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ट्रांसजेंडर समुदाय के सेहत और रोज़गार के मुद्दे पर क्या कर रही है उत्तराखंड सरकार?

“हम ट्रांसजेंडर महिला के माध्यम से समुदाय तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। हमारे साथ जुड़े लोगों की लगातार काउंसिलिंग करते हैं। बहुत सी युवा ट्रांसजेंडर महिलाओं को पता ही नहीं होता कि एचआईवी होता क्या है। कुछ ऐसे भी मामले आए जब हमारे बताने के बाद व्यक्ति को लगा कि उसमें तो एचआईवी के लक्षण पहले से ही मौजूद हैं”।
ट्रांसजेंडर समुदाय के सेहत और रोज़गार के मुद्दे पर क्या कर रही है उत्तराखंड सरकार?
ट्रांसजेंडर समुदाय की समस्याओं के बारे में बता रही हैं आम्रपाली थापा और अन्य ट्रांजेंडर महिलाएं

संजना

“मेरा घरेलू नाम कुछ और है लेकिन मेरे साथियों ने संजना नाम रख दिया है। अब मुझे इसी नाम से पहचाना जाता है”।

“मैं पहले डांस करती थी। लेकिन पिछले साल कोरोना के चलते लॉकडाउन लग गया। हमारा काम ठप हो गया। अब मैं मज़दूरी करती हूं। मकान बनता है तो प्लास्टर लगाने जैसे काम करती हूं। मुझसे ज्यादा शारीरिक श्रम वाला काम नहीं होता। दो-चार दिन काम करती हूं। थक जाती हूं तो एक-दो दिन आराम करती हूं। मजबूरियां बढ़ रही हैं। रोटी खानी है तो मज़दूरी करनी ही पड़ेगी”।

“मेरी कुछ साथी हैं जो सेक्स वर्क करती हैं। मुझे भी बुलाती हैं। मुझे ये गलत काम बिलकुल पसंद नहीं है। मैं मजदूरी करके खा लूंगी लेकिन इस तरह के पेशे में नहीं जाउंगी”।

“मैंने दो बार एचआईवी का टेस्ट कराया है। मैं स्वस्थ्य हूं”।

“मैं लखनऊ से हूं। देहरादून में कमरा किराये पर लेकर रहती हूं। बाहर निकलती हूं। काम करती हूं। मेरा यहां कोई अपना नहीं है। डर लगता है कि कहीं मुझे कोरोना हो गया तो कैसे-क्या करूंगी”।

“मुझे कोरोना का टीका नहीं लगा है। मैं लखनऊ के पास अपने गांव नहीं गई। शायद वहां मुझे टीका लग जाता। सुना है कि रेलवे स्टेशन या बस अड्डे पर भी टीका लग जाता है”।

ये सारी बातें संजना ने कही हैं। वह ट्रांसजेंडर हैं। जिनकी लैंगिक पहचान या अभिव्यक्ति जन्म के समय मिले लिंग से अलग होती है। लखनऊ में अपने माता-पिता से दूर वह देहरादून में किराये के एक कमरे में रहती है। कोरोना वैक्सीन का तो उन्हें पता है लेकिन वैक्सीन कहां लगेगी, कैसे लगेगी, इस तरह की जानकारी उन्हें नहीं है। अपने समुदाय के बीच एचआईवी से जुड़ी मुश्किलों की भी जानकारी है। लेकिन संजना और उनके जैसी तमाम साथियों की मुश्किल ये है कि अपनी रोज़ी-रोटी जुटाने के लिए और समाज में अपनी पहचान के साथ सम्मान-पूर्वक खुलकर जीने के लिए वह करें क्या?

संगीता डेयरी का व्यवसाय करती हैं और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए समानता और रोज़गार की मांग करती हैं।

संगीता

देहरादून में रह रही 25 साल की संगीता अपने नाम के आगे सरनेम नहीं लगाती। ट्रांसजेंडर होने के चलते घर के अंदर से लेकर खुली सड़क तक उन्होंने हिंसा झेली है। वह बेहद ख़ुशमिज़ाज हैं। हंसकर कहती हैं कि अगर कोई लड़का मुझसे शादी के लिए तैयार होगा तो मैं जरूर शादी करूंगी।   

