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GST के ज़रिये हुआ टैक्स कलेक्शन नई टैक्स प्रणाली के पांच साल के कामकाज के बारे में क्या बताता है?

अगर इस सवाल का जवाब मिल जाए कि जीएसटी के तहत हुआ टैक्स कलेक्शन जीएसटी के पहले की टैक्स प्रणाली के टैक्स कलेक्शन से ज्यादा है या कम तो इसका अनुमान लगाया जा सकता है कि जीएसटी के पांच साल का कामकाज बेहतर रहा या कमतर?
GST
Image courtesy : Live Law

GST यानी गुड्स एंड सर्विस टैक्स। हिंदी में कहें तो वस्तु या सामान और सेवा कर। मतलब समझें तो यह कि पहले के सारे अप्रत्यक्ष कर कुछ अपवादों के साथ साल 2017 में हुए 101वें संविधान संशोधन के बाद सामान और सेवा कर में बदल चुके हैं। सामान और सेवाओं की कीमत पर लगने वाले कर गुड्स एंड सर्विस टैक्स कहे जाते हैं। इस तरह से इसका बोझ मजदूर से लेकर मालिक सब पर पड़ता है, जो रोजमर्रा के सामान और सेवाओं का इस्तेमाल करता है। इस जीएसटी के 30 जून 2022 को पांच साल हो गए हैं।

पांच साल बाद जीएसटी का कामकाज कैसा रहा? इस सवाल के जवाब में मुख्यधारा की बहस में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। लाखों करोड़ वसूली के आंकड़े दिखाकर यह बताया जा रहा है कि जीएसटी ने रफ्तार पकड़ ली है। लेकिन इन आंकड़ों से इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि जीएसटी के पहले की टैक्स प्रणाली और जीएसटी की टैक्स प्रणाली के जरिए हुए टैक्स कलेक्शन में कौनसी प्रणाली बेहतर है। अगर इस सवाल का जवाब मिल जाए कि जीएसटी के तहत हुआ टैक्स कलेक्शन जीएसटी के पहले की टैक्स प्रणाली के टैक्स कलेक्शन से ज्यादा है या कम तो इसका अनुमान लगाया जा सकता है कि जीएसटी के पांच साल का कामकाज बेहतर रहा या कमतर?

तो चलिए सबसे जीएसटी को लेकर बुनयादी बात जान लेते हैं। जब जीएसटी आया था तो जीएसटी से जुड़े सरकारी प्रपत्र में लिखा था कि इससे टैक्स बेस बढ़ेगा। यानी वह आय या संपति जिस पर टैक्स लगाया जा सकता है, उसमें पहले के मुकाबले बढ़ोतरी होगी। राज्य और केंद्र कई तरह के टैक्स लगाते हैं, इससे टैक्स देने और लेने वालों को कई तरह की परेशानी का सामना करना पड़ता है। जीएसटी के तहत देशभर में टैक्स की केवल एक दर होगी जिससे टैक्स देने और लेने में आसानी होगी। टैक्स पर टैक्स यानि दोहरा टैक्स की परेशानी से छूट मिलेगी। इनपुट क्रेडिट का सिस्टम अपनाकर दोहरे टैक्स की परेशानी को खत्म किया जायेगा। चूँकि इनपुट क्रेडिट उन्हें ही मिलेगा जिनके पास सामान और सेवा का बिल होगा। इस तरह से टैक्स से बचने का जुगाड़ लेने वालों की संख्या में कमी आएगी। ज्यादा से ज्यादा लोग टैक्स देने के लिए आगे आएंगे। कुल मिलाजुलाकर कहा जाये तो बात यह है कि जीएसटी के तहत अप्रत्यक्ष करों की वसूली के लिए देशभर में एक ऐसा सिस्टम बनाया गया जो पहले से बेहतर हो और जिससे पहले से ज्यादा टैक्स वसूली हो।

नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के असोसिएट प्रोफेसर सच्चिदानंद मुख़र्जी ने जीएसटी के कामकाज पर अपना रिसर्च पेपर पेश किया है। अपने रिसर्च पेपर में मुख़र्जी बताते हैं कि अगर एक बड़े फलक पर कहा जाए तो जीएसटी के जरिये टैक्स कलेक्शन भारत के कुल जीडीपी के 5.5 और 6.5 प्रतिशत के आस पास रहा है। भारत की जीडीपी मौजूदा बाज़ार मूल्य के आधार पर 236 लाख करोड़ के आस-पास है।

अगर जीएसटी से पहले और जीएसटी के बाद कुल राजस्व और कुल कर का ट्रेंड देखें तो इसका ठीक- ठाक अंदाजा लगाने में आसानी होगी कि जीएसटी का कामकाज टैक्स कलेक्शन के तौर पर कैसा रहा है? साल 2005 से लेकर 2017 तक टोटल रेवेन्यू रिसीट यानि कुल राजस्व आगत  में कभी भी कुल जीडीपी से 10 फीसदी से कमी नहीं हुई। लेकिन जब साल 2017 में टैक्स कलेक्शन का ढांचा पूरी तरह बदलकर जीएसटी आया तो कुल जीडीपी में कुल राजस्व आगत का हिस्सा 10% से कम होने लगा। साल 2017 के बाद कभी भी भारत का कुल राजस्व आगत यानी टोटल रिवेन्यू भारत के कुल जीडीपी के 10% से अधिक नहीं रहा।

अगर केंद्र सरकार के नेट टैक्स की बात करें तो जीएसटी आने के बाद नेट टैक्स की स्थिति में भी कोई बहुत बड़ा उछाल नहीं हुआ है। यह कमोबेश 7%, 8% और 6% के आसपास बनी हुई है। जीएसटी आने से पहले भी कुल जीडीपी में केंद्र सरकार के नेट टैक्स रिवेन्यू की स्थिति कमोबेश ऐसी ही होने के बावजूद भी थोड़ी सी बेहतर थी।

मतलब बात यह है कि जीएसटी आने के बाद भारत सरकार के कुल राजस्व आगत में कोई बहुत बड़ा उछाल नहीं आया है। यही हाल केंद्रीय टैक्स से मिलने वाली राशि का भी है। इसमें भी कोई बहुत बड़ी बढ़ोतरी नहीं हुई है।

जीएसटी आने से पहले किसी तरह का जीएसटी तो था नहीं। इसलिए सीधे तौर पर बारीकी से तुलना करना थोड़ा मुश्किल है। मगर, वैसे टैक्स का समूह बनाकर जीएसटी आने से पहले और जीएसटी के बाद में तुलना किया जाए जिन्हें जीएसटी में पूरी तौर से आंशिक तौर पर शामिल किया गया तो तुलना की जा सकती है। इस आधार बने सलेक्टेड टैक्स को देखा जाए तो सच्चिदानंद मुखर्जी का विश्लेषण बताता है कि 2015 से लेकर 2017 के लिए नेट टैक्स रेवेन्यू में उन टैक्सों का जिन्हें जीएसटी आने के बाद जीएसटी में पूरी तरह से यह आंशिक तौर पर शामिल किया गया उनकी औसत हिस्सेदारी तकरीबन 51% के आसपास थी। साल 2017 जब जीएसटी के तौर पर टैक्स लिया जाने लगा तब इन टैक्सों की कुल टैक्सों में 2017 से लेकर 2019 के बीच औसत हिस्सेदारी 43%  रही। उसके बाद 2019 से लेकर 2021 के बीच 49%  रहे।

कहने का मतलब यह है कि जीएसटी आने के बाद जीएसटी में शामिल पहले की अप्रत्यक्ष करों की वसूली पहले के मुकाबले कम रही है। बढ़ने की स्थिति में हैं, लेकिन 5 साल के बाद भी वैसी स्थिति में नहीं पहुंच पाई है कि यह कहा जाए कि 5 साल पहले की वसूली से ज्यादा हो गई हो।

