सिस्टम की नाकारी के चलते रेप पीड़िता आत्महत्या करने को मजबूर
भारत का ऐसा कोई हिस्सा नहीं जहां यौन हिंसा की घटनाएं नहीं हुई हैं। वर्ष 2016 में यानी सिर्फ एक साल में देश भर में लगभग 40,000 रेप के मामले सामने आए। इतना ही नहीं एक्टिविस्ट का दावा है कि दर्ज किए गए मामले हिमशैल के केवल शिखर जैसे हैं। हाल में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों के मामलों में आपराधिक न्याय और जांच प्रणाली में अव्यवस्था का एक और संकेत सामने आया है। यह महिलाओं और युवतियों के कथित रेप के बाद आत्महत्या के मामले में साफ तौर पर दिखाई देता है। आत्महत्या और आत्महत्या के प्रयास के इन मामलों में मृतक पीड़ितों के परिवार ने पुलिस पर पीड़ित की शिकायत की जांच नहीं करने या उसकी शिकायत को उसके द्वारा उठाए गए सख़्त क़दम के कारण दर्ज न करने का आरोप लगाया है।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर की हालिया रिपोर्ट में इन घटनाओं की श्रृंखला का विवरण मौजूद है। बलात्कार का आरोप लगाए जाने के बावजूद पुलिस द्वारा कार्रवाई न किए जाने के कारण 24 वर्षीय एक महिला को काफी निराशा हुई। उसने आत्महत्या कर ली लेकिन उसके घर की दीवार और उसके हाथ पर कथित आरोपी के नाम लिखे हुए पाए गए थे।
सिर्फ इस मामले में ही नहीं। ऐसी कई हालिया घटनाओं में महिलाओं ने अपनी पीड़ा और पुलिस की उदासीनता को उजागर करने के लिए एक आखिरी रास्ते के रूप में अपनी जान दे दी है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में अध्यापन से जुड़ी श्रुति कुमार का कहना है कि लड़कियां न्याय पाने के एक माध्यम के रूप में आत्महत्या कर रही हैं। वे कहती हैं, "उन्हें काफी दर्द, डर और आक्रोश झेलना पड़ा है और उन्हें लगता है कि यह केवल आख़िरी क़दम बचा है जिसे वे उठा सकते हैं।"
विडंबना यह है कि ऐसे अधिकांश मामलों में जहां महिला आत्महत्या करती है या आत्महत्या करने का प्रयास करती है तो पुलिस मौत के बाद एफआईआर दर्ज करती है जो कि आमतौर पर किसी भी मामले में पीड़ित की पहली मांग थी।
उत्तर प्रदेश में कम से कम तीन महिलाओं ने आत्महत्या का प्रयास किया है क्योंकि पुलिस ने रेप की उनकी शिकायतों को गंभीरता से लेने या दर्ज करने से इंकार कर दिया। इनमें कानपुर की मात्र तेरह साल की एक नाबालिग किशोरी भी शामिल है। वह थाने से मायूस होकर वापस लौटने के बाद घर पर आत्महत्या कर ली। एक अन्य रेप पीड़िता और उसकी मां ने इसी साल अगस्त में उन्नाव के माखी पुलिस स्टेशन में आत्मदाह करने की कोशिश की। पुलिस की ऐसी उदासीनता है कि यह वही क्षेत्र है जहां जघन्य उन्नाव बलात्कार कांड हुआ था। ये मामला सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में है।
बेशक, यहां तक कि उन्नाव और शाहजहांपुर से रेप के तथाकथित हाई-प्रोफाइल मामलों में शिकायतकर्ता ने भी जहां कथित अपराधी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का नेता है, पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज न करने और शिकायत पर जांच शुरू न करने को लेकर आत्महत्या करने की धमकी दी थी। इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया था और पुलिस को कार्रवाई करने के लिए कहा गया था।
उत्तर प्रदेश के हापुड़ में एक गैंगरेप पीड़िता ने भी पुलिस द्वारा शिकायत न दर्ज करने से इनकार करने पर आत्महत्या कर ली थी। यह पीड़ित महिला 23 अगस्त को अपने पति के साथ पुलिस स्टेशन गई थी जहां अधिकारियों ने कथित अपराधियों के साथ एक समझौता करने पर ज़ोर दिया था। ये आरोपी उसी गांव के रहने वाले थे।
