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वादी-ए-शहज़ादी कश्मीर किसकी है : कश्मीर से एक ख़ास मुलाक़ात

कैसा है कश्मीर? किसका है कश्मीर ?  क्या कश्मीर वह है जो फ़िल्मों में दिखाई देने वाली तिलिस्मी ख़ूबसूरती वाला होता है? या फिर किताबों वाला, टीवी डिबेट में सनसनी फैलाने वाला, सरकारी फ़ाइलों वाला या फिर पूरी दुनिया में जिसकी चर्चा होती है वह वाला।
jheel

बेहद सर्द मौसम में टेम्परेचर माइनस की और दौड़ रहा था। होटल के रूम में पहुंचते ही मेरी बहन ने जैसे ही खड़की खोली तो सामने अकबर का क़िला रौशन था। कहते हैं 1585 कि ऐसे ही सर्द दिसबंर में अकबर ने कश्मीर पर चढ़ाई की थी और आज़ाद कश्मीर के आख़िरी मुसलमान शासक यूसुफ़ शाह चक से कश्मीर की बागडोर छीन ली थी। यूसुफ़ शाह और हब्बा ख़ातून के हिज्र की कहानी भी कम चिलचस्प नहीं है लेकिन फ़िलहाल इतना ही कि एक बार जो यूसुफ़ शाह को कश्मीर से दूर किया गया तो फिर उन्हें इस ख़ूबसूरत वादी का दोबारा दीदार नसीब नहीं हुआ।  उन्होंने अपनी आख़िरी सांस बिहार के नालंदा में ली।

सुबह होते ही एक बार फिर मौसम का जायज़ा लेने के लिए कमरे की खिड़की खोली गई।  बाहर हल्की बर्फ़बारी में अकबर का क़िला तो नहीं दिखा लेकिन मेरी नज़र होटल के बगल में श्रीनगर के सबसे बड़े क़ब्रिस्तान पर नज़र पड़ी। उन क़ब्रों पर उम्र दराज़ चिनार के दरख़्तों से जुदा हुए सूखे पत्ते बिछे थे जिन पर हल्की शीन ( बर्फ़ ) गिर रही थी। डाउनटाउन के इस इलाक़े में अपने होटल की खिड़की पर खड़ी मैं कश्मीर के माज़ी को देख रही थी एक तरफ़ द ग्रेट मुग़ल्स की फ़तह की कहानी थी तो दूसरी तरफ़ 90 के दशक से गुज़र कर साल 2022 की दहलीज पर खड़ा कश्मीर था। इन क़ब्रों को देखकर मुझे अरुंधति रॉय की किताब 'आज़ादी' की ये लाइने याद आ गईं। 

''कश्मीर ज़िन्दा लाशों और बोलती हुई क़ब्रों की सरज़मीन, शहर क़ब्रिस्तान, गांव कब्रिस्तान, सामूहिक क़ब्रें, बेनाम क़ब्रें, दोहरी क़ब्रें। कश्मीर एक ऐसी जगह है जिसकी सच्चाई को सिर्फ़ क़िस्सों में ही बयान किया जा सकता है क्योंकि सिर्फ़ क़िस्से ही उस माहौल की बात कर सकते हैं, जो ख़ौफ़ और ग़म से, फ़ख़्र और जुनूनी हौसले से, और बेपनाह बेरहमी के चलते इतने उदास हैं। एक ऐसी आबोहवा में जो कुछ चलता है, उसे सिर्फ़ एक क़िस्सा ही बयान कर सकता है। क्योंकि कश्मीर की दास्तान सिर्फ़ जंग और अज़ाब की, अगवा किए गए चुनावों और इंसानी हुकूक की कहानी नहीं है। यह मोहब्बत और शायरी की कहानी भी है। इसकी इजाज़त नहीं दी जा सकती है कि इसे सिर्फ़ ख़बरें बनाकर छोड़ दिया जाए।'' 
- आज़ादी (अरुंधति रॉय)

कैसा है कश्मीर? किसका है कश्मीर?  क्या कश्मीर वो है जो फ़िल्मों में दिखाई देने वाली तिलिस्मी ख़ूबसूरती वाला होता है? या फिर किताबों वाला , टीवी डिबेट में सनसनी फैलाने वाला, सरकारी फ़ाइलों वाला या फिर पूरी दुनिया में जिसकी चर्चा होती है वो वाला। मुग़ल बादशाह जहांगीर का फिरदौसी जन्नत वाला या फिर अरुंधति रॉय की किताब 'The Ministry of Utmost Happiness'  (अपार ख़ुशी का घराना ) के किरदार तिलोत्तमा, नागा, गार्सन होबार्ट  मूसा और अमरीक सिंह के ईद-गिर्द घूमने वाला। या फिर नॉस्टैल्जिया ( Nostalgia) में जज़्ब वो कश्मीर जिसे आग़ा शाहिद अली कभी अपने दिल से दूर ना कर सके। 90 के दशक में आगा शाहिद अली ने अपने मास्टरपीस 'Country Without a Post Office' में उस दौर को उतार दिया था जिसमें वो कहते हैं : 

I read them, letters of lovers, the mad ones,
and mine to him from whom no answers came.

