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राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अधिनियम, 2021 की संवैधानिकता क्या है?

संशोधन अधिनियम के प्रावधान के मुताबिक दिल्ली विधानसभा द्वारा पारित किसी भी कानून में ‘सरकार’ शब्द अब उप राज्यपाल (एलजी) के लिए संदर्भित होगा।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अधिनियम, 2021 की संवैधानिकता क्या है?

हाल ही में पारित राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अधिनियम, 2021 की संवैधानिकता का विश्लेषण करते हुए, वकील विनीत भल्ला बता रहे हैं कि क्यों न्यायिक समीक्षा के सामने यह कानून नहीं टिकने वाला। 

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार (संशोधन) अधिनियम, 2021 के बारे में काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है, जिसे पिछले महीने संसद के दोनों सदनों के द्वारा बिल पेश किये जाने के नौ दिनों के भीतर ही पारित करा लिया गया था। इसकी लोकतंत्र-विरोधी प्रकृति, और राजनीतिक बदला लेने के की मंशा से विधायी रास्ता अख्तियार करने के लिए व्यापक रूप से आलोचना हो रही है। 

हालाँकि, हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक बहसों में संवैधानिक दृष्टिकोण को स्थापित करने की भावना में, मेरे विश्लेषण का मुख्य केंद्र-बिंदु संशोधन अधिनियम की संवैधिनिकता पर रहने वाला है, क्योंकि यही वह आधार है जिस पर इसकी वैधता को भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दिए जाने की दरकार है।

संशोधन अधिनियम का प्रभाव 

संशोधन अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि दिल्ली विधानसभा द्वारा पारित किसी भी कानून में ‘सरकार’ शब्द दिल्ली के उप-राज्यपाल (एलजी) को संदर्भित करेगा। इसमें कहा गया है कि ऐसे सभी मामलों में, जैसा कि एलजी द्वारा एक आदेश के जरिये निर्दिष्ट किया गया है, किसी भी कार्यकारी कार्यवाई से पहले उसकी राय को अवश्य हासिल करना होगा, जो दिल्ली के किसी मंत्री या मंत्रिपरिषद के निर्णय के अनुसार लिया जाता रहा है।

इसके अलावा संशोधन अधिनियम दिल्ली विधानसभा को या तो खुद से या अपनी किसी कमेटी के माध्यम से राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के रोज-बरोज के प्रशासनिक मामलों के बारे विचार करने या इस संबंध में किसी भी प्रकार की जांच का संचालन करने जैसे प्रशासनिक निर्णयों से प्रतिबंधित करता है। विधानसभा द्वारा इस प्रकार के मामलों से संबंधित पहले से बनाए गए किसी भी नियम को अमान्य ठहराता है।

संशोधन अधिनियम दिल्ली विधानसभा द्वारा अपनी प्रकिया एवं कार्य-संचालन के लिए नियमों को बनाने की शक्तियों को भी नियंत्रित करता है। इन नियमों को लोक सभा की प्रक्रिया और आचरण के नियमों के अनुरूप होना सुनिश्चित किया गया है।

सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के फैसले को अवैधानिक तरीके से नामंजूर करना  

2018 में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक खण्ड पीठ ने एलजी के संबंध में दिल्ली सरकार की शक्तियों के दायरे को को स्पष्ट करने के लिए एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। 

इस फैसले में शीर्षस्थ अदालत ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली को विशेष दर्जा दिए जाने के पीछे के तर्क को संवैधानिक योजना के तहत कुछ इस प्रकार से रखा था:

