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क्रांतिकारी जब जागते हैं, वह प्रेम के सिवा और किसी चीज़ की परवाह नहीं करते 

ट्री कॉन्टिनेंटल इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च  के लिए अपने साप्ताहिक कॉलम न्यूज़ लेटर में विजय प्रसाद ने अरब बसंत (अरब स्प्रिंग) के एक दशक की उपलब्धियों पर विचार किया है।
गैस मास्क लगाए हुए एल ज़ेफ्ट (मिस्र), नेफ़रतिटी, 2012
गैस मास्क लगाए हुए एल ज़ेफ्ट (मिस्र), नेफ़रतिटी, 2012

इस वाकयात को कोई एक दशक बीत गए जब ट्यूनीशिया  के शहर सिदी बूज़िद में मोहम्मद बउजीजी नाम के एक व्यक्ति ने 17 दिसंबर 2010 को आत्मदाह कर लिया था। बउजीजी  आजीविका के लिए पटरी पर दुकान लगाते थे और पुलिसिया अत्याचार से अजीज आकर यह घातक कदम उठाने पर मजबूर हो गये थे। इस घटना से आक्रोशित हजारों लोग ट्यूनीशिया के इस छोटे से शहर की गलियों में निकल आए और पुलिस अत्याचार का विरोध किया।  इन लोगों का आक्रोश राजधानी  के शहर ट्यूनिस तक पहुंच गया, जहां ट्रेड यूनियनों, सामाजिक संगठनों, राजनीतिक दलों और नागरिक समूहों ने तत्कालीन ज़ीन एल अबिदीन बेन अली की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए जगह-जगह मार्च निकाले ट्यूनीशिया में हो रहे इन प्रदर्शनों ने भूमध्य सागर के आसपास के क्षेत्रों, मिस्र से लेकर स्पेन तक, काहिरा की तकरीर चौक पर गगनभेदी नारे अश-शाब यूरिड इस्कट अन-निजाम ( ‘लोग इस हुकूमत को बेदखल करना चाहते हैं’) लगाये, जिनके साथ सैकड़ों-लाखों लोगों की भावनाएं जुड़ गईं। 

लोग-बाग गलियों में उतर पड़े। उनकी भावनाओं को स्पेनिश में इनडिगनाडोस : आवेश या आक्रोश कहा गया। वे यह कहने के लिए हुजुम में घरों से निकल पड़े थे कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष  ताकतें उनकी उम्मीदों  को बुरी तरह कुचल रही हैं। अपने समुदायों में अरबपति होने और राज्य सत्ता के साथ उनकी सांठगांठ के बावजूद 2007-08 में साख संकट के चलते वैश्विक मंदी आ गई थी, जिसके दुष्प्रभावों को आसानी से देखा जा सकता था। इसी बीच, वित्तीय  पूंजी की ताकतों ने उनकी सरकारों (अगर वह लोगों के पक्ष में थीं) की मानवीय नीतियां मुहैया कराने की उनकी क्षमता में ह्रास कर दिया था, जो दिखाई तो कम देती थीं लेकिन उनके परिणाम अधिक विनाशकारी थे।

स्टेलियोस फेताकिस (ग्रीस), मई  2016 का मर्सिया 

जिस भावना ने हुकूमत को उखाड़ फेंकने का नारा गढ़ने के लिए व्यापक स्तर पर बड़ी संख्या में लोगों को  प्रेरित किया था, वह बुरे लोगों या कम बुरे लोगों के लिए चुनाव से व्यर्थ हो गया था। ये लोग अब तक जारी चुनावी खेलों, जो बेहद कम परिवर्तनकारी प्रतीत हो रहा था, के पार जा कर बहुत कुछ पाने की मांग कर रहे थे।  राजनीतिक नेता चुनाव में जाते वक्त जो कहते थे, चुनकर आने और फिर सत्ता में आ जाने के बाद ठीक उसके विपरीत आचरण करने लगते थे। 

