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वैक्सीन की राजनीति : भारत जो नसीहत दे रहा है, पहले ख़ुद पर करे लागू

वैक्सीन की राजनीति के अनेकों आयाम हैं, पर मूल बात है कि वह अहानिकर हो और समय से व आसानी से मिल सके। यह कोविड महामारी वैक्सीन निर्माताओं के लिए परेशान लोगों को लूटने और सुपर-प्रॉफिट कमाने का अवसर न बन जाए।
कोरोना वायरस

जहां तक कोविड-19 वैक्सीन (vaccine) का सवाल है, उसके विज्ञान को वैक्सीन पर चल रही राजनीति से अलग करना चहिये। भारत दावा कर सकता है कि कम- से- कम अब तक वह वैक्सीन के विज्ञान में सफल रहा है। बिना किसी कुप्रभाव (side effect) के 70 लाख लोगों का टीकाकरण हो चुका है। वैक्सीन से एक भी मौत नहीं हुई है। फिर भी देश को तब तक प्रतीक्षा करनी होगी जबतक समय के बीतने के साथ उसकी प्रभावोत्पादकता (efficacy) का परीक्षण नहीं कर लिया जाता।

पर जहां तक वैक्सीन की राजनीति का सवाल है, लगता है केंद्र सरकार असफल रही है।

वैक्सीन की राजनीति के अनेकों आयाम हैं, पर मूल बात है कि वह अहानिकर हो और समय से व आसानी से मिल सके। यह कोविड महामारी वैक्सीन निर्माताओं के लिए परेशान लोगों को लूटने और सुपर-प्रॉफिट कमाने का अवसर न बन जाए।

इसलिए, न केवल वैक्सीन के दाम पर नियंत्रण की जरूरत है, वैक्सीन बनाने की तकनीक को सभी वर्तमान व भविष्य के निर्माताओं व विकसित देशों को बिना पेटेन्ट प्रतिबंध के उपलब्ध कराया जाना चाहिये। भारत में वैक्सीन वितरण व संपूर्ण वैक्सीन प्रबंधन, यहां तक कि धन का आवंटन पारदर्शी होना चाहिये; साथ ही विपक्ष-शासित प्रदेशों में इसको लेकर चयनात्मक भेदभाव न किया जाए। यह भी एक राजनीतिक मामला है कि प्राथमिकताएं कैसे तय की जाएंगी-यानी किसे पहले वैक्सीन मिलेगा, और बाद में किस क्रम में लोगों का टीकाकरण होगा। राज्यों और केंद्र की अपनी-अपनी जवाबदेही भी होनी चाहिये।

अभी तक जो घोषणा की गई है, उसके अनुसार पहली प्राथमिकता है कि एक करोड़ सरकारी व  निजी क्षेत्र के स्वास्थ्यकर्मी-केंद्र और राज्य स्तर पर-टीकाकरण करवाएंगे। उसके बाद करीब 2 करोड़ फ्रन्टलाइन वर्करों का टीकाकरण होगा- इनमें होंगे-राज्य व केंद्र की पुलिस, सैनिक, होमगार्ड, सिविल डिफेंस संगठनों में कार्यरत कर्मचारी, आपदा प्रबंधन कर्मी, नगरमहापालिका कर्मचारी, आदि, सहित समस्त सुरक्षाकर्मी। इसके बाद आते हैं 2 प्रधान ग्रुप-50 वर्ष से अधिक आयु वाले या सहरुग्णता यानी (co-morbidity) वाले-जिनकी कुल संख्या 27 करोड़ होगी। सरकार ने इतनी भी जहमत नहीं उठाई कि इन 30 करोड़ लोगों के टीकाकरण की कोई अनुमानित ‘डेडलाइन’ तय करे।

टीकाकरण की रफ्तार बढ़ाओ

अवश्य सरकार ने विघ्न-रहित शुरुआत की है और पहले 28 दिनों में 70 लाख लोगों का टीकाकरण कर दिया, पर यह महज एक छोटी शरुआत है। इन्हीं 70 लाख लोगों को 28 दिन पूरे होने पर टीके का दूसरा डोज़ देना होगा, जो इस शनिवार से शुरू हुआ। यदि वैक्सिनेशन इसी रफ्तार से जारी रहा तो केवल प्राथमिकता वाले ग्रुप्स को टीका देने में कम से कम और 43 महीने लग जाएंगे, यानी साढ़े तीन वर्ष से अधिक!