Another ends: “The skin dissolves in dew
without your touch.” And I want to answer
I want to live forever. What else can I say?
It rains as I write this. Mad heart, be brave.

दर्द में डूबे, मोहब्बत से भरे, अपनी गली, अपने दर-ओ-दीवार की ख़ामोश चीख़ पर पूरी दुनिया की चुप्पी को आगा शाहिद ने अल्फ़ाज़ में पिरो दिया। पूरी दुनिया में उनकी इस टीस ने ख़ूब वाह-वाही बटोरी लेकिन वो आख़िरी वक़्त तक वादी-ए-कश्मीर, अपने गली-मोहल्ले के दोस्तों के पास नहीं लौटे। घर ना लौटने का ग़म क्या होता है ये हर कश्मीरी ( जिसमें कश्मीरी पंडित भी शामिल हैं)  किसी ना किसी रूप में ज़रूर जानता होगा। 90 के दशक में कश्मीर पूरी दुनिया से कैसे कटा था इसका एहसास हम नहीं कर सकते लेकिन  डिजिटल इंडिया ( Digital India ) के दौर में जब 370 हटा तो पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे 70 लाख कश्मीरियों को पूरी तरह से दुनिया से काट दिया गया था। मोबाइल, इंटरनेट सब बंद कर दिया गया था। लाल चौक से गुपकार रोड तक पर पहरे बिठा दिए गए थे। कम या ज़्यादा हम सब कश्मीर के बारे में वैसे ही जानते हैं जैसा हमें बताया जाता है लेकिन एक कश्मीर वो भी जिसे रूबरू मुलाक़ात के बाद ही समझा जा सकता है। और मेरी मुलाक़ात कश्मीर से कुछ यूं हुई। 

फ़्लाइट के लैंड करने से पहले ही बर्फ़ से ढके बादलों में छुपे श्रीनगर को देखकर इस वंडरलैंड की ख़ूबसूरती का एहसास हो गया। श्रीनगर से सीधे पहलगाम की राह पकड़ी, अमरनाथ यात्रा को जाती सड़क से छिटकर एक रोड ऊपर की ओर जाती है जहां एक छोटा सा लेकिन बेहद ख़ूबसूरत गांव है गनेशबल।  इस गांव के मुहाने पर ही मेरा ठिकाना था। कमरे में जाते ही खड़की खोली तो सामने सर्द मौसम में जम जाने की ज़िद्द में बहती लीदर नदी दिख रही थी। प्रोग्राम के मुताबिक़ घूमने का सिलसिला शुरू हुआ और इस दौरान जब मैं कश्मीर वैली और बाइसरन वैली देखने निकली तो यहां के जादुई रास्ते किसी दूसरी ही दुनिया के लग रहे थे।

दूर एक लकीर सी दिख रही थी जहां देवदार के सौ साला बुज़ुर्ग दरख़्त हिमालय का हालचाल पूछते मिल रहे थे। कहां पेड़ों की चोटी ख़त्म हो रही थी और कहां से हिमालय का दामन शुरू हो रहा था तय कर पाना मुश्किल था शायद ये कुदरती इनफ़िनिटी (Infinity) थी । सीधी चढ़ाई के बाद जैसे ही कुछ समतल ज़मीन आई कि अचानक ही हल्की बर्फ़बारी शुरू हो गई। ये कश्मीर वैली थी। गहरे हरे रंग के देवदार के पत्तों पर गिरती शीन ( बर्फ़) और दूर तक पसरी वादी में घोड़ों पर सवार मैं, मेरी छोटी बहन और हमारा गाइड आमिर महज़ तीन लोग।  ऐसा लग रहा था हम किसी क़ाफ़िले से बिछड़ गए हैं और ख़ामोश वादी में सरसराती हवा के झोंकों के साथ धरती की फ़िरदौस (जन्नत) में उतरती शीन में खो गए हैं। ये वो मंज़र था, ये वो तस्वीर थी जिसे कोई कैमरा क्लिक नहीं कर सकता। ये कुदरत की वो कलाकारी थी जिसे आज भी वर्जिन लैंडस्केप कहा जा सकता है।  हिमालय के किसी दर्रे का हिस्सा लग रही ये वादी हल्की बर्फ़बारी में ऑयल पेंटिंग सी लग रही थी। ये ख़ूबसूरत नज़ारे मेरी मेमोरी की उस ड्राइव में जाकर सेव हो गए जो मरते दम तक मेरे ज़हन में रहने वाले थे। 

