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जून में 1.3 करोड़ नौकरियां क्यों चली गईं?

अधिकांश नौकरियां कृषि में गईं हैं, लेकिन साथ ही 25 लाख वेतनभोगी लोगों की नौकरियां भी चली गईं हैं।
Unemployment

नवीनतम सीएमआईई अनुमानों के अनुसार, मानसून में देरी, सुस्त अर्थव्यवस्था और नौकरियों के मोर्चे पर सरकार की निरंतर निष्क्रियता के कारण उठे तूफान से इस साल जून में देश में नियोजित व्यक्तियों की कुल संख्या में 1.3 करोड़ की आश्चर्यजनक गिरावट आई है। मई में, कार्यरत व्यक्तियों की संख्या 40.4 करोड़ थी जो जून के अंत तक घटकर मात्र 39.1 करोड़ रह गई थी। जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट से पता चलता है कि पिछले एक साल से रोजगार की संख्या 40 करोड़ के आसपास मंडरा रही है, लेकिन पिछले महीने औंधे मुंह गिरने से भारत की कामकाजी आबादी की अत्यधिक भेद्यता को उजागर कर दिया है।

39 करोड़ के रोजगार स्तर का मतलब है कि भारत में कामकाजी उम्र की आबादी का केवल 36 प्रतिशत ही वास्तव में कार्यरत है। यह तथ्य भारत के मामले में 'जनसांख्यिकीय लाभांश' – यानी एक युवा कामकाजी आबादी - के लाभों की बुलंद तस्वीर को चीर कर रख देता है और भारतीय लोगों की विकट और संकटपूर्ण स्थिति को दर्शाता है।

रोजगार के अन्य उपायों में गिरावट आई है। श्रम भागीदारी दर (एलपीआर) - काम करने वाले या काम के इच्छुक और काम चाहने वाले लोगों की हिस्सेदारी - भी मई में 39.91 प्रतिशत से घटकर जून में 38.3 प्रतिशर हो गई है। अप्रैल-मई 2020 में पहले लॉकडाउन के बाद से यह सबसे कम एलपीआर है। कम एलपीआर का मतलब है कि निराश और हताश लोगों ने पूरी तरह से श्रम बल को छोड़ दिया है और घर बैठ गए हैं, शायद वे रोजगार फिर से उपलब्ध होने तक का इंतजार करना पसंद कर रहे हैं।

नौकरी की स्थिति को जानने का एक अन्य उपाय बेरोजगारी दर है, जो सक्रिय रूप से काम की तलाश में आबादी के हिस्से को मापता है। यह जून में बढ़कर 7.8 फीसदी हो गई, जो मई में 7.1 फीसदी थी। बेरोजगारी दर पिछले कई महीनों से लगभग 7-8 प्रतिशत के आसपास मँडरा रही है, जो आम तौर पर देश में बेरोजगारी की पुरानी स्थिति का संकेत देती है।

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तत्काल कारण

इस साल जून में मानसून की देरी से शुरुआत मुख्य रूप से कम रोजगार और कम श्रम भागीदारी दर के लिए जिम्मेदार है। आमतौर पर खरीफ फसलों, मुख्य रूप से धान की बुवाई जून में मानसून की बारिश के आगमन के साथ शुरू होती है। महिलाओं सहित लाखों खेतिहर मजदूरों के मामले में यह एक श्रम प्रधान काम है, जो बारिश के साथ धान की रोपाई करने के लिए खेतों में निकलते हैं। हालांकि, इस साल महत्वपूर्ण मानसूनी बारिश में देरी हुई और जून के अंतिम सप्ताह तक ही सार्थक तरीके से बारिश शुरू हो पाई। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) ने जून के मध्य में वर्षा में 32 प्रतिशत से अधिक की कमी का अनुमान लगाया है।