फेज़-1 के दौरान देश में 3000 वैक्सीन केंद्र हैं। पर, यह देखते हुए कि वैक्सीन से किसी व्यक्ति में अधिक-से-आधिक 1 साल तक प्रतिरोधक क्षमता बनी रहती है, टीका देने के 1 साल बाद वही व्यक्ति संक्रमित हो सकता है। तो यह सुनिश्चित करना होगा कि टीकाकरण अभियान एक निरर्थक चक्रीय प्रक्रिया न बनकर रह जाए। यदि एक साल में टीकाकरण प्रक्रिया को पूरा करना है तो टीकाकरण केंद्रों की संख्या को चौगुना करना होगा। यद्यपि टीकाकरण की रफ्तार को कुछ हद तक तेज किया गया है, सरकार ने कोई वायदा नहीं किया कि टीकाकरण केंद्रों को चौगुना किया जाएगा। फेज़ 1 में केवल 3 करोड़ का टार्गेट लिया गया है। कितनों को टीका दिया जाएगा, कितना समय लगेगा और कितना पैसा खर्च होगा, इसका कुछ पता नहीं है।

2021-22 के सालाना बजट में टीकाकरण के लिए केवल 35,000 करोड़ का आवंटन है, पर इस पैसे को कैसे खर्च किया जाएगा और कितनों का टीकाकरण होगा, इसके कोई आंकड़े नहीं हैं। वित्त मंत्री ने महज एक अस्पष्ट आश्वासन दिया है कि जरूरत पड़ने पर और धन दिया जाएगा; पर कोई ठोस प्रतिबद्धता नहीं दिखाई। यह भी नहीं बताया गया है कि इस टार्गेट को पूरा करने के लिए केंद्र राज्यों को कितना धन देगा।

टीकाकरण 16 जनवरी 2021 से आरंभ हुआ, यानी उस समय जब वित्तीय वर्ष 2020-21 में ढाई महीने बाकी थे। परंतु फेज 1 का टीकाकरण कार्यक्रम, जिसमें 1 करोड़ स्वास्थ्य कर्मियों और 2 करोड़ फ्रंटलाइन कर्मियों को टीके का 2 डोज़ मिल जाना चाहिये था, वित्तीय वर्ष 2020-21 में पूरा हो जाना चाहिये, यानी मार्च 2021 तक। 2020-21 बजट के संशोधित अनुमान (revised estimate) में इसके लिए कितना आवंटन था? 2021-22 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के लिए अनुदान की मांग बजट दस्तावेजों में देखें। बजट 2021-22 के संशोधित अनुमान में कोविड-19 आपात प्रतिक्रिया तथा स्वास्थ्य व्यवस्था तैयारी पैकेज (Emergency Response and health System Preparedness Package) एवं स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन कर्मियों के लिए कोविड-19 वक्सिनेशन का वास्तविक आवंटन केवल 14,217 करोड़ रुपये था।

इसमें से स्वास्थ्य मंत्रालय ने 13,857 करोड़ कोविड-19 इमर्जेंसी रिस्पॉन्स के लिए खर्च किये गए और बाकी 360 करोड़ स्वास्थ्य कर्मियों और फ्रंटलाइन वर्करों के लिए कोविड-19 वैक्सीन हेतु। आप गौर करें कि यह स्वास्थ्य मंत्रालय के वास्तविक कोविड-19 संबंधी आवंटन का मात्र 2.6 प्रतिशत हिस्सा है!

इस 14.217 करोड़ खर्च में से टेस्टिंग पर खर्च-जिसे बाद में काफी व्यापक बनाया गया था-वर्ल्ड बैंक फंडिंग वाले 2475 करोड़ रु के कोविड-19 इमर्जेंसी रिस्पॉन्स ऐण्ड हेल्थ सिस्टम प्रिपेयर्डनेस पैकेज में से आया था, जिससे टेस्टिंग किट्स, टेस्टिंग मशीनें और कोविड-19 के लिए अवयवों और अभिकर्मकों की खरीद होनी थी। इसके मायने हैं कि कृपण मोदी सरकार ने जो टेस्टिंग पर खर्च किया, उसका केवल 15 प्रतिशत टीकाकरण पर खर्च किया, और वह भी वर्ल्ड बैंक द्वारा दिये गए फंड में से!

