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क्या है तालिबान, क्या वास्तव में उसकी छवि बदली है?

तालिबान इस्लामिक कानून से हटने वाला नहीं है। वह दुनिया के सामने ऐसा कोई दस्तावेज पेश नहीं करने वाला है जिससे उसकी जिम्मेदारी तय हो। तालिबान जो कुछ भी कर रहा है, वह दुनिया के समक्ष उसका बाहरी दिखावा से ज्यादा कुछ नहीं है।
Taliban

जब भी तालिबान का जिक्र होता है तो हमारे दिमाग में ऐसे लोगों की छवि उभरती है जिनके हाथों में बंदूक हैं, चेहरे पर दाढ़ी है, सर पर पगड़ी है, ढीला ढाला सलवार कुर्ता है, जो कभी किसी कॉमेडियन को मार देते हैं, कभी किसी निहत्थे पत्रकार को। जो औरतों पर जुल्म ढाते हैं, बच्चों को पढ़ने लिखने से दूर रखते हैं और मौजूदा दुनिया की आधुनिकता से एक अंतहीन लड़ाई में लगे हुए हैं। इसी छवि के इर्द-गिर्द तालिबान के प्रति हमारी मान्यताएं बनती हैं।

ऐसे में एक स्वाभाविक सा सवाल उठता है कि क्या तालिबान के भीतर प्रगतिशीलता की थोड़ी बहुत भी मौजूदगी है या नहीं? अगर प्रगतिशीलता की थोड़ी बहुत भी मौजूदगी नहीं है, तो कैसे यह उम्मीद की जाए कि तालिबान अफगानिस्तान के साथ न्याय कर पाएगा? कैसे यह कहा जाए कि दुनिया के वे सभी मुल्क तालिबान के साथ बात करके ठीक कर रहे हैं जो अब तक उसे एक आतंकवादी संगठन के तौर पर मानते आए हैं? यह ऐसे सवाल है जिनका जवाब यहां से मिलेगा कि यह समझा जाए कि तालिबान क्या है? इसका इतिहास क्या रहा है? मौजूदा समय में इसके नजरिए में क्या बदलाव हुआ है?

तालीम शब्द से तालिब बना है। तालिबान-तालिब का बहुवचन है। शिक्षा हासिल करने को तालीम कहा जाता है। इस तरह से शिक्षा हासिल करने वाले विद्यार्थियों को तालिबान कहा जाता है। यह तो महज शब्द का अर्थ है। संदर्भ की कहानी से इस शब्द की सही व्याख्या समझी जा सकती है।

अफगानिस्तान में 90 का दशक अफगान सरकार और अफगान सरकार के विरोधियों के संघर्ष के खून से डूबे संघर्ष का दौर था। उस समय के सोवियत संघ ने अफगान  सरकार का साथ दिया था। अफगान सरकार के विरोधी अफगानिस्तान के गांव देहात से छापेमारी लड़ाई लड़ रहे थे। छापेमार लड़ाई की यह प्रकृति होती है कि इसमें हारने वाले को भले ही बहुत अधिक नुकसान क्यों न पहुंचे, लेकिन वह तब तक लड़ता है, जब तक जिंदा रहता है। इसी अदम्य जुझारूपन की वजह से सोवियत संघ की सेना ने भले ही अफगानिस्तान के ढेर सारे मुठभेड़ क्यों न जीती, लेकिन वह अफगानिस्तान सरकार के गांव देहात के विरोधियों यानी को पूरी तरह से खत्म कर पाने में असफल रही।

इस लड़ाई में ढेर सारे परिवार टूटे। अफगानिस्तान के मर्दों ने औरतों, बच्चों और बड़ों को पाकिस्तान और ईरान भेज दिया। तकरीबन 60 लाख औरत, बच्चे और बूढ़े 1985 से लेकर 1990 के बीच में अफगानिस्तान से निकलकर पाकिस्तान और ईरान के रिफ्यूजी कैंपों में रहने लगे। इधर अफगानिस्तान सरकार के खिलाफ लड़ रहे मर्दों को अमेरिका का साथ मिला। इन्होंने सोवियत संघ को हारने पर मजबूर कर दिया, लेकिन अंतहीन युद्ध गृह युद्ध में तब्दील हो चुका था।

अफगानिस्तान के अंदर ही आपसी लड़ाई होने लगी। गांव देहात के लोग शहरों से लड़ने लगे। इसी बीच अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बॉर्डर पर रिफ्यूजी कैंप में रह रहे बच्चे भी बड़े हो रहे थे। ये बच्चे भी अपनी जिंदगी को लेकर कई तरह के अवसाद से घिरे थी। इन बच्चों को सही तालीम मिलने की बजाय कट्टरपंथ की तालीम मिली। सऊदी अरब की फंडिंग से पाकिस्तान के बॉर्डर पर तकरीबन 2000 मदरसे खुले

