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वायु प्रदूषण पर WHO ने जारी किए नए दिशानिर्देश, कब अलार्म बेल सुनेगा भारत?

जिस हवा की वजह से जीवन है। वह हवा मानव जीवन की तबाही का कारण भी बन रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस तबाही को रोकने के लिए दिशा निर्देश जारी किए हैं।
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तकरीबन 73 खरब के इलेक्टोरल बांड पर चल रही भारत की चुनावी राजनीति को वायु प्रदूषण जैसे मुद्दे पर सोचने की फुर्सत नहीं है। दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे लोगों के पास इतनी जानकारी और समझदारी नहीं है कि वह अपने आसपास की हवा में घुल रहे जहर के खिलाफ सरकार से सवाल-जवाब कर सकें। 

हर 10 मिनट में वायु प्रदूषण की वजह से दुनिया में करीब 13 लोग समय से पहले ही अपनी जिंदगी को अलविदा करके चले जाते हैं। दुनिया में होने वाली मौतों का चौथा सबसे बड़ा कारण वायु प्रदूषण है। भारत में हर साल वायु प्रदूषण के कारण 10 लाख से अधिक मौतें होती हैं।

हमारे आस पास बहने वाली हवा के भीतर नंगी आंखों से ना दिखाई देने वाले छोटे-छोटे टुकड़े तैरते रहते हैं। तैरते हुए जब ये टुकड़े हमारे शरीर के भीतर पहुंचते हैं तो हमारे शरीर को धीरे-धीरे नुकसान पहुंचाने का खेल खेलना शुरू कर देते हैं। जानकारों का कहना है कि शरीर के भीतर पहुंचे ये टुकडें फेफड़े को तो तहस-नहस करते ही हैं साथ ही साथ रक्त नालिकाओ में भी जहर घोलते रहते है। शरीर की क्षमता धीरे धीरे कम होती रहती है लेकिन हमें इसका पता नहीं चलता। वायु प्रदूषण की वजह से जन्म लेते समय बच्चों का औसत वजन घट रहा है। सांस की बहुत सारी बीमारियां जन्म ले रही हैं। दिल से जुड़ी बीमारियां और भूलने वाली अल्जाइमर जैसी बीमारियां बढ़ रही हैं।

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भले ही राजनीति अपना नफा नुकसान देखते हुए वायु प्रदूषण जैसे मुद्दे पर ध्यान ना दे, लेकिन मानवता तो ध्यान देगी ही। वैज्ञानिकों ने वायु प्रदूषण पर ढेर सारा काम किया है। उनकी समझ में समय के साथ बदलाव भी हुआ है। दुनिया भर के सैकड़ों वैज्ञानिकों ने मिलकर दुनिया के कोने-कोने में जाकर बहुत लंबे समय तक हवा की गुणवत्ता का अध्ययन किया। इसी अध्ययन के मुताबिक वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने वैश्विक वायु गुणवत्ता के मानकों को निर्धारित करने के लिए नए दिशानिर्देश जारी किए हैं। इस दिशा निर्देश के तहत पहले से मौजूद प्रदूषकों की सीमा को बेहतर करने के लिए और अधिक कड़ा किया गया है।

इसी तरह का दिशा निर्देश विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा 15 साल पहले यानी साल 2005 में भी जारी किया गया था। पहले के दिशा निर्देश यह थे कि कार, ट्रक, एयरोप्लेन और जंगलों में लगने वाली आग से निकलने वाले पार्टिकुलेट मैटर 2.5 की मौजूदगी हवा में 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर प्रति सलाना से अधिक नहीं होनी चाहिए। इस बार के दिशा निर्देश में इसे घटाकर 5 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर प्रति सलाना कर दिया गया है।

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नाइट्रोजन ऑक्साइड की सीमा भी पहले से कम की गई है। पहले 40 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर प्रति साल की सीमा थी। अब इसे घटाकर 10 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर प्रति साल कर दिया गया है। पेट्रोल, डीजल, कोयला जैसे तमाम तरह के जीवाश्म ईंधनों के जलने से नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है।