यदि सरकार टीकाकरण कार्यक्रम को पर्याप्त रूप से विस्तारित नहीं करे, अन्ततः यह निजी मुनाफाखोरों को ही लाभ देगा। जहां तक वैक्सीन की कीमत का सवाल है, द प्रिन्ट में 12 जनवरी 2021 को छपी रिपोर्ट ने बताया कि सरकार सीरम इन्सिटट्यूट/ एस्ट्राज़ेनेका (Serum Institute/AstraZeneca) के कोविडशील्ड 200 रुपये के हिसाब से खरीद रही है और भारत बायोटेक के कोवैक्सीन 295 प्रति डोज़ के हिसाब से। ये निजी क्षेत्र को 1000 रुपये प्रति डोज़ बेचा जाएगा! अतिरिक्त पैसा किसकी जेब में जाएगा, यह रहस्य है।

निर्मला जी का कहना है कि 2021-22 केंद्रीय बजट में 35,000 करोड़ टीकाकरण के लिए आवंटित हुए। इसमें से कितना धन वाकई खर्च किया जाता है, यह तो देखना बाकी है। आखिर निर्मला जी ने अपने बजट अभिभाषण में एक भीमकाय दावा किया कि उन्होंने 2021-22 के बजट में 2.238 लाख करोड़ का आवंटन स्वास्थ्य और भलाई के लिए किया है जबकि 2020-21 के संशोधित अनुमान में यह आंकड़ा 94,452 करोड़ था। पर, यह सफेद झूठ है! स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय का 2021-22 का बजट अनुमान था 73.932 करोड़, जो 2020-21 के संशोधित अनुमान-82,928 करोड़ से वास्तव में कम है! मोदी जी के मंत्रालय के बयानों को कोई गंभीरता से कैसे ले?

वैक्सीन आवंटन नीति के मामले में पारदर्शिता नहीं

केंद्र ने अपनी वैक्सीन वितरण नीति को स्पष्ट नहीं किया। वैक्सीन वितरण नीति जमीनी स्थिति के साथ मेल नहीं खाती। मस्लन, केरल में केस बढ़े हैं परन्तु मुख्यमंत्री पिनरई विजयन के खुले प्रतिरोध के बाद ही राज्य को सप्लाई किये गए वैक्सीन डोज़ में वृद्धि हुई। इसी तरह से छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री ने केंद्र को पत्र लिखकर उनके द्वारा भारत बायोटक के वैक्सीन सप्लाई करवाने पर आपत्ति जताई क्योंकि उसे बिना तीसरे स्टेज की टेस्टिंग के आपातकालीन अनुमोदन दे दिया गया था। इसके जवाब में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से एक घृष्ट (Disgusting ) जवाब आया कि डीसीजीआई (DGCI) ने भारत बायोटेक के कोवैक्सीन को आपातकालीन प्रयोग की अनुमति ऐज़ पर प्रेस्क्राइब्ड प्रोसीजर ऐण्ड आफ्टर ड्यू इवैलुएशन ऑफ इट्स प्री-क्लिनिकल ऐण्ड क्लिनिकल ट्रायल डाटा” (as per prescribed procedure and after due evaluation) दी है; पर सच्चाई तो यह है कि वैक्सीन के तीसरे फेज़ के क्लिनिकल ट्रायल डाटा तो उपलब्ध ही नहीं हैं। इसका सीधा मतलब है कि एक विपक्षी सरकार को मुंह बंद रखने को कहा गया-यही भाजपा के ‘सहयोगी संघवाद’ का मॉडल है।

