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क्यों सरकार को प्रस्तावित चलचित्र (संशोधन) अधिनियम, 2021 वापस लेना चाहिए?

संशोधन विधेयक के मसौदे में जिन बदलावों का प्रस्ताव दिया गया है, उनसे ना तो नियमक अनुपालन सरल हो रहे हैं और ना ही फ़िल्म निर्माण के ज़रिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सशक्त किया जा रहा है।
क्यों सरकार को प्रस्तावित चलचित्र (संशोधन) अधिनियम, 2021 वापस लेना चाहिए?

सिनेमेटोग्राफ़ी एक्ट में प्रस्तावित बदलावों का विश्लेषण करते हुए सिद्धार्थ चतुर्वेदी बता रहे हैं कि कैसे इससे केंद्र सरकार की फिल्म सेंसरशिप की ताकत बढ़ जाएगी और इसका विरोध होना चाहिए। 

18 जून को केंद्र सरकार ने मौजूदा सिनेमेटोग्राफ़ी एक्ट, 1952 में नए संशोधनों का प्रस्ताव सार्वजनिक किया है। सरकार ने संशोधन के प्रस्ताव को 2 जुलाई तक जनता की टिप्पणियों के लिए खुला रखा है। लेकिन इस प्रस्ताव में कई ऐसे संशोधन हैं, जिन्हें आपत्तिजनक माना जा रहा है। आखिर यह प्रस्तावित संशोधन कौन से हैं और कैसे यह फिल्म इंडस्ट्री के काम करने के तरीके को प्रभावित करेंगे?

फ़िल्मों के प्रमाणीकरण का मौजूदा तंत्र

अगर फिल्में जरूरी नियमों पर सही बैठती हैं, तो "केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन-CBFC)" फिल्मों को सिनेमेटोग्राफ़ी एक्ट की धारा 5A के तहत प्रमाणपत्र जारी करता है। धारा 5B के मुताबिक़, CBFC "भारत की अखंडता और संप्रभुता, सुरक्षा, दूसरे देशों से दोस्ताना संबंधों, कानून-व्यवस्था, नैतिकता के खिलाफ़ जाने, कोर्ट की अवमानना करने या किसी अपराध को उकसाने की स्थिति में किसी फिल्म को खारिज कर सकती है।" यह प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(2) से लिया गया है, जो नागरिकों की वाक एवम् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगाता है। 

धारा 5B केंद्र सरकार को यह अधिकार भी देती है कि सरकार "संबंधित प्रशासन को ऐसे दिशा-निर्देश जारी करे, जिनके ज़रिए किसी फिल्म को सार्वजनिक प्रदर्शन का प्रमाणपत्र दिया जाए।" CBFC को दिशा-निर्देशों के रूप में दिए गए यह सिद्धांत युक्ति युक्त प्रतिबंधों के परे जाते हैं।

उदाहरण के लिए निर्देश-2 कहता है कि CBFC को दूसरी चीजों के साथ यह तय करना चाहिए कि "समाज विरोधी गतिविधियां, जैसे हिंसा, का महिमामंडन नहीं किया जाए", "अश्लीलता, बेहूदापन या अनैतिकता के ज़रिए मानवीय संवेदनशीलता को ठेस नहीं पहुंचे", "गलत मतलब निकाले जाने वाले द्विअर्थी शब्दों को अनुमति ना दी जाए।" कुल-मिलाकर निर्देश-2 में 19 चीजों का उल्लेख है, इनमें से ज़्यादातर सटीक के बजाए, खुले शब्दों में बताई गई हैं। ऐसे में इनकी प्रवृत्ति व्याख्या पर बहुत निर्भर हो जाती है। 

संशोधन विधेयक का प्रस्ताव क्या करने की मंशा रखता है?

