भागवत और आरएसएस के बारे में मुस्लिम बुद्धिजीवियों को क्या नहीं पता!
चार जुलाई को, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत ने ख्वाजा इफ्तिखार अहमद की किताब, द मीटिंग ऑफ माइंड्स: ए ब्रिजिंग इनिशिएटिव के लॉन्च पर हिंदुत्व की परिभाषा की पुनर्व्याख्या की। एक महीने बाद तक, भागवत के भाषण को लेकार बुद्धिजीवी, खासकर मुस्लिम बुद्धिजीवी प्रशंसा और विश्लेषण में लगे रहे। उन्होंने भागवत के भाषण को बड़े पैमाने पर माना है कि वह भारत में पैदा हुए धर्मों और बाहर के लोगों के बीच भेद को धुंधला करने के अलावा, मुसलमानों के खिलाफ जारी लड़ाई में उनकी पारंपरिक स्थिति को त्यागने या नरम होने के रुख को दर्शाता है।
भागवत के 4 जुलाई के भाषण में कई अखबारी हेडलाइन वाले वाक्य थे। इनमें से कुछ ये हैं: सभी भारतीयों का डीएनए समान है, चाहे वह किसी भी धर्म के हों। लिंचिंग में शामिल लोग हिंदुत्व के खिलाफ हैं। इस डर के चक्र में मत फंसो कि भारत में इस्लाम खतरे में है। हम लोकतंत्र में रहते हैं; यहाँ हिंदुओं का वर्चस्व कायम नहीं हो सकता है। विवाद कोई हल नहीं हो सकता है। केवल संवाद ही हल है। सभी नागरिक भारतीय हैं।
अधिकांश विश्लेषकों ने भागवत के भाषण के दो बड़े पहलुओं की अनदेखी की है। इनमें से एक तो उनकी उस टिप्पणी से संबंधित है जिसमें उन्होने कहा कि हिंदू-मुस्लिम कलह का हल "केवल संवाद से ही हो सकता है"। लेकिन यह भी सच है कि कोई भी संवाद तब तक सार्थक नहीं हो सकता जब तक कि कलह की प्रकृति को विच्छेदित न किया जाए और समझा न जाए।
आरएसएस की विश्वदृष्टि में, हिंदू-मुस्लिम कलह की उत्पत्ति भारत में मुस्लिम शासन के आगमन से हुई है। उनके मुताबिक, मुस्लिम शासकों ने हिंदुओं को अपने अधीन किया, लाखों लोगों को जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया और मंदिरों को ध्वस्त किया जैसे आरोप लगाए जाते रहे हैं। माना जाता है कि अतीत के ये घाव आज भी हरे हैं। आरएसएस का मानना है कि अतीत के घावों को भरने का एकमात्र तरीका कुछ पवित्र हिंदू स्थलों का फिर से हासिल करना है, जिन्हें कथित तौर पर अतीत में मुसलमानों ने हथिया लिया था।
यही तर्क अयोध्या की बाबरी मस्जिद के विवाद में भी निहित था, जिसके बारे में कहा जाता था कि इसे उस स्थान पर बनाया गया था जहाँ भगवान राम का जन्म हुआ था। यह तर्क वाराणसी की अदालत के उस आदेश को भी रेखांकित करता है जिसमें उसने भारतीय पुरातत्व विभाग को ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का सर्वेक्षण करने को कहा ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या इसे "किसी अन्य धार्मिक संरचना" में बदलाव कर बनाया गया था या फिर यह उसका हिस्सा था, संभवतः निकटवर्ती काशी विश्वनाथ मंदिर का जिसके बारे में अक्सर दावा किया जाता है। इसके साथ ही निकट के मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान मंदिर के आसपास से शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने या उसे स्थानांतरित करने की मांग की जा रही है।
