आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों में भी महिलाओं की संख्या न के बराबर है।

दोनों ही प्रमुख दलों ने प्रत्याशियों की घोषणा से पहले कई-कई सर्वे कराए और जिताऊ कैंडिडेट पर टिकट का दांव लगाया है। 

तो क्या महिलाएं जिताऊ कैंडिडेट नहीं हैं?

पौड़ी के यमकेश्वर से मौजूदा विधायक और पूर्व मुख्यमंत्री बीसी खंडूड़ी की बेटी रितू खंडूड़ी का यमकेश्वर से टिकट कट गया है। हालांकि 11 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा अभी बाकी है। 

रितू कहती हैं “हम बिलकुल जिताऊ हैं। हमें और हमारी बहनों को मौके नहीं दिए जाते। नेतृत्व की सोच को बदलने की जरूरत है। महिलाएं राजनीति में पूरी ईमानदारी से काम करती हैं। खुद को साबित करने के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा मेहनत करती हैं”। 

रितु आगे कहती हैं, “महिला राजनीति से जुड़ती है तो ठेकेदारी करने के लिए, खनन करने के लिए या शराब माफिया के लिए नहीं जुड़ती है। वो एक विचार के साथ जुड़ती है। राजनीतिक रैलियों में, बैठकों में हिस्सा लेने के लिए महिलाएं घर में सुबह 6 बजे खाना बनाकर, पशुओं को चारा डालकर, उसके बाद मैक्स में बैठकर आती है। राजनीति में महिलाएं बहुत अच्छा काम कर रही हैं”। 

पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट से मौजूदा विधायक मीना गंगोला का टिकट भी काट दिया गया है। उनके समर्थकों ने टिकट कटने पर विरोध प्रदर्शन भी किया। टिकट न मिलने पर अफसोस जताते हुए मीना कहती हैं “मैंने 5 साल ईमानदारी से काम किया लेकिन मेरा टिकट भी काट दिया गया। मैं अपने संगठन से लड़ी भी कि मेरा टिकट क्यों काटा? इसका आधार क्या है? मैं भाजपा के साथ बनी रहूंगी लेकिन मेरा टिकट काटकर मेरे साथ गलत किया गया है”।

मीना कहती हैं कि जब महिलाओं की आबादी 50% है तो टिकट भी 50% मिलने चाहिए। 

क्या उत्तराखंड की लड़कियां नहीं लड़ सकती हैं?

प्रियंका गांधी वाड्रा का “लड़की हूं लड़ सकती हूं” नारा आकर्षित करता है। इस नारे के साथ उन्होंने उत्तर प्रदेश चुनाव में महिलाओं को 40 प्रतिशत टिकट देने का ऐलान किया है। 

उत्तराखंड कांग्रेस की प्रदेश प्रवक्ता गरिमा माहरा दसौनी कहती हैं “हर राज्य के अपने अलग चुनावी समीकरण होते हैं। हमारी पार्टी ने टिकट देने से पहले सर्वे कराया। जो नंबर वन आया, जिसका जनाधार है, जो जिताऊ कैंडिडेट है,  उसको टिकट दिया गया है। हम चुनाव जीतने के लिए लड़ रहे हैं”।

गरिमा खुद के लिए भी टिकट की उम्मीद कर रही थीं लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिला है। “मैंने भी पार्टी से टिकट मांगा था। मुझे ये सबक मिला है कि मुझे खुद को अधिक मज़बूत बनाने की जरूरत है। केवल टिकट देने से मातृ शक्ति का सम्मान नहीं होता है। सरकार बनेगी तो दूसरे तरीकों से भी सम्मानित किया जा सकता है।हमारी मातृशक्ति को निराश होने की कतई जरूरत नहीं है”। 

निराश नहीं बल्कि कांग्रेस में टिकट न मिलने पर मातृशक्ति बगावत के तेवर में भी नज़र आ रही है। 2017 में बाजपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने वाली सुनीता टम्टा का टिकट इस बार काट दिया गया है। उनकी जगह चुनाव से पहले भाजपा से कांग्रेस में शामिल हुए यशपाल आर्य को टिकट दिया गया है। सुनीता का बयान है कि टिकट बंटवारे में महिलाओं को पीछे धकेलना साबित करता है कि कांग्रेस की कथनी और करनी में अंतर है।