उदाहरण के लिए, ब्रिटेन में, 2010 के नवंबर-दिसंबर में छात्रों ने लिबरल डेमोक्रेट के खिलाफ प्रदर्शन किया था, जिसने फीस न बढ़ाने का वादा करके फीस बढ़ा दी थी। इसमें इसका कोई मतलब नहीं की किसने किसको वोट दिया था। नतीजा यही हुआ कि तमाम लोगों को उसका खमियाजा उठाना पड़ा। ब्रिटेन में छात्र नारे लगा रहे थे, ग्रीस, फ्रांस :  अब यहां  भी !  वे इन नारों में चिली को भी जोड़ सकते थे, जहां के छात्र शिक्षा  में कटौती किए जाने के खिलाफ गलियों व सड़कों पर उतर पड़े थे,  उनका प्रदर्शन दोबारा मई 2011 में शुरू हुआ और यह लगभग अगले 2 साल  ‘चिली स्टूडेंट विंटर’ तक चला  था।  सितंबर 2011 में, आक्रोश की उठी इस वैश्विक लहर में संयुक्त राज्य अमेरिका का अकोपाई मूवमेंट भी शामिल हो गया।  यह आंदोलन बंधक विपदा,  जो 2007-08  में  क्रेडिट क्राइसिस  में बदल गया था, उससे बड़ी संख्या में  विस्थापित हुए लोगों की समस्या का निराकरण करने में अमेरिकी सरकार की पूरी तरह विफल रह जाने के विरोध में शुरू हुआ था। तब किसी ने वाल स्ट्रीट की दीवारों पर लिख दिया था, ‘अमेरिका का सपने देखने का एक ही तरीका है, जब आप सो रहे हों।’

 हुकूमत को उखाड़ फेंको  का नारा इसलिए दिया गया था कि इस सत्ता में अवाम का भरोसा कमजोर हो गया था। नव उदारवादी सरकारों और केंद्रीय बैंक जितना दे रहे थे, लोगों की उससे ज्यादा पानी की चाहत थी।  लेकिन प्रदर्शन का मकसद केवल सरकार को सत्ता से बेदखल करना ही नहीं था क्योंकि यह मान्यता व्यापक थी कि सरकार की यही एकमात्र दिक्कत नहीं है। इससे कहीं गहरी समस्या राजनीतिक संभावनाओं को लेकर है, जो मानवीय समुदाय के सामने एकदम स्पष्ट है।एक या कई पीढ़ियों ने यह अनुभव किया था कि विभिन्न प्रकार की सरकारों में मितव्ययिता का आग्रह कमजोर हुआ है, यहां तक कि सोशल डेमोक्रेटिक सरकारों ने कहा था कि उसके समस्त नागरिकों के अधिकारों की तुलना में समृद्ध बांड धारी (बॉन्डहोल्डर) के अधिकार ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।  यह प्रगतिशील कहीं जाने वाली सरकारों  पर की विफलता को लेकर हैरान करने वाला वक्तव्य था, जैसा कि ग्रीस में 2015 में सिरिजा गठबंधन ने अपने इसी बुनियादी वादों के साथ शुरुआत की कि वह ऐसे रवैये को जन्म देने वाली कठोरता नहीं थोपेगी।.

सु यंगसून (दक्षिण कोरिया),  सियोल में, दिसंबर 2016

जनाक्रोश का चरित्र सही मायने में वैश्विक था। 14 मार्च 2010 को बैंकॉक में लाखों लोग देश की सेना और  के खिलाफ लाल शर्ट पहन कर गलियों में और सड़कों पर उतर पड़े थे।  स्पेन में, मेड्रिड की गलियों में 15 अक्टूबर 2011 को आधा मिलियन इंडिग्निटीज मार्च निकाला गया था। फिनेंशियल टाइम्स अखबार ने एक अग्रणी टिप्पणीकार के प्रभावपूर्ण आलेख में इसे ‘वर्ष का वैश्विक जनाक्रोश’ बताया था। यह विद्रोह ‘आम नागरिकों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जुड़े अभिजात्य का एक मोरचा था, जो महसूस करते थे कि वह आर्थिक समृद्धि के फायदों से बाहर कर दिए गए हैं और जो भ्रष्टाचार को लेकर गुस्से में थे।’ 

 आर्थिक सहयोग और विकास संगठन  (ओईसीडी)  की रिपोर्ट 2008 से यह दिखाती है कि 1980  के दशक और 2000 के दशकों के बीच, दुनिया के 20 सबसे धनी देशों,  जो ओईसीडी के सदस्य हैं, उनमें असमानताओं में बढ़ोतरी हुई है।  विकासशील देशों  में यह स्थिति और भी विनाशकारी है। यूएन कॉन्फ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट(UNCTAD) की  जारी रिपोर्ट 2008 से  दिखाती है कि विकासशील क्षेत्रों में  निर्धनतम लोगों द्वारा राष्ट्रीय उपभोग की दर 5 फीसद से घटकर 1990 और 2004 के बीच 4.6 से लेकर 3.9 फीसद हो गई। यह स्थिति लैटिन अमेरिका, कैरीबियन, और अफ्रीका के उप सहारा देशों में और भी गंभीरतम है, जहां हर एक पांचवा निर्धनतम व्यक्ति राष्ट्रीय खपत और आय के मात्र 3 फीसद के लिए जवाबदेह है। 2008 के गंभीर संकट के निवारण के लिए बैंकों के सहायतार्थ जो भी राशि जमा की गई थी, वह करोड़ों लोगों की आय पुनर्वितरण में तब्दील नहीं हो सकी। इस कारण उन्होंने पाया कि उनका जीवन बहुत तेजी से अनिश्चित हुआ जा रहा है। यही उस अवधि के विद्रोह की एक व्यापक प्रेरणा थी।