यह प्रस्ताव सरकार को ताकत देता है कि वह किसी फिल्म पर पुनर्विचार का आदेश दे सके, भले ही फिल्म को CBFC से प्रमाणपत्र मिल चुका हो। 

बता दें 'भारत संघ बनाम् के एम शंकरप्पा (2001)' केस में CBFC से अनुमति मिलने के बाद सरकार द्वारा फिल्म पर पुनर्विचार के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। केंद्र सरकार को यह ताकत देने की मंशा रखने वाले इस संशोधन के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को पलटने की कोशिश है। 

पहले ही सरकार सिनेमेटोग्राफ़ी एक्ट के मौजूदा प्रावधानों का कठोर इस्तमेला करती रही है। जैसे, इस कानून की धारा 5E के ज़रिए सरकार के पास फिल्मों के प्रमाणपत्र को खारिज करने की ताकत है। इस तरह का आदेश धारा 5F के तहत परीक्षण के लिए खुला होता है। 

बता दें सरकार पहले ही "न्यायाधिकरण सुधार अध्यादेश, 2021" के ज़रिए "फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण" को खत्म कर चुकी है। इस अध्यादेश के बाद, अब CBFC के फ़ैसले से नाखुश फिल्मकारों के पास सिर्फ़ हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने का विकल्प बचता है। 

प्रस्तावित संशोधन विधेयक में एक और बड़ा बदलाव फिल्मों की पायरेसी पर सजा का प्रावधान है।

इसमें कोई संशय नहीं है कि भारत में बहुत बड़े स्तर पर फिल्मों की पायरेसी होती है और विधेयक में सही तरीके से इस मुद्दे को पहचाना गया है। कानून में प्रावधान किया गया है कि पायरेसी करने पर भारी जुर्माने के साथ तीन महीने की सजा दी जा सकेगी, जिसे बढ़ाकर तीन साल तक किया जा सकता है। भारत में कोरोना के बाद पायरेसी के मामलों में 60 फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ है। ऐसे में यह कल्पना करना मुश्किल लगता है कि पहले ही बहुत दबाव का सामना करने वाली हमारी कानूनी एजेंसियां इस प्रावधान का पालन करवा सकेंगी। 

भारत में उच्च न्यायपालिका ने हमेशा कलात्मक स्वतंत्रता का समर्थन किया है

सुप्रीम कोर्ट और कुछ हाईकोर्ट के पिछले फ़ैसलों में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वृहद पृष्ठभूमि में कलात्मक स्वतंत्रता पर मुहर लगाई जाती रही है। एस रंगराजन बनाम् पी जगजीवन राम, 1989, SCR (2) 204 केस में टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "फिल्में किसी आम मुद्दे को उठाने वाली सबसे वैध और अहम माध्यम होती हैं।" कोर्ट ने आगे कहा, "राज्य आजाद विमर्श और अभिव्यक्ति को नहीं रोक सकता, भले ही यह उसकी नीतियों के कितने ही खिलाफ़ हों।"

इन वक्तव्यों को याद रखना जरूरी है, क्योंकि अगर प्रस्तावित विधेयक कानून बन जाता है, तो इससे फिल्मों को सेंसर करने और इस मुद्दे पर मौजूदा कानूनी स्थिति को बदलने के लिए केंद्र सरकार के पास अकूत ताकत हो जाएगी। 

फिल्म इंडस्ट्री के लिए बेहद जरूरी सुधारों में कलात्मक स्वतंत्रता की रक्षा और नियामक अनुपालन को कम करना शामिल है। प्रस्तावित संशोधन विधेयक में ना तो अनुपालनों को आसान किया जा रहा है और ना ही फिल्मों के ज़रिए वाक एवम् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सशक्त करने का काम किया जा रहा है।

अब जब सूचना एवम् प्रसारण मंत्रालय के पास इस विधेयक पर अपनी टिप्पणियां भेजने की अंतिम तारीख़ बहुत करीब आ चुकी है, तब यह अहम हो जाता है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोग सरकार को प्रस्तावित बदलावों से पैदा होने वाली दिक्कतों के बारे में सूचित करें, ताकि सरकार अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार कर सके। 

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित किया गया था।

सिद्धार्थ चतुर्वेदी धर्मशास्त्र नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, जबलपुर में क़ानून के छात्र हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Why Government Must Take Back the Draft Cinematograph (Amendment) Bill, 2021

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