जहां इन बच्चों को शिक्षा देने की बजाय यह बात बतलाई गई कि इस्लाम से अलग जो भी है वह बुरा है। इस दुनिया से इस बुराई को ही साफ करना है। यही सोच रखने वाले विद्यार्थियों का समूह तालिबान कहलाया। जिसकी चेतना ही इस बात पर विकसित हुई थी कि दुनिया की बुराई ने उनसे उनका घर, माता पिता, सब कुछ छीन लिया। और उनकी जिंदगी का मकसद यही है कि उन्हें इस दुनिया की बुराई से अंतिम सांस तक लड़ना है। इस तरह भले दुनिया के लोग जिसे कट्टरपंथ मानते हों, लेकिन तालिबान उसे ही असली शिक्षा मानता है, जहां इस्लाम के अलावा सब कुछ बुरा माना जाता है।

इस तरह से साल 1990 के शुरुआती दौर में अफगानिस्तान से सोवियत संघ के चले जाने के बाद उत्तरी पाकिस्तान में तालिबान का आगमन हुआ। तकरीबन 1990 से लेकर 95 तक का समय तालिबान ने अफगानिस्तान पर पूरी तरह से कब्जा हासिल करने की लड़ाई में खर्च किया। इस दौरान सुन्नी इस्लाम के सबसे कठोर नियमों के अफगानिस्तान में फैलाने का काम किया। तालिबान ने आम लोगों से वादा किया कि इस्लामिक कानून के जरिए वह अफगानिस्तान में खुलेआम चल रहे भ्रष्टाचार, गैर कानूनी काम और कई तरह के संघर्षों को खत्म करेगा। लोग भी अंतहीन लड़ाई से पूरी तरह थक चुके थे। वह भी इस्लामिक कानून से ही संचालित होने लगे। उन्होंने तालिबान पर पूरी तरह से भरोसा किया।

साल 1998 में तालिबान ने अफगानिस्तान के 90 फीसदी इलाके पर कब्जा कर लिया। लेकिन समय बीतने के साथ वह हुआ नहीं हुआ जिसकी उम्मीद थी। तालिबान कठोर तरीके से शरिया कानून लागू करने लगा। कठोर सामाजिक नीतियां अपनाने के लिए मजबूर करने लगा। न्याय के नाम पर तालिबान की तरफ से बर्बर कृत्य होने लगे। औरतों पर ढेर सारी प्रतिबंध लगे। नियम बना की बिना किसी मर्द के साथ औरतें अकेले बाहर नहीं जाएगी। मर्द को एक तय लंबाई तक दाढ़ी अपनी बढ़ाकर रखनी होगी। गाना बजाना नाचना और सिनेमा समाज में पूरी तरह से प्रतिबंधित होगा। अगर कोई नियम तोड़ेगा तो उसे भरी भीड़ के सामने दंडित किया जाएगा। चोरों के हाथ काट दिए जाएंगे। औरतों ने अगर तयशुदा पहनावा नहीं पहना तो भरी भीड़ के सामने उन्हें दंडित किया जाएगा।

उसके बाद 9/11 की घटना हुई। नाटो सदस्यों की अगुवाई करते हुए अमेरिका ने अफगानिस्तान से तालिबान पर हमला बोल दिया। अमेरिकी मदद से अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार बनी। जिसका चरित्र केवल कागज पर लोकतांत्रिक था। तालिबान अफगानिस्तान के गांव देहात के इलाके में चला गया। वहां से फिर अमेरिकी सेना और अफगानी सैन्य बलों के खिलाफ छापे मार लड़ाई लड़ने लगा। इस लड़ाई का फायदा यह हुआ कि अमेरिका ने तालिबान और आतंकवाद को खत्म करने के नाम पर जंग तो छेड़ी, लेकिन इनमें से कुछ भी नहीं हो पाया।

अमेरिका से कोसों दूर मौजूदा अफगानिस्तान में केवल तकनीक और हथियार के बलबूते आतंकवाद के खिलाफ जंग जीतने का मकसद बताकर आई अमेरिकी सेना अब अफगानिस्तान से भागने को मजबूर है। बिना किसी शासन का ढांचा खड़ा किए अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से निकल रही है। तालिबान से बात कर रही है, लेकिन उससे यह नहीं पूछ रही कि वह अफगानिस्तान में शासन कैसे करेंगे। क्या उनके पास किसी तरह की संकल्पना है भी या नहीं?