आखिरकार उसकी मौत के बाद पुलिस ने उसकी लिखित शिकायत को एफआईआर में तब्दील कर दिया। उसने 2014 में हुए जघन्य रेप का आरोप लगाया था। अपने घर पर खुद के शरीर में आग लगाने के बाद शाहजहांपुर के एक अस्पताल में उसकी मौत हो गई। यहां तक कि एक वायरल वीडियो भी था जिसमें पीड़त महिला हापुड़ पुलिस की निष्क्रियता का आरोप लगा रही थी। शाहजहांपुर के पुलिस अधीक्षक (एसपी) एस चन्नप्पा ने पुलिस द्वारा "चूक" करने की बात स्वीकार किया है और कहा कि शिकायत को तुरंत दर्ज किया जाना चाहिए था। उनका कहना है कि पीड़िता की आत्महत्या के बाद कई पुलिस अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया।
कोई भी व्यक्ति कह सकता है कि गंभीर अपराध में मरने के बाद शिकायत दर्ज करना काफी तुच्छ है जो बहुत देर से दर्ज की गई कार्रवाई है। फिर भी ऐसे मामलों की संख्या बहुत अधिक दिखाई देती है। उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस उप महानिरीक्षक (डीआईजी) प्रकाश सिंह कहते हैं कि एफआईआर दर्ज नहीं करने का मुख्य कारण यह है कि पुलिस पर अपराध के आंकड़ों को कम रखने के लिए सरकार का दबाव होता है। प्रकाश सिंह कहते हैं, “यही कारण है कि आंकड़ों को तोड़-मरोड़ करने का प्रयास होता है और केवल मामूली उतार-चढ़ाव दिखाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन अपराध में वृद्धि होना तय है।”
सिंह ने जो मुद्दा उठाया है वह राज्य की पुलिस व्यवस्था को समझने के लिए आवश्यक है: अपराध की घटनाओं की जांच करने की कोशिश करने के बजाय यह उन अपराधों की संख्या को कम करने पर तुला है जो दर्ज हैं। यह गंभीर अपराधों को और बढ़ावा देता है और यह विकृति महिलाओं की रक्षा, सुरक्षा और न्याय की भावना की कीमत पर जन्म लेती है।
उदाहरण के लिए, मई महीने में यूपी के ही बाबूगढ़ की एक महिला ने बताया कि उसे उसके परिवार द्वारा 10,000 रुपये में बेचा गया और उसके बाद उसका यौन उत्पीड़न किया गया। यह घटना 2016 में हुई थी। दो अलग-अलग थाना क्षेत्रों की पुलिस द्वारा शिकायत दर्ज करने से इनकार करने के बाद उसने आत्महत्या करने का प्रयास किया। जब वह दिल्ली के एक अस्पताल में पहुंची तो दिल्ली महिला आयोग (डीसीडब्ल्यू) की प्रमुख स्वाति मालीवाल ने यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखकर महिला की मदद मांगी थी।
आत्महत्या के प्रयासों का सिलसिला यूपी तक ही सीमित नहीं है। 28 जुलाई 2019 को जयपुर की एक महिला की उस वक्त मौत हो गई जब उसने पुलिस थाना परिसर में आत्महत्या करने की कोशिश की। उसने 2015 में अपने पति के परिचितों द्वारा रेप करने का दावा किया था। पुलिस उसे शिकायत वापस लेने के लिए लगातार कह रही थी। उसके पति भी उसकी शिकायत को वापस लेना चाहते थे और इनकार करने के चलते उन्हें धमकियां मिलीं। इन सब को पुलिस ने नज़रअंदाज़ करने पर उसने कानपुर एसएसपी के कार्यालय में खुद पर तेल छिड़क लिया और आग लगा ली, और इन ज़ख्मों की चलते एक अस्पताल में उसकी मौत हो गई।
इसके बाद भी पुलिस निष्क्रिय बनी रही। राष्ट्रीय महिला आयोग (एनसीडब्ल्यू) ने जांच के बाद पाया: महिला की मौत उसके ज़ख्मों के चलते हुई, लेकिन उसके बेटे का बयान समय पर दर्ज नहीं किया गया था।
सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की प्रमुख रंजना कुमारी कहती हैं, '' वर्तमान में हमारे लॉ कोर्ट में रेप के 100,000 मामले लंबित हैं। कई पांच से दस साल पुराने हैं। हम जानना चाहेंगे कि एफआईआर दर्ज नहीं करने के लिए कितने मामलों में पुलिस जेल गई है। हमारे देश के किसी भी राज्य में अब तक एक भी पुलिस वाले को गिरफ्तार नहीं किया गया है।"