ये मांगें वैसी ही हैं, जैसे कि मुसलमानों से उनके समुदाय के शासकों के कथित कुकृत्यों के खिलाफ मुआवजे की मांग की जा रही हो। समय के साथ मुसलमानों के कुकृत्यों की सूची बढ़ती गई- जैसे कि, उन्हें विभाजन और उसके बाद की हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, उन पर हिंदू लड़कियों से प्रेम करने और लव जिहाद में फंसा कर निकाह करने और भारत की जनसांख्यिकी को बदलने के लिए अधिक बच्चे पैदा करने का भी आरोप गढ़ा जाता है। कहा जाता है कि उनका धर्म उन्हें हिंसा और आतंकवाद की ओर प्रवृत्त करता है। यह भी कहा जाता है कि मुसलमान,हिंदू भावनाओं को आहत करने के लिए, जिद में गायों का वध करते हैं।
हिंदू-मुस्लिम मतभेद हमेशा से भारत के सामाजिक परिदृश्य की खासियत रहे हैं। ये बड़े पैमाने पर स्थानीयकृत, कभी-कभार उठने वाले मुद्दे होते थे जिन्हे अक्सर राजनीतिक दल या नागरिक समाज समूहों के हस्तक्षेप के माध्यम से हल कर लिया जाता था। लेकिन पिछले 30-40 वर्षों में आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी की ताकत बढ़ने से, उन्होंने इन मतभेदों को पूरे साल चलने वाले कलह में बदल दिया है, जिसका एकमात्र समाधान, भागवत अब मानते हैं, बातचीत है।
समकालीन हिंदू-मुस्लिम कलह को काफी हद तक आरएसएस ने गढ़ा है। बोले तो, कलह को भड़काने वाले राक्षस आरएसएस की कल्पना में छिपे हुए हैं। आरएसएस अपने दम पर इन राक्षसों को शांत कर सकती है। लेकिन ऐसा वह इसलिए नहीं करेगी क्योंकि ऐसा करने से उसे अपने कार्यकर्ताओं को खोने के डर है। फिर आरएसएस को भी अपना वैचारिक वर्चस्व स्थापित करना है। और अब, अपनी मांगों को मनवाने के लिए उसमें मुसलमानों को पीटने की ताक़त भी है।
लेकिन इस पिटाई की पद्धति से देश और विदेश दोनों में बड़ी कीमत चुकानी होगी। इसलिए अब सुर ये बन रहा है कि, मुसलमानों को स्वेच्छा से आरएसएस की मांगों को स्वीकार करना बेहतर होगा। भागवत का संवाद का नुस्खा एक ऐसा नुस्खा है जिसके माध्यम से कमजोर को मजबूत की अनुचित मांगों को स्वीकार करने के लिए राजी किया जा सकता है। संभावित पीड़ितों पर ही कलह की आग को बुझाने की जिम्मेदारी है, जो आरएसएस के जलाने से भड़की है।
भागवत के भाषण के बारे में अधिकांश विश्लेषकों ने जिस दूसरे पहलू को नजरअंदाज किया है, वह, वह मंच है जिसके मध्यम से उन्होंने यह बात कही थी। मौका ख्वाजा की किताब का लॉन्च था जिसे मुस्लिम राष्ट्रीय मंच (एमआरएम) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में किया गया था, जिसे आरएसएस ने 2002 में मुसलमानों तक पहुंचबनाने के लिए लॉन्च किया था। फिर भी आरएसएस एमआरएम को अपना सहयोगी बताने से सावधान रहता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि एमआरएम के बारे में संघ में मतभेद है,जैसा कि वाल्टर के एंडरसन और श्रीधर डी दामले ने अपनी पुस्तक द आरएसएस: ए व्यू टू द इनसाइड में नोट किया है।
