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कौन हैं स्वच्छ भारत के सच्चे नायक ?

अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों का अध्ययन बताता है कि भारत में सफाई कर्मियों का सबसे बड़ा हिस्सा अनुसूचित जाति से आता है, इसलिए जाति के सामाजिक कलंक के साथ जब पेशेगत अपमान जुड़ जाता है, तो सामाजिक बहिष्कार और पीढ़ी-दर-पीढ़ी होने वाला भेदभाव जारी रहता है।
swachchta abhiyan

चार महत्वपूर्ण अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसियां, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, वाॅटर एड और डब्लू एच ओ ने मिलकर एक अध्ययन किया है, जिसका शीर्षक है ‘‘हेल्थ, सेफ्टी ऐण्ड डिग्निटी ऑफ सैनिटेशन वर्कर्स - ऐन इनिशियल असेसमेंट’’ (सफाई कर्मचारियों का स्वास्थ्य, सुरक्षा और गरिमा - एक प्राथमिक मूल्यांकन)। यह अध्ययन श्रम अधिकारों की लड़ाई में एक नया मोर्चा खोल सकता है। क्योंकि वाम नेतृत्व वाले ट्रेड यूनियन और सिविल सोसाइटी संगठन इस लड़ाई की अगुआई कर रहे हैं, इस अध्ययन से उन्हें अपने संघर्ष में काफी मदद मिल सकती है।

अध्ययन के अनुसार भारत में 50 लाख सफाई कर्मी देश को स्वच्छ बनाने के अभियान में लगे हैं। इनमें से 20 लाख कर्मचारी जोखिम-भरी स्थिति में काम करते हैं। कई कर्मचारी सेप्टिक टैंक और सीवरेज पिट साफ करते हुए जान गंवा चुके हैं, और अधिकतर भयानक पेशेगत बीमारियों के शिकार हैं।

प्रधान मंत्री मोदी ने 2 अक्टूबर 2019 को स्वच्छ भारत अभियान के सफल समापन की घोषणा की और शौचालय निर्माण के जो आंकड़े सामने आए वे प्रभावशाली थे। उन्होंने घोषणा कर दी कि भारत में खुले में शौच की प्रथा का अन्त हो चुका है, पर यह ध्यान देने लायक है कि मैनुअल स्कैवेंजिंग की घृणित प्रथा (हाथ से मल व कूड़ा साफ करने की प्रथा) के अन्त की घोषणा नहीं की। कितना भयानक है कि लोगों को सीवर के भीतर गंदगी में डूबकर बंद नालों को साफ करना पड़ता है और औरतें शुष्क शौचालयों को साफ कर अपने सिर पर सारा मल ढोती हैं।

डब्लू एच ओ के अध्ययन ने भारत व 8 अन्य विकासशील देशों पर फोकस किया है। उसके अनुसार सफाई कर्मचारी अपने दैनिक कार्य के दौरान ‘‘घातक संक्रामक रोगों, जख़्मों, सामाजिक अपमान, और यहां तक कि मौत तक के शिकार होते हैं। श्रमिक अधिकारों की स्वीकृति होनी चाहिये; श्रमिकों को आज़ादी और आलंबन चाहिये ताकि वे श्रम शक्ति के रूप में संगठित हो सकें; उनकी कार्य-स्थिति में सुधार की ज़रूरत है। इन्हें स्वास्थ्य और श्रमिक अधिकारों के संरक्षण हेतु तथा सम्मानजनक कार्यस्थितियां सुनिश्चित करने के लिए लगातार औपचारिक रूप दिया जाना चाहिये, जैसा कि यू एन के एस डी जी 8 में अह्वान किया गया है।’’

बेज़वाडा विल्सन द्वारा संचालित सफाई कर्मचारी आन्दोलन, जो मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने के लिए लड़ रहा है, की मानें तो आज भी देश में 26 लाख शुष्क शौचालय हैं, जिन्हें 7.7 लाख सफाई कर्मी हाथ से साफ करते हैं। ये अधिकतर महिलाएं हैं। यह विडम्बना है कि विश्व बैंक, जो अध्ययनकर्ताओं में से एक है, राज्यों को शहरी विकास लोन देने के वास्ते सफाई कार्य के निजीकरण को एक शर्त बनाता है। इसकी वजह से महापालिकाएं सफाई कर्मचारियों का नियमितिकरण नहीं करतीं। इसलिए उन्हें ठेकेदारों के अधीन कम वेतन पर अनौपचारिक श्रमिक के रूप में काम करना पड़ता है।

सफाई कर्मियों के राष्ट्रीय आयोग के द्वारा एकत्र आंकड़े बताते हैं कि 2019 में ही 8 राज्यों के 50 सफाई कर्मचारियों की मौत सीवर पिट में हुई। मृतकों में से 7 मोदी के गुजरात से थे। बाकी 4 गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश से थे, 4 बिहार से और 5 तमिलनाडू से थे; जबकि तमिल नाडू, जो विकसित राज्य माना जाता है, सफाई कर्मियों की मौत के मामले में सबसे आगे है-पिछले 3 सालों में 88 मौतें! ए आई सी सी टी यू के प्रदेश सचिव और सफाई मज़दूर एकता मंच के कार्यकारिणी सदस्य का. अनिल वर्मा ने बताया कि उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ जैसे कवल टाउन में तक सीवर में श्रमिकों की मौतें हुई हैं, पर पूरा मुआवजा नहीं मिला।