मातृशक्ति वाला राज्य

देवभूमि, सैन्य भूमि के साथ उत्तराखंड की एक पहचान मातृशक्ति वाले राज्य के तौर पर भी है। उत्तर प्रदेश से अलग उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए कई वर्षों तक चले आंदोलन का प्रतीकात्मक चेहरा महिलाएं रहीं। चिपको आंदोलन की गौरा देवी। पहाड़ों में शराब के विरोध में आंदोलन की अगुवाई करने वाली टिंचरी माई। सत्रहवीं शताब्दी की वीरांगना तीलू रौतेली के नाम पर हर वर्ष राज्य पुरस्कार दिए जाते हैं। पलायन प्रभावित राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में खेतों की ज्यादातर ज़िम्मेदारी महिलाएं ही संभालती हैं। 

महिलाओं को टिकट न मिलने पर आंदोलनकारी और भाजपा से जुड़ी रही सुशीला बलूनी कहती हैं “हकीकत ये है कि महिलाओं ने अपनी दुर्दशा खुद ही की है। ये चुनाव का समय है, महिलाएं ऐलान कर दें कि हम सिर्फ घर-घर जाकर वोट मांगने के लिए नहीं हैं। क्या हमारी इतनी भी इज्ज़त नहीं है, 50 प्रतिशत न सही तो कम से कम 30 प्रतिशत टिकट तो देते”।

राज्य आंदोलनकारी सुशीला बलूनी अपना अनुभव साझा करती हैं। “उस समय अजय भट्ट भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष थे। मैंने उनसे कहा था कि मैं चुनाव लड़ूंगी। उन्होंने जवाब दिया कि आप सीनियर लीडर हैं आपको गवर्नर बनाएंगे। उन्होंने मुझे टिकट नहीं दिया”। 

भारत ज्ञान विज्ञान सामिति की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्य और उत्तराखंड की महिला विंग "समता" की राज्य संयोजिका डॉ. उमा भट्ट कहती हैं “राजनीतिक दल महिलाओं को केवल भीड़ का हिस्सा समझते हैं। भाषण-रैली के लिए इन्हें भीड़ में महिलाएं चाहिए। लेकिन टिकट देने में ये महिलाओं को पीछे कर देते हैं। जबकि उत्तराखंड के आंदोलन से लेकर शराबबंदी आंदोलन तक में महिलाएं आगे रहीं”।

“बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ”, “लड़की हूं लड़ सकती हूं” जैसे अभियान पर उमा कहती हैं “जिस तरह वे दलित के घर भात खाते हैं, वैसे ही महिलाओं के सम्मान में नारे गढ़ देते हैं। ये सिर्फ चुनाव के लिए होते हैं”।

सदन में महिलाएं ला सकती हैं बदलाव

वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में विभिन्न दलों से मात्र 8% महिलाएं उम्मीदवार थीं और 5 महिलाएं सदन पहुंचीं। यानी केवल 8% महिलाएं।

वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 13% और भाजपा ने 7% महिलाओं को टिकट दिया। कुल 5 महिलाएं चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचीं। वही, तकरीबन 8% महिलाएं।

मौजूदा भाजपा विधायक रितू खंडूड़ी कहती हैं “विधानसभा में अगर महिलाओं की संख्या अच्छी होगी तो समाज में महिलाओं की स्थिति निश्चित तौर पर बेहतर होगी। हमारी नीतियों और योजनाओं में जेंडर बैलेंस आएगा। सदन में नीतियों-योजनाओं पर चर्चा के दौरान हमारे विचार सुने तो जाते हैं। लेकिन हम अच्छी संख्या में होंगे तो अपनी बात मनवा भी लेंगे”। 

महिला वोट निर्णायक

प्रत्याशियों के आधार पर सरकार में महिलाओं की स्थिति भले ही मज़बूत न हो लेकिन मतदाता के तौर पर उत्तराखंड में उनकी निर्णायक भूमिका रहती है।

एसडीसी फाउंडेशन के अनूप नौटियाल चुनाव से जुड़े आंकड़ों का विश्लेषण कर बताते हैं कि 2017 के उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में 9 पर्वतीय जिलों की 34 सीटों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की भागीदारी कहीं ज्यादा रही। इन सीट पर 65% महिलाओं ने वोट दिए वहीँ पुरुषों का मत सिर्फ 51% रहा। बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, द्वाराहाट सीट पर महिलाओं ने पुरुषों की तुलना में 9 हज़ार से अधिक वोट दिए। इसलिए राजनीतिक दलों को चुनाव जीतने के लिए ज्यादा से ज्यादा महिलाओं के मुद्दों पर काम करना चाहिए। 

(लेखक वर्षा सिंह देहरादून स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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