आरएसएस में एक विचार है जो कहता है कि एमआरएम के माध्यम से मुसलमानों तक पहुंचने का कोई मतलब नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि "इस्लाम के लंबे इतिहास से पता चलता है कि मुसलमानों के नजरिए में सांप्रदायिक और धार्मिक पहचान हमेशा राष्ट्रीय पहचान [मुसलमानों के लिए] से अधिक होती है।" इसलिए आरएसएस को मुसलमानों का हिंदूकरण करना चाहिए। इस लक्ष्य को हासिल करने की विधि धर्मांतरण है, जिसे लोकप्रिय रूप से घर वापसी के नाम से जाना जाता है। इस विचारधारा में आरएसएस और मुसलमानों के बीच एक प्रतिकूल संबंध की परिकल्पना की गई है।
संघ में दूसरा विचार यह है कि मुसलमानों को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने का उनका अनूठा तरीका ये है कि आरएसएस को एमआरएम का गठन करना चाहिए। एमआरएम के गठन तक, मुसलमानों के प्रति दो प्रमुख दृष्टिकोण थे। उनके मुताबिक,मुस्लिमों को खुश करने की कांग्रेस की नीति हमेशा से थी, और जब तक मुसलमान अपने धर्म का पालन करते हैं,तब तक चरम हिंदू दक्षिणपंथी उन्हें नागरिकों के रूप में स्वीकार नहीं करेगा।
मुसलमानों को हिंदू बनाने या उनका तुष्टिकरण करने के विपरीत, एमआरएम मुसलमानों के भारतीयकरण का जरिया है। एंडरसन और दामले एमआरएम के सह-संयोजक विराग पचपोर के उस लेख का उद्धरण देते हैं जो एक तीसरे तरीके को इस प्रकार परिभाषित करता है: "भारत में मुस्लिम [ए] भारतीय समाज का अभिन्न अंग हैं और वे हिंदुओं के साथ अपने पूर्वजों, संस्कृति और मातृभूमि को साझा करते हैं। जरूरत उन्हें विविधता में एकता की इस अंतर्निहित धारा का एहसास कराने की है…”
मुसलमानों को विविधता में एकता की अंतर्निहित धारा का एहसास कैसे हो सकता है? ऐसा वे आरएसएस के कुछ पसंदीदा जुनून को स्वीकार कर ऐसा कर सकते हैं। इस प्रकार इसी कड़ी में, 2003 में अपने पहले सम्मेलन में, एमआरएम ने गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया था। यह प्रस्ताव कुछ राज्यों द्वारा 14 वर्ष से अधिक उम्र या बीमार होने या काम करने के लिए बहुत पुरानी होने के बाद गायों के वध करने की अनुमति देने के जवाब में था। 2004 में, एमआरएम ने अनुच्छेद 370 को भी निरस्त करने की मांग की थी। 2012 में, एमआरएम ने भारत के राष्ट्रपति को एक ज्ञापन सौंपा,जिस पर एक लाख मुसलमानों ने हस्ताक्षर किए थे, ताकि गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जा सके।
एंडरसन और दामले के अनुसार, एमआरएम ने एक पैम्फलेट भी प्रकाशित किया था जिसमें दावा किया गया था कि न तो पैगंबर और न ही कुरान मुसलमानों को गोहत्या में शामिल होने या गोमांस खाने का निर्देश देते हैं। इस दावे को आरएसएस के प्रचारक इंद्रेश कुमार, जिन्हें एमआरएम के संरक्षक के रूप में ज़िम्मेदारी दी गई है, ने 2017 में Rediff.com के साथ एक साक्षात्कार में विस्तार से बताया था। कुमार ने बताया कि कुरान के सबसे लंबे अध्याय का शीर्षक अल-बकरा या गाय है, जिससे इसकी पवित्रता का पता चलता है; कि अल-बकरा विभिन्न बीमारियों के बारे में बात करता है, कि कुरान गोहत्या पर प्रतिबंध लगाता है, और एक हदीस (या पैगंबर की वाणी) में बताया गया कि जब पैगंबर को गोमांस पेश किया गया था तो उन्होंने खाने से इनकार कर दिया था।
