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क्यों आईओयू असम विधानसभा चुनावों में अहम भूमिका निभा सकता है

विपक्षी मतों में विभाजन से प्रभुत्वशाली या अग्रणी पार्टी को सीटों को जीतने के मामले में ग़लत फ़ायदा मिलता है। क्योंकि मत विभाजन की वजह से प्रभुत्वशाली पार्टी कम अंतर से ज़्यादा सीटें जीतने में कामयाब रहती है।
क्यों आईओयू असम विधानसभा चुनावों में अहम भूमिका निभा सकता है

असम चुनाव में अंतिम चरण के मतदान में सिर्फ़ एक ही दिन बचा है। अब तक ज़्यादातर ध्यान ईवीएम विवाद और स्वास्थ्य मंत्री हेमंत बिस्वा सरमा पर चुनाव आयोग द्वारा लगाए गए 48 घंटे के प्रतिबंध (जिसे बाद में 24 घंटे का कर दिया गया) पर केंद्रित रहा है। लेकिन इसके बाद सरमा ने एक चौंकाने वाला वक्तव्य दिया, जिस पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया और ना ही मीडिया में बहुत रिपोर्ट छपीं।

1 अप्रैल को एक क्षेत्रीय चैनल के साथ इंटरव्यू में सरमा ने कहा कि बीजेपी ने "असम जातीय परिषद (AJP)" और रैजोर दल जैसे क्षेत्रीय दलों के गठन को प्रोत्साहन दिया, ताकि नागरिकता संशोधन कानून (CAA) विरोधी मतों को विभाजित किया जा सके। 

स्थानीय चैनलों ने सरमा के हवाले से कहा, "हमने AJP के गठन को प्रोत्साहन दिया और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को उनकी बैठकों में जाने की छूट दी। ताकि उन्हें लगे कि उनके साथ लोग हैं। चाहे AJP, रैजोर दल या फिर कोई दूसरी पार्टी हो, उनका गठन बीजेपी की रणनीति के हिसाब से हुआ है। हालांकि CAA बहुत बड़ा कारक नहीं है, लेकिन नई क्षेत्रीय पार्टियों के गठन के पीछे इसका 'विरोध करने वाले मतों को कांग्रेस और नए क्षेत्रीय दलों में विभाजित' करने का विचार था।"

विपक्षी एकता का सूचकांक और असम की बिल्कुल अलग स्थिति

हालांकि भारत ने "फर्स्ट पास्ट द पोस्ट" व्यवस्था को ब्रिटेन से हासिल किया, लेकिन हमारे यहां के चुनाव ब्रिटेन में दो पार्टियों के चुनाव से बहुत अलग हैं। ऐतिहासिक तौर पर भारत में हमेशा एक प्रभुत्वशाली पार्टी और विपक्ष में कई सारी पार्टियां रही हैं। इस तरह बंटे हुए विपक्ष से हमेशा प्रभुत्वशाली पार्टी या सत्ताधारी पार्टी को मदद मिलती रही है। जैसे भारतीय लोकतंत्र के शुरुआती दिनों में कांग्रेस और हालिया दिनों में बीजेपी को यह फायदा मिलता रहा है।

विपक्ष के मतों में यह बंटवारा प्रभुत्वशाली या अग्रणी राजनीतिक पार्टी, जो पिछले चुनावों में ज़्यादा सीटें जीती थी, उसे गलत तरीके से फायदा पहुंचाता है। क्योंकि यह सबसे बड़ी पार्टी छोटे-छोटे मतों से बड़ी संख्या में सीट जीतने में कामयाब हो जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो मत हिस्सेदारी में अगर थोड़ा सा बदलाव भी होता है, तो उससे बड़ा बहुमत हासिल हो जाता है।

प्रणय रॉय और अशोक कुमार लाहिड़ी ने 1980 में एक "विपक्षी एकता सूचकांक (इंडेक्स ऑफ अपोजिशन पार्टीज़- IOU) बनाया था। इसका उद्देश्य विपक्षी पार्टियों में एकता और फूट का अध्ययन, फिर इस एकता या फूट से उपजने वाले नतीज़ों का अध्ययन करना था। 

यहां ग़ौर करना होगा कि IOU एक समीकरण नहीं, बल्कि परिभाषा है। 0 से 100 के बीच रहने वाला IOU होता है:

         सबसे बड़ी पार्टी का वोट (प्रतिशत में)