दरअसल, स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक उच्च स्तरीय समिति का निर्माण किया था, जिसमें केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव और डा. पॉल को को-चेयरपर्सन के रूप में रखा गया, ताकि वे टीकाकरण योजना तैयार करें। समिति की सिफारिशों के आधार पर स्वास्थ्य शोध विभाग के सचिव ने स्वास्थ्य व परिवार कल्याण पर संसदीय स्थायी समिति में 16 अक्टूबर 2020 की बैठक में कहा कि मंत्रालय की योजना इस प्रकार हैः संपूर्ण जनसंख्या को 3 समूहों में बांटा जाएगा-पहला कोर ग्रुप (core group), दूसरा ब्रिज ग्रुप (bridge group) और तीसरा आम जनता (general population)। संसदीय समिति ने इसका विरोध किया और 21 नवंबर 2020 को संसद में पेश महामारी प्रबंधन पर अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ कहाः ‘‘समिति कोविड-19 के विरुद्ध एक वैक्सीन के आविष्कार के लिए वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय के बीच बेचैनी को समझती है। परन्तु समिति जोर देकर कहना चाहती है कि वैक्सीन शोध अध्ययन के मामले में सर्वोच्च स्तर के आचार व कार्यविधि-संबंधी मानदंडों को सुनिश्चित किया जाए। वैक्सीन को क्लिनिकल परीक्षणों के सभी चरणों के कड़ाई से विनियमित मार्ग को पास करना हागा (जोर लेखक का)। इसलिए समिति का प्रस्ताव है कि मंत्रालय को एक पारदर्शी दृष्टिकोण अपनाना चाहिये वैक्सीन के अनुमोदन/निर्माण में किसी भी प्रकार की अनियमितता से बचना चाहिये।” बावजूद इसके कि संसदीय स्थायी समिति ने विरोध दर्ज किया, मोदी सरकार ने भारत बायोटेक के वैक्सीन को बिना तीसरे चरण के परीक्षण से गुजरे हरी झंडी दिखा दी। छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव ने केवल इस विसंगति की ओर इशारा किया था पर उन्हें हर्ष वर्धन से एक ख़राब प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा।

टीकाकरण की चुनौती है भारी

संपूर्ण जनसंख्या की सुरक्षा क्या केवल 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन देकर हो जाएगी? जहां कुछ विशेषज्ञों ने सरलीकृत और विवादास्पद ‘हर्ड इम्युनिटी’ थ्योरी (herd immunity theory) को प्रतिपादित किया, कई अन्य विशेषज्ञों ने प्रस्ताव दिया है कि संपूर्ण जनसंख्या को सुरक्षित रखने के लिए टीकाकरण 85 प्रतिशत तक पहुंचाना होगा। ‘हर्ड इम्युनिटी’ थ्योरी के मानने वालों का कहना है कि यदि केवल 50-60 प्रतिशत जनसंख्या का टीकाकरण हो जाए तो देश की जनसंख्या काफी सुरक्षित हो जाएगी। दूसरी ओर, विरोधी कहते हैं कि यह गलत है क्योंकि वैक्सीन केवल किसी व्यक्ति को सुरक्षित कर सकता है पर एक व्यक्ति से दूसरे तक फैलने को रोक नहीं सकता। संक्रमण की रफ्तार को गुणात्मक रूप से तभी कम किया जा सकता है जब 85-90 प्रतिशत जनता वैक्सीन के जरिये प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लें।

136.6 करोड़ जनसंख्या में से जो 18 वर्ष से कम उम्र के हैं, उन्हें वैक्सीन से मुक्त रखा गया है। तब करीब 80 करोड़ लोग बचते हैं। यदि 90 प्रतिशत को टीका देना है जो कम से कम 70 करोड़ का टीकाकरण होना होगा। जाहिर है वर्तमान रफ्तार से 8 साल लगेंगे, तो क्या टीकाकरण 8 सालों तक चलता रहेगा?

नए वायरस संस्करणों का ख़तरा

फिर नई जटिलताएं भी हैं। वायरस म्यूटेशन (virus mutation) का प्रश्न भी है। पहले तो यह अच्छी खबर आई कि जो वैक्सीन उपलब्ध हैं, वह यूके वाले संस्करण के विरुद्ध भी काम करेगा। पर और भी नए संस्करण (variants) आ गए हैं, जिनमें से एक दक्षिण अफ्रीका और एक ब्राज़ील से है। और भी खतरनाक है कि पिछले हफ्ते दक्षिण अफ्रीका ने एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन वाले अपने कार्यक्रम को स्थगित कर दिया (ये उन दोनों वैक्सीन्स में से एक है जो भारत में आपातकालीन प्रयोग में है) क्योंकि यह साबित हो चुका है कि वह दक्षिण अफ्रीकी संस्करण से बचाव नहीं कर पाता। जॉन्सन ऐण्ड जॉन्सन और नोवावैक्स वैक्सीन का परीक्षण कई देशों में सफलतापूर्वक किया गया है पर लगता है वे दक्षिण अफ्रीका में कम प्रभावशाली साबित हो रहे हैं-उनकी गुणवत्ता क्रमशः 72 प्रतिशत से 57 प्रतिशत और 89 प्रतिशत से 49 प्रतिशत तक गिरी है। यानी ये वैक्सीन करीब 50 प्रतिशत जनता को ही सुरक्षित कर सकेंगे। सौभाग्यवश भारत में अब तक दक्षिण अफ्रीकी संस्करण का एक भी केस नहीं पाया गया है, पर आत्मसंतुष्टि के लिए जगह नहीं है। मस्लन सीरो-पॉज़िटिव सर्वे (sero-positive surveys) ने दिखाया है कि ब्राज़ील के कुछ इलाकों में 50 प्रतिशत लोगों ने वायरय के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर ली थी, पर हाल के दिनों में इन्हीं क्षेत्रों में कोविड संक्रमण बढ़ा है। इसके मायने हैं कि जिन लोगों को एक बार कोविड-19 हो चुका था, उन्हें उसका नया संस्करण संक्रमित कर रहा है।