हालिया स्थिति ऐसी है कि अफगानिस्तान के चंद शहरी इलाकों को छोड़कर अधिकतर हिस्सों पर तालिबान का कब्जा हो गया है। तकरीबन सभी जानकारों का कहना है कि आने वाले समय में तालिबान ही अफगानिस्तान पर हुकूमत करने जा रहा है। इसलिए जो भी अफगानिस्तान से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित हो सकता है वह सभी देश तालिबान से बात कर रहे हैं। लेकिन इन सभी बातचीत के बीच में वह सवाल मौजूद है कि क्या तालिबान के भीतर बदलाव के ऐसे बिंदु नजर आते हैं जिससे यह भरोसा पनपे कि वह अफगानिस्तान को एक ठीक-ठाक भविष्य दे पाएगा?

कार्टर मालकशियन संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व सलाहकार हैं। तालिबान के रुख पर मीडिया में उनका बयान छपा है। वह कहते हैं कि तालिबान एक अबूझ पहेली है। वह क्या करेगा, क्या नहीं करेगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल है? लेकिन जो एक चीज उसके जन्म से लेकर अब तक उसके साथ चली आ रही है, वह है इस्लामिक कानून पर भरोसा। उसे किसी भी तरह से लागू करवाने की इच्छा। अपनी संस्कृति, प्रथा और परंपराओं के प्रति पूरी तरह से अंधभक्ति। यह अब भी उनका केंद्रीय तत्व है। पूरा तालिबान समूह कठोर रुख अपनाने वाले धार्मिक विद्वानों से संचालित होता है। दुनिया में वह अपनी छवि बदलने की बात भले कर रहे हो और दुनिया भी इस उम्मीद में हो कि उनकी छवि बदल रही है लेकिन हकीकत यही है कि उनका केंद्रीय तत्व इस्लामिक नियम कानून ही है।

लंदन के रॉयल यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट के सदस्य एंटोनियो ग्युस्टेजी का मानना है कि जो नेता तालिबान की तरफ से इस समय विश्व बिरादरी से बात कर रहे हैं वह थोड़े नरम मिजाज के लोग हैं। अपने व्यवहार से ठीक-ठाक भविष्य की उम्मीद पैदा कर रहे हैं। लेकिन तालिबान के जो बड़े नेता हैं, वह बहुत अधिक विवादास्पद हैं। बहुत अधिक अतिवादी हैं। विश्व बिरादरी भी उन्हें आतंकवाद, अतिवाद और कट्टरपंथ से जुड़ा हुआ मानती है।

इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप और यूनाइटेड स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ पीस जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट नए तालिबान के उभार के बारे में बात करती हैं। इन रिपोर्टों के मुताबिक तालिबान अपने रुख में नरम हुआ है। खुद को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार से जुड़े नियम कानूनों के अंदर लाने की कोशिश में भी है। अपनी प्रथाओं परंपराओं को लेकर नरमी भी बरतने को तैयार हो रहा है। औरतों के मसले पर थोड़ा उदार हो रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में  एनजीओ के साथ मिलकर काम की करने की योजना बना रहा है। साल 1990 में विदेश नीति के मातहत उसने यह गलती की थी कि उसे सिर्फ पाकिस्तान, यूनाइटेड अरब, अमीरात और सऊदी अरेबिया से ही मान्यता मिली और उसने दूसरे देशों की परवाह नहीं की। बल्कि इस बार वह हर देश से बात करने को तैयार हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि साल 2014 के बाद से तालिबान संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकारियों से इस विषय पर बातचीत करते आया है कि किस तरह से नागरिकों को कम से कम नुकसान हो और मानवता के आधार पर अधिक से अधिक फायदा पहुंचाया जा सके।

अफगानिस्तान की जमीन से कुछ ऐसी भी रिपोर्ट आई है कि तालिबान औरतों को लेकर थोड़ा उदार हुआ है। बच्चियां स्कूल जा रही हैं। औरतें बिना किसी मर्द साथी के घर से बाहर भी निकल रही हैं। लेकिन यह सच्चाई तालिबान के जरिए हुकूमत किए जाने वाले हर जिले की नहीं है। कुछ ही जिले हैं, जहां पर तालिबान के कमांडरों ने कुछ उदार रुख अपनाया है।

ब्रुकिंग यूनिवर्सिटी की सीनियर फेलो वंदा फेलब्राउन का मानना है कि भले ही तालिबान इस्लामिक कानून को मानता हो लेकिन अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग तरह के नियम कानून है। जिनका अलग-अलग व्याख्याओं के आधार पर संचालन होता है। उनके पास कोई जस्टिस सिस्टम नहीं है। इसलिए इंसाफ और न्याय के नाम पर बहुत भयानक कृत्य किए जाते हैं। 