IOU = ----------------------------------------------------- x 100

         सभी विपक्षी पार्टियों का कुल वोट (प्रतिशत में)

IOU सिर्फ़ सत्ताधारी पार्टी के लिए नहीं, बल्कि राज्य या क्षेत्र में जो भी प्रभुत्वशाली पार्टी होती है, उसके लिए काम करता है। जैसा पहले बताया, IOU, 0-100 के बीच हो सकता है। अगर संख्या 100 आती है, तो इसका मतलब है कि राजनीतिक परिदृश्य में सिर्फ़ एक ही विपक्षी पार्टी है, मतलब यहां दो-पार्टी की व्यवस्था है। IOU की संख्या जैसे-जैसे गिरती जाती है, उससे विपक्ष के बंटने का पता चलता है।

1952 से 1977 के बीच औसत IOU (बड़े और मध्यम आकार के 78 विधानसभा चुनावों के विश्लेषण के आधार पर) 69 था। हाल में, 2002 से 2019 के बीच भारत के चुनावों को प्रणय रॉय और दोराब सोपारीवाला ने अपनी किताब "द वर्डिक्ट: डिकोडिंग इंडियाज़ इलेक्शन" में "फिफ्टी-फिफ्टी फेज़" कहा है। इस दौरान औसत IOU गिरकर 64 पहुंच गया। 

लेकिन असम पूरी तरह से अलग था। यहां 2002 से 2019 के बीच औसत IOU 37 रहा, जो राष्ट्रीय औसत 64 के बहुत नीचे था। 

सूची 'A'- साल दर साल गिरता IOU और पूरी तरह अलग असम

IOU कैसे अहमियत रखता है? क्या कम या ज़्यादा IOU चुनावी नतीज़ों पर असर डालता है? असम में बेहद कम IOU का विपक्षी पार्टियों के लिए क्या नतीज़ा रहा है?

भारत में लागू 'फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम' में कम IOU होने की वज़ह से बहुत सारे ऐसे प्रत्याशी भी चुनाव जीते हैं, जिन्हें 30 फ़ीसदी या 25 फ़ीसदी से भी कम मत हासिल हुए थे। राज्य में चुनाव जीतने के लिए औसत मतों में साल-दर-साल तीखी गिरावट दर्ज की गई। 1952 से 1978 के बीच बड़े और मध्यम राज्यों में हुए 78 विधानसभा चुनावों में किसी जीतने वाली पार्टी या गठबंधन को औसतन 44 फ़ीसदी वोट हासिल हुए। इसका मतलब हुआ कि एक चुनाव जीतने के लिए किसी पार्टी या गठबंधन को औसतन 44 फ़ीसदी वोट हासिल करने पड़ते थे। लेकिन आज यह आंकड़ा गिरकर 40 फ़ीसदी पर आ गया है। इस तरह कहा जा सकता है कि अब विधानसभा चुनाव जीतने के लिए कम मतों की जरूरत होती है।

सूची 'B' वक़्त के साथ राज्य विधानसभा चुनाव जीतने के लिए जरूरी मतों में गिरावट आई है।

साधारण शब्दों में कहें तो जीतने के लिए जरूरी औसत मतों का संबंध, सीधे विपक्षी एकता या फूट को दर्शाने वाले IOU से है।

IOU में गिरावट से भारतीय राजनीति में एक दूसरा बड़ा बदलाव भी आया है। भारतीय लोकतंत्र के शुरुआती दिनों में चुनाव 50 फ़ीसदी मत (लोकप्रिय बहुमत) हासिल कर जीते जाते थे। लेकिन अब सीट जीतने के लिए मतों को हासिल करने के बजाए विपक्ष को बांटा जाता है।

1952 से 1977 के बीच, कम IOU होने की वज़ह से 36 फ़ीसदी सीटों पर जीत दर्ज की गई, मतलब इन सीटों पर विपक्ष ज़्यादा विभाजित था। जबकि 64 सीटों पर लोकप्रिय बहुमत (50 फ़ीसदी) हासिल कर जीत दर्ज की गई। 

लेकिन अब स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। अब ज़्यादातर सीटें (55 फ़ीसदी), लोकप्रिय बहुमत हासिल करने के बजाए, विपक्ष को बांटकर, मतलब कम IOU की वज़ह से जीती जा रही हैं। 