राज्यों का हाल देखा जाए तो कमोबेश यही है। जीएसटी आने के बाद उनके राजस्व में भी कोई बहुत बड़ा उछाल नहीं आया है। भारत के 18 बड़े राज्यों में केवल महाराष्ट्र को छोड़ दिया जाए तो किसी भी राज्य में जीडीपी के मुकाबले उन टैक्सों में जिन टैक्सों को पूरी तौर से या आंशिक तौर पर जीएसटी में शामिल किया गया है, उनमें जीएसटी से पहले की तुलना में 1 से 2 प्रतिशत की गिरावट ही आई है। उनमें बढ़ोतरी नहीं हुई है। यही हाल छोटे राज्यों का भी है। छोटे राज्यों की स्थिति पहले के मुकाबले ज्यादा कमजोर हुई है।  

जैसा कि जीएसटी में बुनयादी बात है कि टैक्स लगाने और वसूलने का हक़ केंद्र सरकार का है। राज्यों ने जीएसटी आने के कुछ मदों के आलावा टैक्स लगाने के अपने अधिकार को छोड़ दिया। इसका मतलब यह हुआ कि राज्यों की कमाई इस पर निर्भर हुई कि केंद्र सरकार जीएसटी से कितनी वसूली कर पाता है। राज्यों ने तब विरोध भी किया था कि उनके राजस्व वसूली का सोर्स उनके हाथ से निकल जायेगा। इस विरोध के निदान के लिए जीएसटी कम्पनसेशन फंड बनाया गया। जिसमें जीएसटी कंपनेशन सेस के जरिये पैसा दिया जायेगा। इसी कम्पनसेशन फंड से राज्यों को क्षतिपूर्ति दी जाएगी। नियम यह बना कि साल 2015- 16 के राज्यों के राजस्व का आधार बनाकर 14 फीसदी वार्षिक बढ़ोतरी के आधार पर यह तय किया जायेगा कि अमुक राज्यों को राजस्व का नुकसान हुआ या फायदा?

इस नियम के आधार पर देखा जाए तो भारत के सभी राज्यों को स्टेट जीएसटी के तौर पर मिला हिस्सा इतना कम है कि उसे नुकसान ही कहा जाएगा। लेकिन असल सवाल यह है कि क्या राज्यों के कर राजस्व की जीएसटी कम्पंसेशन फंड से भरपाई हो पायी? पहली बात तो यह है कि जीएसटी कम्पनसेशन सेस से इतना पैसा ही नहीं मिला कि राज्यों के होने वाले नुकसान की भरपाई की जा सके। इसलिए केंद्र ने राज्यों के राजस्व की भरपाई के लिए खुद कर्ज लेकर राज्यों को अनुदान दिया है। ब्याज के तौर पर राज्यों का भुगतान किया गया। राज्यों के जीएसटी को तौर मिली राशि की एक सकारात्मक बात यह है कि इसमें धीरे धीर बढ़ोतरी हुई है।

इस तरह से अगर टैक्स कलेक्शन के आधार पर पांच सालों के कामकाज का आकलन किया जाए तो यह बात सामने आएगी कि जीएसटी के तहत अभी उस स्तर का टैक्स कलेक्शन नहीं हो पा रहा है जो जीएसटी से पहले हुआ करता था। टैक्स कलेक्शन को लेकर अब भी उस उम्मीद को जमीन पर नहीं उतारा जा सका है, जिस उम्मीद के सपने बेचे गए थे। केंद्र सरकार के पास कर वसूलने की सारी ताकत होने की वजह से वे वैसे मदों में टैक्स लगाकर अपनी कमी की भरपाई कर लेती है जिसे उसे राज्यों के साथ नहीं बांटना होता है। लेकिन यह सहूलियत राज्यों के पास नहीं है। राज्यों की गाड़ी तभी ठीक-ठाक चलेगी जब तक जीएसटी कम्पनसेशन फंड है।  इसके तहत क्षतिपूर्ति की जा रही है। इस लिहाज से कहा जाए तो एक स्वस्थ टैक्स प्रणाली बनने में अब भी जीएसटी को लम्बा समय गुजारना पड़ेगा।  

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