इसका मतलब यह हुआ कि इस महीने के अधिकांश समय में खेतिहर मजदूरों की सेना, जिसे घर में रहने पर मजबूर किया गया, जिससे बेरोजगारी में तेज वृद्धि हुई, एलपीआर में गिरावट आई और रोजगारों की संख्या में गिरावट आई। खेतिहर मजदूर और छोटे/सीमांत किसान भारतीय समाज के सबसे कमजोर वर्ग हैं और जो सबसे अधिक संख्या में हैं। इन वर्गों में बड़े पैमाने पर बेरोजगारी न केवल इन सबसे गरीब परिवारों में भारी संकट का कारण बनेगी, बल्कि इसका मतलब यह भी है कि आबादी के एक बड़े हिस्से के पास पैसा नहीं है। यह सुस्त मांग को और कम करेगा और इस प्रकार अर्थव्यवस्था को सता रही आर्थिक गतिविधि के निम्न स्तर को बनाए रखेगा।

यह संभावना है कि जून के अंत तक देश के अधिकांश हिस्सों में पूर्ण मानसून के आगमन के साथ, बेरोजगारी कुछ हद तक कम हो जाएगी। लेकिन घटनाओं की यह श्रृंखला जो उजागर करती है, वह यह है कि मानसून पर भारत की अत्यधिक निर्भरता और इससे होने वाली सभी भेद्यताएं हैं जो स्थिति को गंभीर बना रही है। यहां तक कि देरी से शुरू होने का मतलब लाखों परिवारों पर जबरदस्त और बड़े पैमाने पर प्रभाव पड़ सकता है। यह एक बढ़ती अर्थव्यवस्था का संकेत नहीं है और निश्चित रूप से एक महत्वाकांक्षी आर्थिक महाशक्ति की विशेषता भी नहीं है।

नौकरियों का पुराना संकट

सीएमआईई का अनुमान है कि जून में नौकरी के भारी नुकसान में 25 लाख वेतनभोगी नौकरियों का नुकसान भी शामिल है। मानसून की देरी से शुरू होने से इसका कोई खास लेना-देना नहीं है। यह भारत के आर्थिक संकट का पुराना या स्थायी पहलू है। औद्योगिक क्षेत्र अभी भी बहुत धीमी गति से बढ़ रहा है या बस स्थिर हो रहा है, नौकरियों के सबसे बड़े संभावित स्रोत ने विस्थापित किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए अपने दरवाजे व्यावहारिक रूप से बंद कर दिए हैं। और, मांग में ठहराव के साथ, उद्योग के पास उत्पादक क्षमता बढ़ाने और इस प्रकार कार्यबल के नए सदस्यों को रोजगार देने की कोई संभावना नहीं है।

दरअसल, मोदी सरकार नौकरियों के संकट को बढ़ाने वाली नीतियां अपना रही है। यह श्रम संहिताओं को लागू करने की कोशिश कर रही है जो नौकरीशुदा श्रमिकों को आसानी से नौकरी से निकालने के साथ ठेकेदारी के काम को बढ़ावा देगी, जिससे रोजगार की अस्थिरता बढ़ जाएगी। यह नौकरी से संबंधित विभिन्न योजनाओं के लिए धन की कमी को भी दिखाता है जो बेरोजगार लोगों को कुछ राहत प्रदान करते हैं। इसने अग्निपथ योजना के माध्यम से आंशिक संविदाकरण की घोषणा करके सशस्त्र बलों में सुरक्षित रोजगार की संभावनाओं को कम कर दिया है। स्टार्टअप्स और गिग वर्कर्स जैसी तथाकथित 'नई अर्थव्यवस्था' नौकरियों पर इसकी निर्भरता हाल के दिनों में बड़े पैमाने पर जॉब खोने के साथ कम होती जा रही है। जनता की भावना को शांत करने के लिए, इसने घोषणा की है कि 10 लाख सरकारी रिक्तियों को तौर-तरीकों के माध्यम से भरा जाएगा, इसकी घोषणा नहीं की गई है, और सभी संभावनाओं में, इन नौकरियों को भी कम वेतनमान पर आउटसोर्स किया जाएगा। 

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इस प्रकार आने वाले महीनों में रोजगार के स्तर में किसी भी बड़े उछाल की संभावनाएं धूमिल नज़र आती हैं, और एक ठहराव वाली अर्थव्यवस्था के साथ जो एक महंगाई/मुद्रास्फीति की लगातार मार की चपेट में है, लोगों के संकट बढ़ने की बहुत ही संभावना है। 

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

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