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क्या हो पायेगा मैला प्रथा का खात्मा ?

मैला प्रथा को खत्म करने के लिए सरकार ने बनाया 1.25 लाख करोड़ का एक्शन प्लान
Manual-Scavenging
Image courtesy : The Statesman

हाल ही में आई एक खबर के अनुसार सरकार मैनुअल स्केवेंजरों का पुनर्वास और देश के 500 शहरों तथा प्रमुख ग्राम पंचायतों के तहत  सीवर–सेप्टिक टैंकों की सफाई मशीनों से कराने का एक्शन प्लान बना रही है। इस एक्शन प्लान के कार्यान्वन हेतु सरकार ने 1.25 लाख करोड़ खर्च  करने का प्लान बनाया है।  यह प्लान कितना कारगर होगा यह तो वक्त बतायेगा पर फ़िलहाल सच्चाई यह है कि देश भर में सीवर-सेप्टिक टैंक साफ़ करने वाले मैनुअल स्केवेंजरों की संख्या कितनी है, सरकार के पास अभी तक इसका कोई आंकड़ा नहीं है।

इसी प्रकार पूरे देश में कितने शुष्क शौचालय हैं और उनको साफ़ करने वाले मैनुअल स्केवेंजरों की संख्या कितनी है। यह डेटा भी सरकार के पास नहीं है। हालांकि सरकार ने कुछ जगहों पर इसका सर्वेक्षण कराया है कि मैला ढोने वालों की संख्या कितनी है और वे कितने शुष्क शौचालय, सीवर, सेप्टिक टैंक या जिन नालों में मानव मल बहता है उसे साफ़ करते हैं। पर मैला ढोना जाति विशेष से जुड़ा मामला है इसलिए इसे गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसे एक खास जाति का परम्परागत पेशा मान लिया जाता है।

यही वजह है कि इसके सर्वे में भी लापरवाही बरती जाती है। सर्वे ठीक से नहीं किया जाता और मैनुअल स्केवेंजरों की संख्या जीरो (शून्य) बता दी जाती है।काबिले-गौर है कि 2 अक्टूबर 2014 से मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान चलाकर एक करोड़ से अधिक शौचालय बनवा दिए और उन पर करोड़ो रुपयों का बजट आवंटित किया और खर्च कर दिया। पर मैनुअल स्केवेंजरों की स्थिति पर ध्यान नहीं दिया। उनके पुनर्वास पर ध्यान नहीं दिया। वस्तुस्तिथि यह है कि मैनुल स्केवेंजरों के लिए जो 110 करोड़ रूपए आवंटित किए गए हैं उनको भी खर्च नहीं किया जाता। परिणाम यह होता है कि मैनुअल स्केवेंजरों की यथास्तिथि बनी रहती है। काश कि मोदी सरकार की शौचालय बनवाने में जितनी दिलचस्पी है उतनी मैनुअल स्केवेंजरों के पुनर्वास में भी दिखाई होती!

सरकार हमेशा मैनुअल स्केवेंजरों की संख्या कम आंकने की कोशिश करती है। अगर सीवर-सेप्टिक टैंक सफाई के दौरान दम घुटने से मरने वालों की संख्या की बात की जाये तो सफाई कर्मचारी आंदोलन के एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार अब तक मरने वालों की संख्या दो हजार के आसपास है। दूरदराज के इलाकों में होने वाली मौतों के बहुत सारे मामले रिपोर्ट ही नहीं किए जाते।  पर राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग इसे केवल 814  बताता है। आयोग के आंकड़ों के अनुसार ही पिछले तीन वर्षों में (2017-2019) में सीवर-सेप्टिक टैंक सफाई के दौरान मरने वालों की संख्या 271 है। इनमें से 110 मौतें सिर्फ 2019 में हुई हैं।  2018 में 68 और 2017 में 93 मौतें हुईं।

राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अध्यक्ष मनहर झाला जी का कहना है कि इन मौतों के दो प्रमुख कारण हैं–1. सफाई के लिए आधुनिक मशीनों की सुविधा न होना  2. ज्यादातर जगहों पर ठेकेदारी प्रथा होना।  ठेका प्रथा के कारण सरकारें मैनुअल स्केवेंजरों के हितों पर उचित ध्यान नहीं देतीं।  सफाई कर्मचारी लंबे समय से ठेकेदारी प्रथा को ख़त्म करने की मांग करते रहे हैं।  पर सरकार इसका उन्मूलन नहीं करती. इससे सरकारी मंशा जग-जाहिर हो जाती है कि वह मैनुअल स्केवेंजरों के प्रति कितनी गंभीर है।  

सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बेजवाडा विल्सन का कहना है कि –“सीवर में मरने वालों की संख्या तो कम आंकी ही जाती है।  पर सीवर-सेप्टिक टैंकों में जिन मैनुअल स्केवेंजरों की मौतें दर्ज हुई हैं उनके आश्रितों को सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 10 लाख रुपये की मुआवजा राशि और पुनर्वास में काफी दिक्कतें होती हैं। कारण वही कि मैनुअल स्केवेंजरों का गरिमा के साथ जीना सरकार की प्राथमिकता नहीं होती  

सघन इलाके में जहाँ सीवर तंग गलियों  में और सेप्टिक टैंक छोटे-छोटे घरों में  होते हैं।  उनकी सफाई के लिए छोटी-छोटी पावरफुल मशीनों की जरूरत है जो सरकार के पास नहीं हैं। समझने की बात ये है कि जो सरकार मंगलयान और चन्द्रयान के लिए हाई-टेक्नोलॉजी इस्तेमाल करने में सक्षम है – क्या वह सीवर-सेप्टिक टैंकों की जरूरतों के मुताबिक मशीनें नहीं बना सकती ? जाहिर है सरकार को सेनिटेशन व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए विशेष ध्यान देने की जरूरत है। स्वच्छ भारत के नाम पर शौचालय या ‘इज्जत घर’ बना देना ही काफी नहीं है बल्कि जल मल के निकास कि समुचित व्यवस्था करना आवश्यक है. ताकि उन शौचालयों की सफाई के लिए किसी इंसान को अपनी जान न देनी पड़े।