यहां  रेखांकित करना महत्वपूर्ण होगा कि इन सभी सांख्यिकियों में एक उम्मीद का संकेत भी था। संयुक्त राष्ट्र इकोनामिक कमीशन फॉर लैटिन अमेरिका एंड कैरीबियन (ईसीएलएसी) के प्रमुख एलिसिया बेक्सेना,  ने मार्च 2011 में लिखा था, ‘आर्थिक असमानता की दर ऊंची होने के बावजूद क्षेत्र  की सरकारों की सामाजिक नीतियों के चलते क्षेत्र में गरीबी की दर में गिरावट आई थी।’यह लिखते वक्त बेक्सेना  के दिमाग में सोशल डेमोक्रेटिक सरकारों; जैसे ब्राजील के  राष्ट्रपति लुला डी सिल्वा की बोलसा फैमिलिया,  और  बोलविया के प्रेसिडेंट ईवो मोरालेस और वेनेज़ुएला में ह्यूगो शावेज की सरकारों की नीतियां रही होंगी। विश्व के इस हिस्से में जनता की नाराजगी सरकारों में दाखिल हो गई थी और वह खुद के लिए अलग एजेंडा चलाने लगी थी।

महमूद ओबैदी (इराक), मॉर्फियस और द रेड पोपी 2, (2013)

धनिक वर्ग की ‘लोकतंत्र को बढ़ावा देने’ की भाषा जल्दी ही  ‘कानून और व्यवस्था’ की भाषा में तब्दील हो गई थी। वे सार्वजनिक बाजारों को लोगों से खाली कराने में पुलिस बल और एफ-16 भेजने और देश में बमबारी करने एवं तख्तापलट की धमकी की भाषा बोलने लगे थे।

अरब वसंत (अरब स्प्रिंग) का नामकरण 1848 में समस्त यूरोप में हुई क्रांति के नाम पर किया गया था, जो तत्काल ही नरम पड़ गई थी, क्योंकि पश्चिम जगत लीबिया और सीरिया को तनाव का उद्गम केंद्र बनाने के साथ क्षेत्रीय ताकतों (ईरान, सऊदी अरबिया और तुर्की) के बीच संघर्ष को हवा देने में लग गये थे। 2011 में नाटो हमले में लीबिया के विध्वंस ने अफ्रीकी यूनियन को गौण कर दिया। इस कारण फ्रांस की फ्रैंक मुद्रा तथा अमेरिकी डॉलर के बदले अफ्रीका में अफ्रीक मुद्रा को लागू करने की योजना धरी की धरी रह गई और इसके बाद, सहेल क्षेत्र के साथ-साथ माली से लेकर नाइजर तक  फ्रांसीसी और अमेरिकी सेना के व्यापक हस्तक्षेप हो गया।

सीरिया में सरकार को बेदखल करने के लिए 2011 में सघन दबाव बनना शुरू हो गया, जो 2012 आते-आते और गहरा गया। इसने और अरब एकता को टुकड़ों में विभक्त कर दिया, जो 2003 में इराक पर अमेरिका के अवैध युद्ध के दौरान परवान चढ़ रही थी। इसने सीरिया को  ईरान और उसके प्रतिपक्षियों (सऊदी अरबिया, तुर्की और संयुक्त अरब अमीरात) के बीच क्षेत्रीय युद्ध का  अग्रिम मोर्चा बना दिया। इसने फिलिस्तीनीयों के केंद्रीय मुद्दे को गौण कर दिया।  मिस्र में, जनरलों की नई सरकार के गृह मंत्री जनरल मोहम्मद इब्राहिम ने ठंडेपन से कहा,‘हम लोग न्यायाधीशों, पुलिस और सेना के बीच एकता के स्वर्णिम युग में रह रहे हैं।’ नॉर्थ अटलांटिक लिबरल जनरलों के समर्थक हो लिये थे। दिसंबर 2020 में,  फ्रांस के राष्ट्रपति इमैन्युअल मैक्रोन ने मिस्र के राष्ट्रपति-पूर्व जनरल-अब्देल फतह अल सिसी को फ्रांस का सर्वोच्च सम्मान ‘लिजुन द नोर’ प्रदान किया। 