इंद्रेश कुमार हर मायने में गलत हैं। अल-बकरा बीमारियों की बात नहीं करता है। बल्कि वह दृष्टान्तों, अन्य नबियों की कहानियों का मिश्रण है, और विवाह, तलाक, दान और सूदखोरी के सिद्धांतों को निर्धारित करता है। कुरान के प्रत्येक अध्याय का नाम उसमें आने वाले एक शब्द के नाम पर रखा गया है। कुरान में द एंट, द पेन, द स्पाइडर आदि शीर्षक वाले अध्याय भी हैं। इनमें से किसी को भी यहाँ तक गाय को भी पवित्र नहीं माना जाता है। गाय का अल-बकरा में दो बार उल्लेख किया गया है, एक बार बलिदान के संदर्भ में उल्लेख मिलता है। इस अध्याय के (छंद 173) में मुसलमानों के लिए निषिद्ध भोजन की भी सूची है। बीफ उस सूची में नहीं है।
कुरान मवेशियों के वध पर रोक नहीं लगाता है। अध्याय 36 के छंद 71-72 में कहा गया है कि खुदा ने "मवेशी" इसलिए बनाए ताकि लोग उनमें से कुछ को यात्रा में इस्तेमाल कर सके और कुछ को "खाने" के लिए इस्तेमाल कर सकें। ऐसा कुछ दर्ज़ नहीं है कि पैगंबर ने गोमांस खाने से इनकार किया था। हालाँकि, उन्होंने मॉनिटर छिपकली का मांस खाने से परहेज किया था, जिसे हिंदी में गोह कहा जाता है। यह संभव है कि कुमार गो या गाय को लेकर भ्रमित रहे हों, जैसा कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र के एक प्रोफेसर ने कहा कि ऐसा हो सकता है।
या कुमार बस आरएसएस की शैली में एक कहानी सुनाने की कोशिश कर रहे थे।
जिस तरह इंद्रेश कुमार में कुछ भी कह देने की एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति दिखाई देती है। वैसे ही उन्होंने जनवरी 2020 में, कहा था कि जो लोग नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध कर रहे हैं उन्हें "शैतान ने गुमराह" किया है। एक साल पहले, कुमार ने कहा था कि नसीरुद्दीन शाह और आमिर खान “अच्छे अभिनेता हो सकते हैं, लेकिन वे सम्मान के लायक नहीं हैं क्योंकि वे देशद्रोही हैं। वे मीर जाफर और जयचंद जैसे हैं।” 2018 में, उन्होंने कहा कि एक बार "गायों को मारने का पाप समाप्त हो जाएगा" तो लिंचिंग भी बंद हो जाएगी। 2017 में, जब तत्कालीन उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने मुसलमानों में असुरक्षा की भावना की बात की, तो कुमार ने सुझाव दिया कि अंसारी को "ऐसे देश में जाकर रहना चाहिए जहां वह सुरक्षित महसूस कर सके"।
लेखक सुधींद्र कुलकर्णी के तर्क के मुताबिक, आरएसएस और एमआरएम ने अपने अतीत के एजेंडे को बदलने के लिए, भागवत के 4 जुलाई के भाषण को जरिया बनाया है, जिसके माध्यम से वे "अपने संगठन के भीतर ग्लासनोस्ट यानी खुलेपन और पेरेस्त्रोइका यानी पुनर्गठन को आगे बढ़ाने" का एक और प्रयास कर रहे हैं। जहां तक मुस्लिम बुद्धिजीवियों का सवाल है, भागवत के भाषण का स्वागत करना काफी त्रुटिपूर्ण है और उन सभी का अपमान भी है जो संघ की बहुसंख्यकवादी राजनीति के विरोध के मामले में जेलों में बंद पड़े हैं।
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
What Muslim Intelligentsia Doesn’t Get About Bhagwat and RSS
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