तो कोविड वायरस के विरुद्ध चल रहे युद्ध में नए संस्करणों के विरुद्ध नए वैक्सीन्स की जरूरत पर भी ध्यान देना होगा।

डब्लूटीओ में भारत-दक्षिण अफ्रीका की संयुक्त पहल

उभरती वैक्सीन की राजनीति से इतना तो पुनः साबित हो गया है कि राष्ट्रवाद एक दुधारी तलवार है। 2 अक्टूबर 2020 को भारत और दक्षिण अफ्रीका ने संयुक्त रूप से डब्लूटीओ के ट्रिप्स परिषद (TRIPS Council) में एक ज्ञापन प्रस्तुत किया था जिसमें मांग की गई कि ट्रिप्स समझौते के कुछ प्रावधानों को अस्थायी तौर पर स्थगित किया जाए। यह मांग इसलिए की गई कि कोविड-19 का निवारण, रोकथाम और इलाज हो सके। इसकी अनुमति आपातकाल में जीवन-रक्षक दवाओं के लिए डब्लूटीओ के ट्रिप्स फ्रेमवर्क के अंतर्गत है। यह वैक्सीन और कोविड मरीजों के इलाज के लिए बनने वाली औषधियों के लिए लागू है। ज्ञापन में कहा गया है,‘‘ऐसी कई रिपोर्टें हैं कि बौद्धिक संपदा अधिकार मरीजों के लिए समय से मेडिकल उत्पादों को सस्ते दर पर उपलब्ध कराने में बाधक हैं या आगे बनेंगे। यह भी रिपोर्ट किया गया है कि कुछ डब्लूटीओ सदस्यों ने अपने राष्ट्रीय पेटेन्ट कानूनों में अत्यावश्यक कानूनी सुधार किये हैं ताकि अनिवार्य/सरकारी लाइसेंस जारी करने की प्रक्रिया को तेज किया जा सके।’’ ज्ञापन में यह भी इंगित किया गया कि यही नहीं, घरेलू उत्पादन हेतु तकनीक हस्तांतरण और यहां तक कि वैक्सीन व औषधियों के निर्यात व समय से उपलब्ध कराने की प्रक्रिया में भी बाधाएं हैं।’’

यह सही दिशा में पहल थी। डब्लूटीओ की स्थापना करने वाले माराकेश समझौते (Marrakesh Agreement) में कहा गया है,

‘‘ असाधारण परिस्थितियों में मंत्री सम्मेलन तय कर सकता है कि इस समझौते या किसी अन्य व्यापार समझौते द्वारा किसी सदस्य पर लागू किया गया इकरारनामा इस शर्त पर हटाया जा सकता है कि ऐसा निर्णय 3/4 सदस्यों द्वारा लिया गया है।’’ 30 से अधिक निम्न व मध्यम आय वाले देशों ने भारत और दक्षिण अफ्रीका की इस पहल का तुरन्त उत्साहपूर्वक समर्थन किया। पर विकसित देशों के विरोध के कारण बैठक स्थगित कर दी गई।

भारत ने पहले ही दो वैक्सीन निर्मित किये थे, जो उपयोग में हैं, और कम से कम 6 अन्य वैक्सीन भारत में ट्रायल के अलग-अलग चरणों में हैं। तो भारत ने दक्षिण अफ्रीका के साथ अपने स्वार्थ में नहीं, बल्कि संपूर्ण विकासशील दुनिया और गरीब जनमानस के हित में एक ‘वर्गीय पहल (‘class action’) लिया, ताकि उन्हें वैक्सीन मिल सके जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा निर्मित और मार्केट किये जा रहे महंगे कोविड-19 वैक्सीन व औषधियां खरीद नहीं सकते।