इसी बीच, वाशिंगटन ने लैटिन अमेरिका में ‘गुलाबी लहर’ (पिंक टाइड)  को समाप्त करने के लिए छल-प्रपंच की पूरी श्रृंखला लगा दी। इसकी व्यापकता सन 2002 में वेनेजुएला सरकार की बेदखली के प्रयास से लेकर 2009 में हुंडारूस में तख्तापलट और अमेरिकी गोलार्ध हैती के नीचे से लेकर अर्जेंटीना तक की हर प्रगतिशील सरकारों तक दिखी है। वस्तुओं के मूल्य में गिरावट ने-विशेषकर तेल के दामों में- गोलार्ध के देशों में आर्थिक गतिविधियों को ठप कर दिया। अमेरिका ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए, सूचनाओं को हासिल करने, और वामपंथी सरकारों के ऊपर वित्तीय, राजनयिक और सैन्य दबाव  बनाने में करता था।  इनमें से कई सरकारों ने इस दबाव के आगे अपने घुटने टेक दिए। प्राग में फर्नांडो लोगो की सरकार का 2012 में तख्तापलट दरअसल 2016 में ब्राजील की राष्ट्रपति डिल्मा सरकार के तख्तापलट का अग्रिम संकेतक था।

आर्थिक और राजनीतिक पद्धति में बदलाव की एक-एक इंच की उम्मीद युद्ध,  तख्तापलट और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसे संगठनों के अपार दबावों से होकर गुजरी है। बेरोजगारों और भूखों को राहत प्रदान करने के प्रयासों का दम घोंटने के लिए राज्यों द्वारा ‘कर और सब्सिडी सुधार’ तथा ‘श्रम बाजार सुधार’ जैसी पुरानी बोली फिर से बोली जाने लगी है। कोरोना वायरस के काफी पहले उम्मीदें काफी सख्त हो गई थीं और भ्रष्टाचार आम हो गया था क्योंकि अप्रवासी समुद्रों में डुबोये जाने लगे थे और कंसंट्रेशन कैंपों में बैठे रहते थे जबकि  मृत धन (शून्य उत्पादक होने की संभावना वाला धन) सीमा पार करों के स्वर्ग कहे जाने वाले देशों में पहुंचाया जाने लगा था ( अपतटीय वित्तीय केंद्रों में 36 ट्रिलियन से ज्यादा राशि जमा हैं, जो भारी-भरकम रकम है)

 एक दशक पहले हुए विद्रोह की पृष्ठभूमि  यह मांग करती है कि  मिस्र में  जेलों के द्वारों को विराम देते हैं, जहां अपनी आशावादी ताकि कारण गिरफ्तार किए गए कुछ युवा आज भी बंदी बनाकर रखे गय़े हैं।  दो राजनीतिक कैदियों अला अब्देल अल-फत्ताह और अहमद डौमा सेल के भीतर एक दूसरे पर चिल्ला पड़े थे, जिनकी बातचीत ग्राफिटी फॉर टू शीर्षक से छपी थी। वे दोनों किस बात पर लड़ पड़े थे?  हम दिन भर लड़ते थे, एक दिन वह निश्चित रूप से बिना किसी घुटन के खत्म हो जाएगा, जिसे कल उसी तरह से दोहराया जाएगा जैसा इसके पहले के अन्य तमाम दिनों में दोहराया जाता रहा है।’  उन्होंने  वर्तमान से बाहर आने की मांग की, उन्होंने भविष्य की मांग की। अला और अहमद ने लिखा था, क्रांतिकारियों, जब वे जागते हैं, वह प्यार के सिवा और किसी की परवाह नहीं करते।’ 

काहिरा की अपनी जेलों में, वह भारतीय किसानों की कहानियां सुनते हैं, जिनके संघर्ष  ने राष्ट्र को प्रेरित किया है;  वे सुदूर पापुआ न्यू गिन्नी और अमेरिका में नर्सों की हड़ताल के बारे में सुनते हैं; इंडोनेशिया और दक्षिण कोरिया में  फैक्ट्री मजदूरों की  हड़ताल के बारे में सुनते हैं;  वे फिलिस्तीनियों और सहारवई लोगों के विश्वासघात  के बारे में सुनते हैं, जिन्होंने पूरी दुनिया में  गलियों में ऐसे प्रदर्शनों को बढ़ावा दिया।  सन 2010- 2011 में  ‘सफोकेटिंग सर्टेंटी’  जिसका कोई भविष्य नहीं है, उसे कुछ महीनों के लिए  एक तरफ रख दिया गया था;  एक दशक बाद लोगों ने सड़कों पर और गलियों में उतर कर अपने लिए  असहनीय वर्तमान से अलग एक बेहतर भविष्य की मांग की। 

सौजन्य : पीपुल्स डिस्पैच

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