इस सीमा को फिर से निर्धारित करते हुए कड़ा क्यों किया गया? इस सवाल का जवाब देते हुए शोधकर्ता कहते हैं कि पार्टिकुलेट मैटर की पहले की सीमा कम करना स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत जरूरी था। सीमा में की गई इस कमी की वजह गर्भवती महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा। जन्म लेने वाले बच्चों का औसत वजन पहले से बढ़ेगा। दिल का दौरा पड़ने, फेफड़े का कैंसर होने और अल्जाइमर जैसी बीमारियां होने की संभावनाएं कम होंगी।

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वर्ल्ड बैंक का अनुमान है कि अगर दुनिया के सभी मुल्क वायु गुणवत्ता से जुड़े इन मानकों को अपनाते हैं तो श्रम उत्पादन की क्षमता में तकरीबन 225 बिलियन डॉलर की बढ़ोतरी हो सकती है और वायु प्रदूषण में कमी की वजह से दुनिया 5 ट्रिलियन डॉलर का खर्चा सलाना बचा सकती है। वायु प्रदूषकों के स्तर को कम करना जलवायु परिवर्तन की लड़ाई में भागीदार बनने की तरह भी है। क्योंकि वातावरण में प्रदूषक तत्वों की ज्यादा मौजूदगी की वजह से ग्रीनहाउस गैसों की मौजूदगी बढ़ जाती है। यह गैस प्रदूषक तत्वों की मौजूदगी की वजह से वातावरण से बाहर नहीं जा पाती। प्रदूषक तत्व इन गैसों को वायुमंडल से बाहर जाने से रोकने के लिए चादर की तरह काम करते हैं। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ती रहती है।

दुनिया के तकरीबन 90 फ़ीसदी लोग ऐसे माहौल में रह रहे हैं जहां पर पार्टिकुलेट मैटर 2.5 की मौजूदगी विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देशों से ज्यादा है। यानी दुनिया के तकरीबन 90 लोग साफ तौर पर वायु प्रदूषण के माहौल में रहने के लिए मजबूर हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि वायु प्रदूषण का सबसे अधिक असर उन लोगों पर पड़ता है जो सबसे कम वायु प्रदूषक तत्वों को वातावरण में छोड़ते हैं। यानी वायु प्रदूषण अमीर देशों और अमीर लोगों की जीवनशैली से सबसे अधिक फैलता है। लेकिन वायु प्रदूषण से सबसे अधिक नुकसान सहने वाला निम्न मध्य और गरीब वर्ग है।

जलवायु के क्षेत्र में अपनी कलम चलाने वाले वरिष्ठ पत्रकार हृदेश जोशी अपनी वेबसाइट कार्बन कॉपी पर लिखते हैं कि भारत ने साल 2019 में नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम की घोषणा की जिसमें यह लक्ष्य रखा गया कि साल 2024 तक 100 से अधिक महानगरों की हवा 20% से 30% तक (2017 के स्तर को आधार मान कर) साफ की जायेगी।  यह लक्ष्य काफी कमज़ोर है क्योंकि भारत के महानगरों में प्रदूषण का स्तर बहुत ख़राब है।

साल 2020 में दुनिया के 100 देशों में PM 2.5 का स्तर देखें तो दिल्ली में यह डब्लूएचओ के अपडेटेड मानकों की तुलना में 16.8 गुना अधिक रहा। इतना ही बदतर भारत के दूसरे महानगरों का भी हाल रहा। डब्लूएचओ पूरी दुनिया के लिये अपने स्टैंडर्ड मानक और गाइडलाइन जारी करता है, हालांकि अलग-अलग देश अपने यहां खुद मानक तय करते हैं। यह मानक स्वैच्छिक हैं लेकिन बिगड़ती हवा के स्वास्थ्य पर बढ़ते कुप्रभावों को देखते हुए  भारत जैसे देशों के लिये यह अलार्म बेल की तरह होने चाहिए।

अब आप ही तय कीजिए कि क्या मौजूदा राजनीति इस तरह के अलार्म बेल को सुनेगी या नहीं?

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