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पीएम-केयर्स फ़ंड का मालिक है कौन?

किसी भी ऐसे फ़ंड को गोपनीयता के घेरे में नहीं रखा जा सकता है जिसमें लाखों भारतीयों ने दान किया हो क्योंकि उस पर भारत सरकार की मुहर थी और इस फ़ंड के नाम पर पर ही प्रधानमंत्री ने किसी भी संकट के दौरान सहायता का आश्वासन दिया था।
PM care Fund

अगर विडम्बना खुद के बारे में ही लिख रही होती तो इससे अच्छा काम और नहीं हो सकता था। भारत के प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार के विभागों ने कोविड-19 से निपटने और सहायता प्रदान करने के लिए धन जुटाने के आधिकारिक तौर पर पीएम-केयर्स फंड का उद्घोष किया था, लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय, भारत के सॉलिसिटर जनरल और सरकार के अन्य कानून अधिकारियों ने अदालतों में हुकूमत के हर पाप पर पर्दा डालने का काम किया है – जिसके तहत कोर्ट के सामने एक हलफनामा दाखिल किया गया जिसमें कहा गया कि यह सरकारी या हुकूमत का फंड/कोष नहीं है। यह ताजातरीन बयान पिछले हफ्ते दिल्ली हाई कोर्ट में दिया गया है।

इसकी स्थापना के 18 महीनों बाद जो सवाल खड़ा हुआ वह यह कि पीएम-केयर्स में जमा हुए कम से कम 10,000 करोड़ रुपए पर स्वामित्व और नियंत्रण किसका है? वास्तव में, अब तक कुल इकट्ठा की गई राशि और उसके वितरण की कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। सूचना के अधिकार (आरटीआई) के ज़रीए दायर सवालों और अदालती कार्यवाही में अब तक यह साधारण मुद्दा नहीं सुलझाया नाही जा सका है कि यह किसका फंड का है- भारत के प्रधानमंत्री या केवल इसके पदाधिकारी, नरेंद्र मोदी का?

आधिकारिक-अनौपचारिक की लीला को टाला नहीं जा सकता है। दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर एक हलफनामे (प्रधानमंत्री कार्यालय में एक अवर सचिव द्वारा हस्ताक्षरित) में कहा गया है कि पीएम-केयर्स फंड एक सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट है, न कि सरकार या हुकूमत का फंड है। इसने यह भी कहा कि एकत्र की गई राशि भारत के समेकित कोष (CFI) में नहीं दिखाई देती है। सॉलिसिटर जनरल, सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न अदालतों के अन्य कानून अधिकारियों के सामने दायर की गई जनहित याचिकाओं के विरोध में पेश हुए हैं, जिन याचिकाओं में पीएम-केयर्स फंड को सार्वजनिक प्राधिकरण घोषित करने या आरटीआई अधिनियम के दायरे में लाने की मांग की गई थी। अधिकतर आरटीआई के प्रश्नों को खारिज कर दिया गया था, जिसकी वजह से याचिकाकर्ताओं को अदालतों का दरवाजा खटखटाने पर मज़बूर होना पड़ा। 

समाचार रिपोर्टों और हलफनामों के अनुसार, फंड का प्रबंधन पीएमओ द्वारा किया जाता है, जिसके अधिकारियों का वेतन राष्ट्रीय खजाने से दिया जाता है, वे पीएम-केयर्स को "मानद" सेवाएं प्रदान करते हैं। पीएम, जो एक संवैधानिक पद पर हैं, वे इस न्यासी बोर्ड के अध्यक्ष हैं। इसकी वेबसाइट के अनुसार वे ही पीएम फंड के "सेटलर" या निर्माता हैं, और इसके ट्रस्टी भारत सरकार के कैबिनेट मंत्री हैं। पीएम-केयर्स, निश्चित रूप से, "प्रधानमंत्री" शब्द के इस्तेमाल के साथ आपातकालीन स्थिति में प्रधानमंत्री नागरिक सहायता और राहत का विस्तार करता है। इसकी वेबसाइट भारत सरकार का एक आधिकारिक पोर्टल है; इस पर भारत राज्य का प्रतीक चिन्ह भी है।