लगता है कि महिलाओं को बहुत कम विकल्पों के साथ छोड़ दिया गया है जो रेप पीड़िताओं की आत्महत्याओं के बढ़ते ग्राफ की व्याख्या करती है। जैसा कि प्रोफेसर श्रुति कुमार कहती हैं, “पुलिस हमारे समाज का एक विस्तार है। वे अपराधियों की जाति से संबंधित हो सकते हैं। अन्य मामलों में, पीड़ितों को धमकाया जाता है और मामलों को आगे बढ़ाने के लिए अनिच्छुक हो जाते हैं। इसे एक विशेष जाति समूह के ख़िलाफ़ शक्ति के इस्तेमाल के रूप में देखा जा सकता है।”
शाहजहांपुर और उन्नाव से सामने आए तथाकथित हाई प्रोफाइल मामलों में भारत के कानून के कार्यान्वयन की आपराधिक कमियों को उजागर किया गया। फिर भी, पुलिस की उदासीनता और असंवेदनशीलता के उदाहरणों की संख्या हज़ारों नहीं तो सैकड़ों की संख्या में ज़रुर हैं। शाहजहांपुर की 23 वर्षीय लॉ स्टूडेंट को वास्तव में एक भाजपा नेता, आंतरिक मामलों के पूर्व मंत्री स्वामी चिन्मयानंद द्वारा यौन उत्पीड़न के मामले को लेकर जनता के सामने जाना पड़ा। उसने पुलिस को उसके अपराध की रिकॉर्डिंग उपलब्ध कराई थी और फिर भी आरोपी नहीं बल्कि उसे जबरन वसूली के आरोप में पहले गिरफ्तार किया गया। इस बीच चिन्मयानंद को एक अस्पताल में भर्ती कराया गया।
पूर्व शीर्ष पुलिस अधिकारी मैक्सवेल परेरा इन घटनाओं से चकित हैं। वास्तव में वह बताते हैं कि कानून के छात्र को जेल भेज दिया गया जबकि आरोपी एक अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधा का लाभ ले रहा है। वह कहते हैं, "भले ही जबरन वसूली के मामले में कोई सवाल हो, जब किसी व्यक्ति को आत्मरक्षा में हत्या की अनुमति दी जाती है तो वही व्यक्ति आत्मरक्षा के रूप में ब्लैकमेल का सहारा क्यों नहीं ले सकता है।"
किसी भी मामले में यह चिन्मयानंद ही हैं जिन्होंने पहले ब्लैक मेलिंग का सहारा लिया था: उन्होंने कथित तौर पर शिकायतकर्ता का बिना उसकी जानकारी या सहमति के एक वीडियो किया था जैसा कि पीड़ित छात्रा के वकील ने खुलासा किया है।
आख़िरकार चिन्मयानंद को जेल हो गई लेकिन पुलिस रेप की घटना को नज़रअंदाज़ कर रही है और जबरन वसूली पर ध्यान केंद्रित कर रही है। उन्होंने उस पर "सेक्सुएल इंटरकोर्स के लिए अधिकार के दुरुपयोग" का आरोप लगाया और "सेक्सुएल इंटरकोर्स रेप के अपराध जैसा नहीं है" जिसका क़ानून में कम सज़ा का प्रावधान है। रेप के लिए न्यूनतम सात साल से लेकर आजीवन जेल की सजा सुनाई जाती है जबकि उनके ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप से वास्तव में पांच से दस साल की जेल की सज़ा हो सकती है।
अगर उन्नाव रेप पीड़िता के मामले को सुलझाया नहीं जाता पूर्व भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के खिलाफ उसका आरोप वापस नहीं लिया जाता, तो इस मामले में कुछ भी नहीं होगा। पीड़िता ने भी सिस्टम की विफलता को लेकर आदित्यनाथ के आधिकारिक निवास के बाहर आत्मदाह करने की कोशिश की थी। एसी ने आदेश दिया कि मामले को सीबीआई को स्थानांतरित कर दिया जाए जो अब इस मामले को देख रही है।
जब निर्भया की मृत्यु हुई थी तो इसने जनता को भयभीत कर दिया था। इसने उस क्रूरता के सामने साहस दिखाया था। लेकिन कई अन्य हजारों के लिए यह केवल शिकायत दर्ज कराने के लिए अपरिपक्व साहस देता है। वे यहां से कहां चले जाते हैं?
रश्मि सहगल एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी है।
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