61 पन्ने वाले डब्लू एच ओ अध्ययन ने 4 प्रमुख चुनौतियों को फोकस किया है-सफाई कर्मियों द्वारा झेले जा रहे विविध पेशेगत व पर्यावरण-संबंधी खतरे, कमज़ोर कानूनी संरक्षण। कम वेतन और आर्थिक असुरक्षा  तथा सामाजिक अपमान व भेदभाव की चर्चा की गई है। रिपोर्ट में यूनियनों और ऐसोसिएशनों के माध्यम से श्रमिकों के सशक्तिकरण की बात उठाई गई है। रिपार्ट ने कुछ क्षेत्र चिन्हित किये हैं, जहां नीतिगत फैसले, विधि-संबंधी कार्यवाही और नियंत्रक कदमों की आवश्यकता है।

भारत ने 1993 में ही मैनुअल स्कैवेंजिंग समाप्त करने के लिए कानून बनाया था। 20 वर्ष बाद पुनः इस प्रतिबन्धित कार्य को बन्द करने के लिए एक और कानून बना! पर डब्लू एच ओ का अध्ययन बताता है कि समस्या समाप्त न होकर गुप्त रूप से जारी है; यानी अदृश्य हो गई। कई राज्यों में तो 2013 के अधिनियम पर अधिसूचना जारी नहीं हुई। यदि 1993 का कानून ईमानदारी से लागू किया गया होता, सार्वजनिक क्षेत्र के अफसर व काॅर्पोरेशन अधिकारी जेल में होते। भारतीय रेल सबसे बड़ी संख्या में मैनुअल स्कैवेंजर्स की नियुक्ति करता है। यहां 36,000 असथायी अल्प-वेतन-भोगी श्रमिक ठेके पर काम करते हैं और रेल की पटरियों से मल हटाते हैं।

28 मार्च 2014 को सर्वोच्च न्यायालय ने हर मृतक सफाई कर्मी के परिवार को 10 लाख अनुग्रह राशि का आदेश किया। साथ में जिलाधिकारियों को इस बात के लिए उत्तरदायी बनाया कि वे 1993 के प्रतिबन्ध को लागू करें और सफाई कर्मियों का पुनर्वास करें। पर राज्य सरकारों ने निर्लज्जता से मैनुअल स्कैवेंजर्स की उपस्थिति को ‘अदृष्य’ बना दिया। मसलन, इस वर्ष के आरंभ में सर्वाेच्च न्यायालय में जो याचिका दायर की गई, उसमें 2015 दिसम्बर में तेलंगाना ने 1,57,321 शुष्क शौचालयों के अस्तित्व को स्वीकारा पर औपसारिक रूप से नहीं माना कि मैनुअल स्कैवेंजर्स कार्यरत हैं।

 हिमाचल प्रदेश ने स्वीकारा कि 854 शुष्क शौचालय हैं, पर मैनुअल स्कैवेंजर्स की संख्या शून्य बताई। यह समस्या केवल पिछड़े इलाकों की नहीं है; भारत का सबसे अधुनिक शहर, चंडीगढ़ ने 4391 शुष्क शौचालय होने की बात स्वीकार की पर केवल 3 मैनुअल स्कैवेंजर्स की उपस्थिति जताई।

डब्लू एच ओ का अध्ययन सफाई कर्मचारियों की विस्तृत परिभाषा इस प्रकार देता है-वे लोग, नियुक्त या अन्यथा, जो सफाई की श्रृंखला में किसी भी पग पर किसी सफाई उपक्रम की सफाई करने, रख-रखाव करने, संचालन करने या खाली करने के लिए जिम्मेदार बनाए गए हैं। इनमें आते हैं-स्वीपर, घरों, मोहल्लों, स्कूलों व सार्वजनिक और निजी कार्यालयों में शौचालय साफ करने वालों के साथ मल निस्तारण करने वाले; सीवर, मैनहोल तथा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट श्रमिक तथा कचरे की ढुलाई करने वाले ट्रान्सपोर्टर भी इस श्रेणी में आते हैं। रिपार्ट ने कई सारे पेशेगत रोगों को चिन्हित किया है, जो अस्वास्थ्यकर कार्य-स्थितियों की वजह से होते हैं और इनके लिए अलग स्वास्थ्य सेवाओं का प्रस्ताव रखा है।

अध्ययन यह भी बताता है कि भारत में सफाई कर्मियों का सबसे बड़ा हिस्सा अनुसूचित जाति से आता है, इसलिए जाति के सामाजिक कलंक के साथ जब पेशेगत अपमान जुड़ जाता है, तो सामाजिक बहिष्कार और पीढ़ी-दर-पीढ़ी होने वाला भेदभाव जारी रहता है। इसलिए, मैनुअल स्कैवेंजिंग का अंत होना चाहिये और मशीनी यंत्रों का प्रयोग सार्वभौम बनाया जाना चाहिये। दिल्ली में 200 मशीनों के साथ शुरुआत हुई है।

सर्वोच्च न्यायालय में इस बाबत याचिका भी दायर की गई है कि मैनुअल स्कैवेंजिंग निरोधक कानून को लागू न करने वाले अफसरों के लिए जुर्माना होना चाहिये। डब्लू एच ओ की यह रिपोर्ट और इस याचिका के माध्यम से सफाई कर्मचारियों की स्थिति में गुणात्मक परिवर्तन लाया जा सकता है। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए सी एन आनन्द, जो पोरु कर्मिकार परिवर्तन संघ, कर्नाटक, के अध्यक्ष हैं और सफाई कर्मचारी आयोग के सदस्य भी, ने कहा कि कितने भी कानून बना लो, जबतक सफाई कर्मचारी मजबूत यूनियन बनाकर निर्णायक लड़ाई में नहीं उतरेंगे, कुछ नहीं होगा।

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