इसके हर विवरण से पता चलता है कि यह एक आधिकारिक या राष्ट्र की इकाई है। हालाँकि, यह खुद को एक सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट के रूप में पेश करती है। अदालतों में, इसे प्रबंधित करने वालों ने जोर देकर कहा कि इसका सरकार या सीएफआई से कोई लेना-देना नहीं है। यहां क्या निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए- कि यह भारत के प्रधानमंत्री का फंड कम है, नरेंद्र मोदी का ज्यादा है? यह वास्तव में किसका फंड है? जिस तरह से इस फंड बनाया गया है, उस पर जादूगर और चालबाजों को जरूर गर्व होगा।

27 मार्च को इसकी शुरुआत के बाद, मोदी ने ट्वीट किया था: "यह मेरे साथी भारतीयों से मेरी अपील है, कृपया पीएम-केयर्स फंड में योगदान करें।" अगले तीन दिनों में, वित्तीय वर्ष 2019-20 के अंत तक, फंड में प्रभावशाली रूप से 3,076 करोड़ रुपया जमा हो गया था। सबसे सख्त लॉकडाउन और महामारी की बढ़ती आशंकाओं के बीच, यह फंड केवल छह सप्ताह में 10,600 करोड़ (1.4 बिलियन डॉलर) हो गया था।

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों, निजी समूहों और व्यक्तियों ने कोष में योगदान दिया है। सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी कर्मचारियों को एक दिन का वेतन देना पड़ा या दान नहीं करने के बारे में लिखित कारण देना पड़ा। भारत के लोगों ने यह मानकर दान दिया कि वे पीएम के कोष में दान दे रहे हैं। विदेशी दान की भी अनुमति थी, और कंपनियां अपने कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व आवंटन (सीएसआर) निधि को भी इसमें दान किया जा सकता था। 

कोविड-19 से लड़ने के 18 महीनों के बाद भी, भारतीयों के पास जो अपने जीवन के नकारात्मक आर्थिक और स्वास्थ्य प्रभावों को झेल रहे हैं और जिस फंड को उनकी सहायता के लिए  स्थापित किया गया था और जो धन से लबालब भरा हुआ है उसके बारे में आम जन बहुत कम जानकारी है। सरकार द्वारा फंड की स्थापना के बमुश्किल तीन-चार दिन बाद, लाखों अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिक अपने परिवारों के साथ बड़े पैमाने पर पैदल अपने गाँव/शहर लौट रहे थे, जिसके चलते कम से कम 100 मजदूरों की की मृत्यु हो गई थी। स्वतंत्र भारत में छाए अभूतपूर्व मानवीय संकट के दौरान बड़े पैमाने पर जो राहत प्रयास हुए वे पीएम-केयर्स फंड के माध्यम से नहीं बल्कि नागरिक समाज संगठनों द्वारा क्राउड-फंडिंग के माध्यम से किए गए।

अपनी वेबसाइट पर, पीएम-केयर्स में योगदान करने के तरीके के बारे में विवरण दिया गया है, लेकिन प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष के विपरीत – जिसे 1948 में स्थापित किया गया था और पीएमओ द्वारा संचालित किया जाता है - यह संग्रह या आवंटन के बारे में जानकारी प्रदान नहीं करता है।

पीएमएनआरएफ की पिछले दस वर्षों की आय और व्यय का विवरण, 2010-11 से 2019-20 तक, इसकी वेबसाइट पर दिया गया है, कितना इकट्ठा हुआ और कितना वितरित किया गया। उसी दशक में, 3,048 करोड़ रुपये इकट्ठे किए गए – जबकि पीएम-केयर्स ने उतनी रक़म को मात्र तीन दिनों एकत्र कर लिया था – और पीएमएनआरएफ ने लगभग 2,391 करोड़ रुपये वितरित भी किए थे। लेकिन पीएम-केयर्स के बारे में इस तरह की समान जानकारी उपलब्ध नहीं है: वेबसाइट पर केवल 31 मार्च 2020 तक के खातों का लेखा-जोखा है।

पिछले साल हर तरफ से जबरदस्त आलोचना होने के बाद ही पीएमओ ने एक बयान जारी कर  फंड के पीछे के इरादों को बताया था। इसमें कहा गया कि, "3,100 करोड़ रुपये में से लगभग 2,000 करोड़ रुपये वेंटिलेटर की खरीद के लिए रखे जाएंगे। प्रवासी मजदूरों की देखभाल के लिए 1,000 करोड़ रुपये और वैक्सीन के विकास के लिए 100 करोड़ रुपये दिए जाएंगे…। राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को आवास की सुविधा प्रदान करने, भोजन की व्यवस्था करने, चिकित्सा उपचार प्रदान करने और प्रवासियों के परिवहन की व्यवस्था करने के प्रयासों को मजबूत करने के लिए 1,000 करोड़ रुपये आवंटित किए जाएंगे। ‘मेक इन इंडिया’ नीति के तहत लगभग 50,000 वेंटिलेटर का निर्माण कर राज्यों को वितरित किए जाने थे। 