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि असम जैसे राज्य में जहां 2002 से 2019 के बीच बहुत कम IOU रहा, वह इस मामले में भी बहुत अलग दिखाई देता है।

2002 से 2019 के बीच असम में तीन बार- 2006, 2011 और 2016 में विधानसभा चुनाव हुए। इन चुनावों में 71 फ़ीसदी सीटें कम IOU के चलते जीती गईं। जबकि इस दौरान राष्ट्रीय औसत 45 फ़ीसदी था। इन तीन विधानसभा चुनावों में सिर्फ़ 29 फ़ीसदी सीटों पर ही प्रत्याशियों को 50 फ़ीसदी से ज़्यादा वोट हासिल हुए। 

सूची 'C' "उच्च लोकप्रिय बहुमत" बनाम "कम IOU से होने वाली जीत, मतलब विपक्ष को विभाजित कर मिलने वाली जीत" के बीच तुलना

IOU में आती गिरावट, फिर कम IOU की वज़ह से हासिल होने वाली सीटों की बढ़ती संख्या का मतलब यह हुआ कि चुनाव जीतने का मंत्र "फूट डालो और राज करो" है। कम IOU वाले असम में, कड़ी टक्कर वाली सीटों पर विपक्ष का बंटवारा और भी अहम हो जाता है।

कांग्रेस को इस बार असम में बीजेपी के खिलाफ़ बेहतर IOU की अहमियत समझ आई है। क्योंकि असम ऐसा राज्य है जहां IOU के अलग-अलग स्तर के चलते चुनाव जीते और हारे जाते हैं। इसलिए कांग्रेस को समझ में आया कि सर्बानंद सोनोवाल की सरकार को हराने के लिए सभी या ज़्यादातर विपक्षी ताकतों को एक करना होगा। महाजोथ गठबंधन में कांग्रेस, AIUDF, CPI, CPM, BPF, AGM और RJD शामिल हैं, यह एक बुद्धिमानी भरा कदम है।

लेकिन अगर कोई सरमा के शब्दों पर भरोसा करे, तो बीजेपी ने इस गठबंधन की काट का रास्ता 'AJP-रैजोर दल के क्षेत्रीय फ्रंट के गठन' को प्रोत्साहन देकर निकाला है। ऐसा कर विपक्ष को बांटने की कोशिश की गई है। कांग्रेस ने नए क्षेत्रीय दलों को अपनी तरफ मिलाने की कुछ कोशिशें कीं, लेकिन यह सफल नहीं हो पाईं। 

AJP-रैजोर गठबंधन के चुनाव लड़ने से महाजोथ को नुकसान होने की पूरी संभावना है। AJP-रैजोर दल के इकट्ठा होने से IOU नीचे जाएगा, क्योंकि इससे कांग्रेस और AIUDF के CAA विरोधी वोटों का बंटवारा होगा। अल्पसंख्यकों के वोटों के इस बंटवारे का अंदाजा लगाते हुए AIUDF ने नए दलों पर निशाना साधा और उनपर बीजेपी की मदद करने का आरोप लगाया।

परंपरागत बुद्धिमत्ता कहती है कि एक कड़े चुनाव में AJP-रैजोर दल का साझा फ्रंट BJP की मदद करेगा। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि इस कदम के उल्टे नतीज़े भी हो सकते हैं और NDA, खासकर AGP को नुकसान होने की संभवना भी बन सकती है।

AJP-रैजोर गठबंधन को ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (AASU) और असम जातियताबड़ी युबा छात्र परिषद (AJYCP) का समर्थन प्राप्त है, जिसने 1979 से 1985 के बीच गैर-असमी लोगों के खिलाफ़ हुए प्रदर्शन के साथ-साथ AGP के गठन में अहम भूमिका निभाई थी। तो कहा जा सकता है कि AJP-रैजोर गठबंधन, AGP के आधार में सेंध लगाकर NDA की उम्मीदों को भी झटका लगा सकता है।

लेखक मुंबई आधारित एक फ्रीलांसर हैं। वे मुंबई के सेंट ज़ेवियर कॉलेज के पूर्व छात्र हैं। उनकी दिलचस्पी राजनीति, चुनाव विज्ञान और पत्रकारिता से लेकर क्षेत्रीय सिनेमा में है। वे @Omkarismunlimit हैंडल से ट्विटर पर सक्रिय हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Why IOU May be the X-factor in Assam Assembly Polls

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