“संविधान (69वें संशोधन) अधिनियम 1991 के पीछे का वास्तविक उद्देश्य, जैसा कि हम मानते हैं कि एक लोकतांत्रिक गठन को स्थापित किया जाए और प्रतिनिधियों के जरिये सरकार का गठन हो, जिसमें बहुमत को संविधान द्वारा लागू की गई सीमाओं के भीतर दिल्ली एनसीटी क्षेत्र में अपनी नीतियों पर विचार करने का अधिकार है। इस वास्तविक मकसद को हासिल करने के मार्ग को प्रशस्त करने के लिए, यह आवश्यक है कि हम अनुच्छेद 239एए को एक उद्देश्यपूर्ण व्याख्या दें, ताकि लोकतंत्र और संघवाद के सिद्धांतों को, जो कि हमारे संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं, को दिल्ली के एनसीटी क्षेत्र में इसके सच्चे अर्थों में क्रियान्वयन में लाया जा सके।”

इस उद्येश्यपूर्ण व्याख्या के मुताबिक पीठ ने सर्वसम्मति से पाया कि दिल्ली के एलजी के पास कोई स्वतंत्र निर्णयकारी शक्तियाँ नहीं हैं, और वे दिल्ली के मुख्यमंत्री और दिल्ली सरकार के मंत्रिपरिषद की “सहायता और सलाह” का पालन करने के लिए बाध्य हैं, सिवाय पुलिस, सार्वजनिक व्यवस्था और भूमि से संबंधित सभी मामलों को छोड़कर। 

संसद ने हालाँकि सभी इरादों और उद्देश्यों के लिए न्यायालय के फैसले को संशोधन अधिनियम के जरिये उलट दिया है। इसमें प्रशासन में एलजी की भूमिका को सुदृढ़ करते हुए जो कि असल में दिल्ली के शासन और प्रशासन में केंद्र सरकार का एक नुमाइंदा है, के साथ-साथ सरकार और दिल्ली विधानसभा दोनों को ही नपुंसक बना दिया है।

क्या संसद कोई ऐसा कानून पारित कर सकती है जो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को पलट दे? इस प्रश्न को सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ ने अपने पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज बनाम केंद्र सरकार (एआईआर 2003 एससी 2363) (पीयूसीएल) के फैसले में निपटान किया था, और इस प्रकार जवाब दिया था:

“संवैधानिक न्यायशास्त्र का यह एक स्थापित सिद्धांत है कि न्यायिक फैसले को निष्प्रभावी बनाने का एक मात्र तरीका है कि संशोधन के जरिये एक वैध कानून को बनाया जाए अथवा फैसले के आधार पर मौलिक रूप से बदलकर या तो भावी या पूर्व प्रभाव से बदला जा सकता है। विधायिका बिना वैधानिक तरीके से न्यायालय द्वारा सुझाई गई कमियों या दुर्बलताओं को हटाये बिना अदालत के किसी फैसले को रद्द या उल्लंघन नहीं कर सकती है, क्योंकि यह स्पष्ट है कि विधायिका न्यायलयों में निहित न्यायिक शक्ति से छेडछाड नहीं कर सकती है।”

संशोधन अधिनियम 2018 के फैसले (विधेयक के उद्देश्यों एवं कारणों के मुताबिक, जैसा कि अंततः अधिनयम बन गया) को प्रभावी ढंग से लागू कराने का प्रयास करता है। हालाँकि वास्तव में यह 2018 के फैसले को उसके आधार में बिना कोई बदलाव किये ही निरस्त कर देता है। 

2018 के फैसले ने मामले को तय करने के लिए लोकतंत्र और संघवाद के सिद्धांतों पर भरोसा किया था, और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के प्रशासन के मामले में एलजी के उपर दिल्ली की निर्वाचित सरकार की सर्वोच्चता को कायम रखा था। संशोधन अधिनियम इन सिद्धांतों में से किसी के भी साथ व्यवहार में नहीं जाता है। इसलिए पीयूसीएल के फैसले के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को बिना इसके आधार में बदलाव का प्रयास किये ही रद्द करने से संशोधन अधिनियम अदालतों की न्यायिक शक्ति की खुदाई कर रहा है, और यह स्पष्ट रूप से अमान्य है। 