अफगानिस्तान पर किताब लिखने वाले लेखकों का कहना है कि अफगानिस्तान मूलतः एक मर्दवादी समाज है। जिसमें औरतों की कोई खास इज्जत नहीं है। स्कूलों में नायक के तौर पर जिन्हें प्रेरणा के लिए इस्तेमाल किया जाता है वे सभी मर्दवादी किस्म के नायक हैं। स्त्री द्वेष को गुण के तौर पर बरता जाता है। हद तो यह है कि यह सारी बातें सिखाई जाती हैं। संस्कृति और प्रथा के नाम पर अपनाई जाती हैं। इस मामले में न तो शहरी अफगानी और न ही गांव देहात के इलाकों के अफगानी में किसी भी तरह का अंतर है। अच्छे से अच्छे और संभ्रांत परिवारों में औरतों को लेकर द्वेष है। 

अफगानिस्तान के दक्षिण और पश्चिम का इलाका पश्तूनों का इलाका है। तालिबान के अधिकतर सदस्य पश्तून ही हैं। जिनका उत्तर के ताजिक और उजबेकों से गहरा द्वेष है। अगर तालिबान के लोग सत्ता संभालते हैं तो उत्तर के ताजिक और उज्बेकों से खतरनाक किस्म का भेदभाव किया जाएगा। ताजिक और उज़्बेक मुख्यत उत्तर के शहरों के निवासी हैं। थोड़े से उदार हैं। लेकिन इसका कहीं से मतलब नहीं है कि वह अपने परंपराओं प्रथाओं के बेकार के तत्वों को पूरी तरह से खारिज कर आगे बढ़ चुके हैं। 

तालिबान के प्रवक्ता मीडिया में यह बयान देते हैं कि अचानक से ऊपर से सबकुछ लागू कर समाज को पूरी तरह से नहीं बदला जा सकता। हर इलाके की अपनी मान्यताएं परंपराएं हैं। ऊपर से दबाव डालकर इसका असर खतरनाक हो सकता है। धीरे-धीरे इसमें सुधार किया जाएगा। 

जबकि अफगानिस्तान के मामलों पर पकड़ रखने वाले सिंगापुर के रिसर्चर अब्दुल बासित का बयान मीडिया में छपता रहता है। अब्दुल बासित का कहना है कि तालिबान ने अब तक ऐसा कोई लिखित विजन या विचारधारा पेश नहीं की है कि वह अफगानिस्तान को किस तरह से चलाएगा। जबकि इसी तालिबान ने साल 2004 में अफगानिस्तान सरकार के जरिए बने संविधान को खारिज कर दिया था। लेकिन अब तब उसने किसी भी तरह का विजन दुनिया के सामने पेश नहीं किया है।

ऐसा क्यों है? इसका जवाब यही निकलता है कि तालिबान इस्लामिक कानून से हटने वाला नहीं है। वह दुनिया के सामने ऐसा कोई दस्तावेज पेश नहीं करने वाला है जिससे उसकी जिम्मेदारी तय हो। जो भी कुछ हो रहा है वह तालिबान के जरिए दुनिया के सामने पेश किया जा रहा बाहरी दिखावा है। अगर वह सचमुच गंभीर होता तो अपना एक विजन जरूर पेश करता। इस्लामिक कानून के अलावा सब कुछ बुरा मानता है। तालिबान में कोई मॉडरेट नहीं है, बल्कि बहुत अधिक हार्डलाइनर किस्म के नेता हैं और थोड़ा कम हार्डलाइनर किस्म के नेता हैं जो मुख्यतः इस्लामिक कानून से संचालित होते हैं। इसी के जरिए लोगों से ताकत हासिल करते हैं। यही उनकी शक्ति का सबसे केंद्रीय पहलू है। इसे वह नहीं छोड़ सकते। 

इस पूरे विवरण के बाद जो तस्वीर उभरती है वह है कि तालिबान खुद पर भरोसा करने के लिए कोशिश तो कर रहा है, लेकिन दुनिया की सजग बिरादरी उस पर भरोसा नहीं कर रही है। यह बिरादरी अब भी इस डर में है कि आखिरकर अफगानिस्तान का क्या होगा? लेकिन अंतिम तौर पर यही कहा जा सकता है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान की जो बुरी स्थिति की है उसके बाद तालिबान को लेकर जो संभावनाएं पनप रही हैं उसका भविष्य अगर बढ़िया हो तो अच्छी बात है

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