जो कहो उसे व्यवहार में उतारो

यद्यपि भारत और दक्षिण अफ्रीका डब्लूटीओ के ट्रिप्स परिषद में अपने प्रस्ताव पर 3/4 बहुमत नहीं जुटा सके, सख्त ट्रिप्स शर्तों से बचने के और भी उपाय हैं।

गैट (GATT), जो डब्लूटीओ से पहले था, में भारत के पूर्व स्थायी प्रतिनिधि श्री एसपी शुक्ला ने बताया कि ट्रिप्स समझौते में अनिवार्य लाइसेंसों के प्रयोग की अनुमति थी। ‘‘अनिवार्य लाइसेंसिंग सक्षम सरकारी अधिकारी को अनुमति देता है कि वह किसी तीसरी पार्टी या सरकारी एजेंसी को बिना आवश्यक तौर पर पेटेंट-धारक की अनुमति के, पेटेंट किये आविष्कार की लाइसेंस दे, यदि उचित हो।’’ मस्लन, हम इससे निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यदि कीनिया या बंग्लादेश का कोई संभावी निर्माता भारत बायोटेक से तकनीक के लिए संपर्क करता है, और यदि उक्त कम्पनी वाजिब शर्तों पर देने से इन्कार करती है, तो कीनिया या बंग्लादेश की कम्पनी भारत सरकार से संपर्क कर सकती है और हमारी सरकार भारत बायोटेक के फैसले को निष्प्रभावी बनाकर कीनिया या बंग्लादेश की कम्पनी को वही तकनीक इस्तेमाल करने की अनुमति दे सकता है।

दूसरी बात कि यदि कुछ वैक्सीन और औषधियां पेटेन्ट भी की जाती हैं, सरकार द्वारा उन्हें निर्मित करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। पर, दुर्भाग्यवश, बजाय इसके कि आईडीपीएल जैसे फार्मा पीएसयू (Pharma PSUs like IDPL) को सुदृढ़ किया जाता, कोविड-19 आपातकाल के बीच भी सरकार इन्हें बंद करने पर तुली है।

तीसरे यह कि कई ऐसे तरकीब हैं जिनके माध्यम से भारत सरकार भारत के वैक्सीन निर्माताओं और फारमा कम्पनियों के अन्य पेटेंट किये हुए कोविड-19 औषधियों की तकनीक ले सकती है और गरीब देशों की कम्पनियों को निःशुल्क मुहय्या करा सकती है। इस तरह वह विश्व में मॉडल बन सकती है कि जो कहा गया उसे व्यवहार में भी उतारकर दिखाया। आखिर वह निजी वैक्सीन निर्माताओं को हज़ारों करोड़ रुपये के ऑर्डर दे रही है तो इतना सौदा उनसे कर ही सकती है। फिर यह भी करना उसके लिए बहुत आसान होगा कि वैक्सीन और कोविड-19 औषधियों के दामों और टीकाकरण के दाम पर सीमा लगाए। दुर्भाग्यवश हमने मोदी सरकार की ओर से ऐसी कोई पहल नहीं देखी।

सीएमसी वेल्लोर के वायरोलॉजी और माइक्रोबायोलॉजी (Virology and Microbiology) के पूर्व प्रोफेसर डॉ. जैकब जॉन ने प्रस्तावित किया है कि कोविडशील्ड के डोज़ के बीच 28 दिन के बजाय 90 दिनों का अंतराल रखा जाए। इसपर कई विशेषज्ञ, यहां तक कि डब्लूएचओ भी सहमत हैं। सरकार को तत्काल इन सुझावों पर ध्यान देना चाहिये। अधिकारियों को प्रयोगकर्ताओं द्वारा वैक्सीन के चयन पर अपने सख्त रवैये को छोड़ना चाहिये और राज्यों या अन्य उपभोक्ताओं को अपने पसंद का वैक्सीन चुनने की छूट देनी चाहिये। राज्यों को टीकाकरण अभियान में उचित भूमिका भी देनी चाहिये। सरकार को एक विस्तृत परिचालन योजना बनानी चाहिये जिसे सार्वजनिक बहस के बाद अपनाया जा सके।

(लेखक श्रम व आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं)

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