“मेरे भाई-बहनों ने मुझे अपनाने से इंकार कर दिया। मैंने किसी तरह 12वीं तक पढ़ाई की। मैं डेयरी का काम करती हूं। उसी से अपना गुज़ारा करती हूं। मेरे माता-पिता ने मेरा साथ दिया। मैं उनके साथ ही रहती हूं”।

“मुझे सजना-संवरना बहुत पसंद है। लेकिन अब भी घर पर मुझे एक पुरुष की तरह ही रहना पड़ता है। करीब 6 साल पहले मैं अपने जैसे लोगों के संपर्क में आई। मैंने तय किया कि जैसे चाहूं वैसे ही रहूंगी। अपनी मुश्किलों के बारे में मैं अपने घरवालों से बात नहीं कर सकती। वे मेरी स्थिति नहीं समझ सकते”।

संगीता बताती है कि ट्रांस जेंडर होने की वजह से कई बार मुश्किलों में फंस चुकी है। “मैं एक साधारण सा सूट पहनकर भी सड़क पर सुरक्षित नहीं चल सकती। लोग फब्तियां कसते हैं। गलत इशारे करते हैं। हम जैसे लोगों को हर जगह गलत नज़र से ही देखा जाता है”।

संगीता के मुताबिक ट्रांसजेंडर समुदाय के सामने आजीविका का बड़ा संकट है। “मजबूरी में हम लोगों को धंधा करना ही पड़ता है। हमें कोई नौकरी नहीं देगा तो करेंगे क्या। मेरा अपना खुद का काम है। लेकिन मेरे जैसी और भी बहनें हैं जो सिर्फ धंधे पर ही निर्भर हैं। हम सब चाहते हैं कि जितनी दिक्कतें हमने झेली हैं, हमारे जैसा कोई आगे आ रहा हो तो उसे इतनी दिक्कतें न झेलनी पड़ें। उसका परिवार और समाज उसे अपनाए”।

एचआईवी संक्रमण का ख़तरा

रोज़गार का ज़रिया न होने की वजह से देह व्यापार और जागरुकता की कमी के चलते टीजी महिलाओं पर एचआईवी संक्रमण का खतरा बना रहता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के एचआईवी पॉज़िटिव होने का खतरा अन्य वयस्कों की तुलना में 13 गुना अधिक होता है।

देहरादून की गैर-सरकारी संस्था परियोजन कल्याण समिति ट्रांसजेंडर समुदाय के स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों पर कार्य करती है। संस्था ने देहरादून और हरिद्वार ज़िले में रह रही तकरीबन 300 ट्रांसजेंडर को पंजीकृत किया है। संस्था की सचिव नताशा नेगी बताती हैं कि ज्यादातर ट्रांसजेंडर (टीजी) एक समय के बाद घर से निकल जाते हैं या उऩ्हें घर से निकाल दिया जाता है। उनके पास रहने के लिए जगह नहीं होती। तो वे करेंगे क्या? समुदाय की ये भी सोच रहती है कि दिनभर मेहनत करके 200 रुपये कमाऊंगी, रात को बाहर जाउंगी तो दो हज़ार या दस हज़ार कमा लूंगी। उन्हें लगता है कि हमें कुदरत ने ऐसा बनाया है तो हम यही काम करेंगे”।

नताशा बताती हैं “वे एचआईवी टेस्ट नहीं कराना चाहती। डरती हैं कि यदि बीमारी का पता चला तो उनका बायकॉट हो जाएगा। हम इन लोगों के बीच जागरुकता का काम करते हैं। किसी में बीमारी के लक्षण दिखते हैं तो टेस्ट कराने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। उनका इलाज शुरू करते हैं। कोई-कोई ही पॉज़िटिव निकलता है”।

जागरुकता

गैर-सरकारी संस्था पर्यावरण एवं जन कल्याण समिति उत्तराखंड स्टेट एड्स कंट्रोल सोसाइटी के तहत वर्ष 2019 से देहरादून में ट्रांसजेंडर समुदाय के बीच एचआईवी जागरुकता को लेकर कार्य कर रही है। संस्था की प्रोग्राम मैनेजर सुषमा नेगी बताती हैं कि उनकी संस्था के साथ 479 एमएसएम (मैन हु हैव सेक्स विद् मैन) और 33 ट्रांसजेंडर पंजीकृत हैं। इनमें 6 एमएसएम और 5 ट्रांसजेंडर एचआईवी पॉज़िटिव हैं।