संविधान के अनुच्छेद 239एए का अतिक्रमण  

दिल्ली को अपने वर्तमान शासन का ढांचा संविधान के अनुच्छेद 239एए से हासिल हुआ था, जिसे 1991 में शामिल किया गया था। तब संसद ने नए-नए जुड़े संवैधानिक प्रावधान के प्रावधानों को प्रभावी बनाने के लिए राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली सरकार अधिनियम, 1991 को अधिनियमित किया था। 

1991 के अधिनियम को अनुच्छेद 239एए के विधाई अनुपूरक के तौर पर समझा जा सकता है, और जो उत्तरार्ध वाले में निहित है, से आगे नहीं जा सकता है। यह एक सुलझे हुए कानून के सिद्धांत के अनुरूप है कि यदि कोई विधाई प्रस्ताव मूल कानून या संविधान के विरुद्ध है, तो विधायी प्रस्ताव आकस्मिक या परिणामी नहीं हो सकता है। इसे सर्वोच्च न्यायालय की एक खंडपीठ द्वारा सुप्रीम कोर्ट एम्प्लाइज वेलफेयर एसोसिएशन बनाम भारत सरकार (एआईआर 1990 एससी 334) के फैसले में निरुपित किया गया था। 

इसे ध्यान में रखना महत्वपूर्ण होगा कि संशोधन अधिनियम ने 1991 अधिनियम को संशोधित किया है, न कि अनुच्छेद 239एए को। संशोधित 1991 अधिनियम, जैसा कि नीचे दर्शाया गया है, अनुच्छेद 239एए के विभिन्न प्रावधानों का उल्लंघन करता है। 

पहला, अनुच्छेद 23एए(6) कहता है कि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। यह कार्यकारी जवाबदेही के सिद्धांत का एक स्पष्ट उच्चारण है, जिसके अनुसार प्रत्येक विधायिका को कार्यकारी शाखा द्वारा लिए गए फैसले की जांच करने के लिए स्वाभाविक रूप से सशक्त किया जाता है। यह सरकार की संसदीय प्रणाली को चलाए रखने के लिए जीवनरक्त के समान है।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की प्रशसनिक शक्तियों को छीन लेने से संशोधन अधिनियम ने अनिवार्य रूप से दिल्ली विधानसभा को इसके द्वारा दिल्ली के लिए प्रवर्तित कानूनों के क्रियान्वयन में पूछताछ ककरने से रोक देता है। यह अनुच्छेद 239एए(6) में निर्दिष्ट की गई कार्यकारी जवाबदेही के सिद्धांत को निरस्त कर देता है।

कार्यकारी जवाबदेही को अनुच्छेद 239एए(4) के प्रावधान में भी पढ़ा जा सकता है, जो एलजी को सिर्फ उन मामलों के संबंध में अपने कार्य संचालन में मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह देने के लिए मुहैय्या कराता है, जिनके संबंध में विधानसभा को कानून बनाने की शक्ति मिली हुई है। चूँकि मन्त्रिपरिषद विधानसभा के प्रति जवाबदेह है, ऐसे में इसके विस्तार के द्वारा, एलजी भी इसके लिए जिम्मेदार है, क्योंकि उसे सिर्फ मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर ही कार्य करना चाहिए।

संशोधन अधिनियम विधानसभा द्वारा पारित सभी कानूनों में निर्वासित सरकार के बजाय एलजी को ‘सरकार’ का दर्जा देता है। चूँकि संशोधन अधिनियम का प्रभाव निर्णय लेने के संबंध में एलजी निर्णयकारी भूमिका में रखता है, और चुनी हुई सरकार को किसी भी प्रकार की कार्यकारी कार्यवाही करनी से पहले उसकी राय लेनी है, बजाय कि निर्वाचित सरकार की सहायता और सलाह के बल पर एलजी कार्यवाई करे, इसके नतीजे में एलजी विधानसभा के निर्णयों से बाध्य नहीं है और इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। यह अनुच्छेद 239एए(4) की भावना के विपरीत जाता है। 