गौरतलब है कि ‘मैनुअल स्केवेंजर के रुप में रोजगार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम 2013’ में मैनुअल स्केवेंजर के इज्जतदार पेशे में पुनर्वास का प्रावधान है।  सरकार की स्व-रोजगार योजना (SRMS) है।  सुप्रीम कोर्ट के 2014 के आदेश के अनुसार 1993 से लेकर अब तक सीवर-सेप्टिक टैंक की सफाई के दौरान मैनुअल स्केवेंजरों के आश्रितों के लिए 10 लाख रुपयों के मुआवजे का प्रावधान है। सरकार उनका चिन्हीकरण भी नहीं करती। सरकार यह भी नहीं सोचती कि जिस गरीब दलित परिवार से एक मात्र कमाने वाले व्यक्ति की सीवर में दम घुटने से मौत हो जाती है उस परिवार के बुजुर्ग माता-पिता, विधवा अनपढ़ पत्नी और छोटे-छोटे मासूम अनाथ बच्चों पर क्या बीतती  होगी ?

कैसे उस परिवार की आजीविका चलती होगी उन पर किस तरह से मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है।  सरकार की यह संवेदनहीनता है।  संवेदनशील सरकार तो अपने देश के किसी नागरिक को इस तरह से मौत के मुहं में ढकेल ही नहीं सकती। अब तक जो इस हादसे का शिकार हो चुके हैं उनके परिवार का सत्यापन कर तत्काल उन्हें 10 लाख रुपये बतौर मुआवजा प्रदान कर देती ताकि मृतक के आश्रित दर-दर की ठोकरें खाने को विवश न हों। जीवित मैनुअल स्केवेंजरों  का सर्वे कर इज्जतदार पेशे में उनका पुनर्वास कर देती जिससे कि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें।

सरकार अपनी ‘स्वच्छ भारत मिशन’ योजना के तहत अधिक से अधिक शौचालय तो बनवा देती है। पर उनकी सफाई कैसे होगी। इस पर ध्यान नहीं देती।  आखिर में सफाई किसी मैनुअल स्केवेंजर द्वारा ही कराई जाती है।  जिसमे उसकी जान जाने का खतरा होता है। सरकार की जातिवादी मानसिकता होने के कारण इसका खामियाजा सफाई समुदाय के लोगों को भुगतना पड़ता है। क्यों न सरकार शुरू से ही इस प्रकार की व्यवस्था करे कि किसी भी इंसान को अपनी जान जोखिम में ना डालनी पड़े। दूसरी ओर अभी जितने भी शुष्क शौचालय हैं उनको या तो जल-चालित शौचालयों में परिवर्तित करा दे या उनका ध्वस्तीकरण कर दे। जिससे कि उनका अस्तित्व ही न रहे। न रहेंगे शुष्क शौचालय और न रहेंगे उन्हें साफ़ करने वाले मैनुअल स्केवेंजर।  इसके साथ ही मैनुअल स्केवेंजरों का उनके पसंद के गरिमामय पेशे में तुरंत पुनर्वास करा दे ताकि वे एक इज्जतदार जिंदगी जी सकें।

अभी सरकार मैनुअल स्केवेंजरों के लिए जो स्व-रोजगार का प्रावधान करती है वह सब्सिडी और लोन के आधार पर करती है। लोन तो कर्ज होता है और मैनुअल स्केवेंजर कर्ज नहीं लेना चाहते। इसलिए सरकार लोन नहीं उन्हें अनुदान दे। और उनके पुनर्वास तक उन पर निगरानी रखे जिससे कि वे अनुदान का दुरपयोग न करें बल्कि जिस आजीविका के लिए अनुदान दिया गया है उसी में पुनर्वासित हों।  सरकार एक काम और कर सकती है कि अभी जो मैनुअल स्केवेंजर के चिन्हीकरण के बाद जो एकमुश्त राहत राशि 40,000 मिलती है, उसे बढ़ा कर एक लाख कर दे और 4 लाख तक (आवश्यकतानुसार) अनुदान राशि उनके इज्जतदार पेशे में पुनर्वास के लिए दे दे। इस तरह यदि मैनुअल स्केवेंजर को 5 लाख रूपए तक मिलेंगे तो निश्चित ही वह अपनी गरिमापूर्ण आजीविका शुरू कर सकता है।  

जो मैनुअल स्केवेंजर 55-60 साल या इससे ऊपर के हैं और आजीविका के लिए कोई पेशा करने में न सक्षम हैं न इच्छुक। उन्हें सरकार आजीवन  पेंशन देना शुरू कर दे।  उनकी बीमारी के लिए ऐसा कार्ड प्रदान करे जिससे कि उनका किसी भी अस्पताल (सरकारी या प्राइवेट) में निशुल्क इलाज हो सके. इस तरह की योजना से सही अर्थों में उनका पुनर्वास हो सकेगा। अन्यथा सरकार एक्शन प्लान बनाती रहेगी  और मैला प्रथा के जड़ से खात्मे की तारीख-पे-तारीख देती रहेगी।  पर वास्तव में उनका कार्यान्वन नहीं होगा।  ऐसे में सरकार के इस एक्शन प्लान पर और सरकार की नीयत पर शंका होने लाजिमी है।  

(राज वाल्मीकि सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हुए हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)

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