ढलती शाम कैसे उतरती है और रात कैसे चढ़ती है ये वादियों में लाइव देखा जा सकता है। ख़ूबसूरत दिन ख़त्म हो रहा था और अंधेरे में गिरती बर्फ़ एक स्लेटी रंगत को वादी में घोल गई। अगले दिन हम श्रीनगर के लिए निकले, रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे गांव और गली क्रिकेट खेलते बच्चे किसी स्केच बुक के पन्नों पर उतारे गए किरदार लग रहे थे। खुली किताब से लग रहे कश्मीर को पढ़ने की कोशिश करती मैं पहलगाम से श्रीनगर पहुंची। डल झील के इर्द-गिर्द के शहर का माहौल डाउनटाउन से कुछ अलग लगता है। गुपकार और लाल चौक की हलचल भी अल्हादा है। एक रात मैं डल झील पर तैरते हाउसबोट पर रुकी बेहद सर्द मौसम में रात का नज़ारा देखने के लिए मैं बाहर निकली तो चांदनी रात में ये झील अपनी ख़ूबसूरती पर इतरा रही थी। लेकिन यही ख़ूबसूरती उस वक़्त कुछ सहमी हुई लगती है जब इसके चप्पे-चप्पे पर हाथों में बंदूक़ लिए आर्मी के जवान तैनात  दिखते हैं।  सुरक्षा बलों की मौजूदगी आज़ाद मिजाज़ लोगों को कुछ डरा देते हैं। लेकिन देने वाले इसपर भी कई तर्क देते हैं। 

सुबह होते ही एक बार फिर मैं कश्मीर की गलियों को क़रीब से महसूस करने निकल पड़ी।  राह में कई लकड़ी पर ख़ूबसूरत नक्काशीदार झरोखे और दरवाज़े दिखे जो अपनी ओर खींच रहे थे लेकिन कई घर ऐसे भी दिखे जो खंडहर हो चुके थे वक़्त की गर्द उनके माज़ी की कहानी बयां कर रही थी।  इन घरों में ऐसी कशिश थी कि दो पल को वहां रुक कर उन्हें निहारे बग़ैर आगे बढ़ना नामुमकिन लग रहा था। मेरे भीतर एक खलबली मच गई उन घरों को देखकर। ये ख़ाली घर किनके थे?  मुझे बिल्कुल नहीं पता था इन घरों में रहने वाले कौन लोग थे लेकिन इन्हें देखकर ख़्याल आया क्या ये उन कश्मीरी पंडितों के हैं जो 90 के दशक में घाटी से पलायन कर गए, जाने क्यों एक बंद दरवाज़े को देखकर मुझे राहुल पंडिता की किताब  'Our Moon Has Blood Clots' याद आ गई। किताब की वो लाइन जिसमें राइटर अपने ही घर के दरवाज़ पर खड़े होकर दरवाज़ा खटखटाने की हिम्मत नहीं कर पाता और दरवाज़ा खुलने पर ये नहीं बोल पाता कि ये मेरा घर है। वो लाइनें किसी के भी एहसासों का बखिया उधेड़ सकती हैं। मैं अक्सर ये समझने की कोशिश करती हूं कि आख़िर क्यों अबतक कश्मीरी पंडित अपने घरों को लौट नहीं पाए? आख़िर वो कौन है जो लोगों की मजबूरी को सियासी मलाई बनाकर साल दर साल चाट रहे हैं?  कश्मीर पर किसका हक है इसका जवाब तलाशने में कई पीढ़ियां गुज़र गईं। झेलम से गुज़रते रास्तों के एक तरफ़ मंदिर तो दूसरी तरफ़ मस्जिदों को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि किसी दौर में यहां दोनों ही मज़हब के मानने वालों का क्या नाता था। यहां के माहौल में वो एहसास घुले थे जो उस दौर की यादों को संजोए थे जिसमें मंदिर की घंटियां और मस्जिद की अज़ान घुल कर कश्मीरियत बनाती थीं। 

वक़्त के सितम ने कश्मीर को जिस राह पर लाकर खड़ा किया है वो जाने क्यों मुझे बिमल रॉय की फ़िल्म 'देवदास' की याद दिला देती है फ़िल्म में जिस तरह ख़ूबसूरत पारो की ख़ूबसूरती पर दाग लगाने के लिए देवदास ने उसके माथे पर एक घाव दे दिया था वैसे ही वादी-ए-शहज़ादी कश्मीर की ख़ूबसूरती पर भी सियासत ने ऐसा घाव दिया है जो सदियों और पीढ़ियों के गुज़र जाने के बाद भी भरने का नाम नहीं लेता।

(जारी...)

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