संशोधन अधिनियम, अनुच्छेद 239एए(7)(ए) का भी उल्लंघन करता है, जो संसद को अनुच्छेद में निहित प्रावधानों को प्रभावी बनाने या पूरक करने की अनुमति देता है या सभी मामलों के लिए आकस्मिक या इसके परिणामस्वरूप मामलों के लिए प्रावधानों की अनुमति देता है। अनुच्छेद 239एए को लागू करने के बजाय कि वास्तव में उसे उलटने के द्वारा संशोधन अधिनियम, अनुच्छेद 239एए(7)(ए) की मूल और आत्मा दोनों का ही उल्लंघन करता है। 

और अंत में, इस बात पर विशेष ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि अनुच्छेद 239एबी के मुताबिक, जिसे 1991 में 69वें संशोधन के भाग के रूप में संविधान में जोड़ा गया था, एलजी की रिपोर्ट के आधार पर दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है। चूँकि अब दिल्ली में एलजी ‘सरकार’ है, हम तार्किक रूप से एक ऐसी स्थिति में पहुँच गए हैं, जिसमें अनुच्छेद 239एबी के तहत उसे खुद के खिलाफ रिपोर्ट करनी बनानी होगी।

यहाँ पर भी यह साफ़ स्पष्ट है कि अनुच्छेद 239एबी वास्तविक सरकार के तौर पर निर्वाचित सरकार को ही मान्यता देता है, और अनुच्छेद 239एए अपनी योजना में एलजी को मात्र संवैधानिक मुखिया के तौर पर ही मान्यता देता है। 

संविधान की उल्लंघनियता 

उपर प्रस्तुत 2018 के फैसले में से अंश को संविधान के बुनियादी ढाँचे के हिस्से के रूप में लोकतंत्र और संघवाद के सिद्धांतों को संदर्भित करता है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केसवानंद भारती बनाम भारत सरकार (एआईआर 1973 एससी 1461) के केस में मूल संरचना के सिद्धांत को रेखांकित किया गया था। इस फैसले में अदालत की 13 न्यायाधीशों वाली संवैधानिक पीठ ने पाया था कि संसद अपनी शक्तियों का इस्तेमाल संविधान के मूल तत्वों या बुनियादी विशेषताओं के खिलाफ नहीं कर सकती है।

फैसले में संविधान की कुछ मूल विशेषताओं का उल्लेख किया गया है:
1. संविधान की सर्वोच्चता 
2. सरकार का गणतंत्रवादी एवं लोकतांत्रिक स्वरुप 
3. संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र 
4. विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण 
5. संविधान का संघीय चरित्र 

जैसा कि इस विश्लेषण में रेखांकित किया गया है, संशोधन अधिनियम इन सिद्धांतों में तीसरे के सिवाय सभी का उल्लंघन करता है। यहाँ तक कि इसके लिए भी, इसकी संवैधानिकता संदिग्ध है।

संक्षेप में कहें तो संशोधन अधिनियम, सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के फैसले की भावना का उल्लंघन करता है, जिसे उच्चतम न्यायालय के पीयूसीएल फैसले में प्रतिबंधित किया गया है। इसके साथ ही साथ यह संविधान के अनुच्छेद 239एए की मूल भावना का उल्लंघन करता है और संविधान के मूल संरचना का अतिक्रमण करता है। सीधे शब्दों में कहें तो यह एक असंवैधानिक अधिनियम है।
मूल रूप से यह लेख द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।

(विनीत भल्ला दिल्ली के एक वकील हैं, और द लीफलेट के स्टाफ का हिस्सा हैं। व्यक्त विचार व्यकितगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

What is the Constitutionality of the Government of National Capital Territory of Delhi (Amendment) Act, 2021?

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