वह कहती हैं “हम ट्रांसजेंडर महिला के माध्यम से समुदाय तक पहुंचने की कोशिश करते हैं। हमारे साथ जुड़े लोगों की लगातार काउंसिलिंग करते हैं। बहुत सी युवा ट्रांसजेंडर महिलाओं को पता ही नहीं होता कि एचआईवी होता क्या है। कुछ ऐसे भी मामले आए जब हमारे बताने के बाद व्यक्ति को लगा कि उसमें तो एचआईवी के लक्षण पहले से ही मौजूद हैं”।

एचआईवी संक्रमित होने पर बार-बार बुखार आना, वज़न कम होना, खांसी आना और टीबी का भी खतरा हो सकता है। जागरुकता के ज़रिये हम बहुत सी ट्रांसजेंडर और एमएसएम व्यक्तियों को एचआईवी संक्रमण से बचा सकते हैं। दवाइयां लेने के बाद वे स्वस्थ्य जीवन जी सकते हैं और एड्स के खतरे से बच सकते हैं। इसलिए इनकी काउंसिलिंग बहुत जरूरी है।

भारत में भी ट्रांसजेंडर समुदाय की स्वीकार्यता धीरे-धीरे बढ़ रही है।

डाटा नहीं, नीति नहीं

देहरादून की आम्रपाली थापा ट्रांसजेंडर समुदाय की कई समस्याओं पर बात करती हैं। वह कहती हैं “हम जिस समाज में जी रहे हैं, उसे हम जैसे हैं, वैसे ही स्वीकार करना होगा। आखिर में हमें इन्हीं लोगों के बीच रहना है”। वह कहती हैं कि ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति सामान्य लोगों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है।

घरेलू हिंसा, सामाजिक हिंसा, सामाजिक स्वीकार्यता न होना, पढ़ाई बीच में छूटना, नौकरी न होना। मुश्किल ये है कि उत्तराखंड में ट्रांसजेंडर समुदाय को उनके ही हाल पर छोड़ दिया गया है। देहरादून में समाज कल्याण अधिकारी हेमलता पांडे न्यूज़क्लिक को बता चुकी हैं कि इस समुदाय के कल्याण के लिए अब तक कोई पॉलिसी नहीं बनाई गई। न ही उनसे जुड़ा कोई डाटा उपलब्ध है।

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सेंटर फॉर इंटरनेट एंड सोसाइटी के नॉन-बाइनरी (स्त्री-पुरुष के अलावा) व्यक्तियों से जुड़े रिसर्च के मुताबिक डाटा न होने की वजह से इस समुदाय के कल्याण के लिए कार्य नहीं हो रहा है। इनके मानवाधिकार की सुरक्षा के लिए ट्रांसजेडर का डाटा होना जरूरी है।  

समाज से लेकर सरकार तक ये समुदाय उपेक्षित है। PEW रिसर्च सेंटर के मुताबिक दुनियाभर में पिछले दो दशक में ट्रांसजेंडर समुदाय को लेकर स्वीकार्यता बढ़ी है। भारत में भी सुधार हुआ है। लेकिन ये संघर्ष अभी लंबा है। सेंटर के मुताबिक वर्ष 2019 युनाइटेड किंगडम में ट्रांसजेंडर समुदाय को 86 प्रतिशत तक स्वीकार्यता मिली है। लेकिन भारत में 37 प्रतिशत तक ही।

कर्नाटक ने दिया नौकरी में आरक्षण

रोजी-रोटी से जुड़ी समस्या ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए सेक्स वर्क और एचआईवी संक्रमण तक के खतरे की एक बड़ी वजह है। कर्नाटक ने इस दिशा में अहम कदम उठाया है। राज्य की सभी सरकारी सेवाओं में ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इसके लिए कर्नाटक सिविल सेवा (सामान्य भर्ती) नियम में संशोधन किया गया है। इसके तहत सामान्य, एसटी, एसटी और अन्य पिछड़ा वर्ग की नौकरियों में ट्रांसजेंडर कैंडिडेट को एक प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। उत्तराखंड समेत अन्य राज्यों को भी इस तरह की पहल करने की सख्त जरूरत है।

(देहरादून स्थित वर्षा सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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