क्या उपरोक्त बताई योजना के अनुसार फंड का वितरण किया गया? इसका पता एक निष्पक्ष ऑडिट के बाद ही चल सकता है। पीएम-केयर्स का भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक जोकि एक स्वतंत्र वैधानिक निकाय है के द्वारा ऑडिट नहीं किया जाता है। इसके बजाय, इसका ऑडिट एक निजी फर्म द्वारा किया जाता है, आरटीआई कार्यकर्ताओं के मुताबिक इस फर्म के मालिकों के भाजपा के नेताओं के साथ संबंध हैं। फिर भी, 2020-21 की ऑडिट रिपोर्ट - जिस वर्ष अधिकांश फंड खर्च किया गया होगा या होना चाहिए था - अभी भी अनुपलब्ध है। वास्तव में, ट्रस्ट डीड को केवल दिसंबर 2020 में सार्वजनिक किया गया था, और नौ महीने बाद इसमें दान के रूप में बड़ा धन आया था। विपक्ष ने पीएम-केयर्स फंड को "ब्लैक होल" करार देते हुए इस मुद्दे को लोकसभा में उठाया, लेकिन सत्तारूढ़ भाजपा ने पीएमएनआरएफ और गांधी परिवार की ओर इशारा करते हुए मुद्दे पर चर्चा को टाल दिया।

जब देश के लोग साल की शुरुआत में महामारी की घातक दूसरी लहर का सामना कर रहे थे, तो किसी ने भी पीएम-केयर्स फंड के ज़रीए महंगी ऑक्सीजन सिलेंडर या रेमेडिसविर जैसी दवाओं का इंतजाम करने के लिए कदम बढ़ाते नहीं सुना। महामारी पर हुए खर्च के कारण गरीबी में धसते भारतीयों की कहानियां आम आ रही हैं, लेकिन ऐसे परिवारों की मदद के लिए भी पीएम-केयर्स के फंड के इस्तेमाल की कोई बात नहीं की जा रही है।

मोदी सरकार ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि कोविड-19 के कारण प्रमाणित मौतों वाले परिवारों को 50,000 रुपये की अनुग्रह राशि मिलेगी, लेकिन यह ऐसा है जिसे राज्यों को करना है। लैंसेट पत्रिका के अध्ययन का अनुमान है कि भारत में कम से कम 1,20,000 बच्चे कोविड-19 के कारण अनाथ हो गए हैं, लेकिन पीएम-केयर्स ने इस बात की भी घोषणा नहीं की है कि वह उनकी देखभाल और शिक्षा को तब तक वित्तपोषित करेगा जब तक कि वे 18 वर्ष के नहीं हो जाते।

फंड का वितरण कैसे किया जा रहा है? इससे किसे फायदा हुआ, कौन फायदे की कतार में है, इसका कुछ अता-पता नहीं है। इसके काम करने के अंदाज़ में गोपनीयता और अस्पष्टता का होना - विशेष रूप से फंड के आवंटन में - पीएम-केयर्स पर एक काली छाया का होना है। लाखों भारतीयों और विदेशियों ने स्वेच्छा से या अन्यथा, बड़े पैमाने पर पीएम-केयर्स को दान दिया था, क्योंकि इसके बेहतर इस्तेमाल के लिए भारत सरकार और देश के प्रधानमंत्री की तरफ से आश्वासन दिया गया था। हर गुजरते महीने में अधिक से अधिक हलफनामे आते जाएंगे वह भी पीएमओ की तरफ से जिससे यह लगता है कि पीएम-केयर्स मोदी का एनजीओ है, यद्यपि एक बहुत ही संपन्न एनजीओ जिसमें अथाह फंड है। 

एक संवैधानिक पद वाला निर्वाचित अधिकारी एक ट्रस्ट को बड़ी नज़दीकी से चलाता है जो राष्ट्र के प्रयास की नकल उड़ाता है, और अगर बहुत ही हल्के में कहा जाए तो यह बेईमानी का आलम है।

लेखक, मुंबई की एक वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं, राजनीति, शहरों, मीडिया और लैंगिक मुद्दों पर लिखती हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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