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अमित शाह के बीमार होने की कामना से हर किसी को सावधान क्यों रहना चाहिए

अगर हिंदुत्व के विरोधी वही हो जाते हैं,जिनसे वे नफ़रत करते हैं, तो भारत ऐसा गणतंत्र बनकर रह जायेगा,जहां कोई उम्मीद नहीं बचेगी।
अमित शाह
फ़ोटो साभार: द हिंदू

हिंदुत्व समर्थकों और उनके विरोधियों के बीच की खाई को देखते हुए इस बात को लेकर कोई हैरत नहीं कि कोविड-19 बीमारी के इलाज के लिए लंबे समय से अस्पताल में भर्ती गृह मंत्री अमित शाह को लेकर पूरा देश दो भागों में बंटा हुआ है, पिछले हफ़्ते उन्हें अस्पताल से छुट्टी दे दी गयी। लेकिन, हैरानी की बात यह है कि इस मामले में हिंदुत्व के विरोधी भी वही बनते हुए दिख रहे हैं, जिनसे वे नफ़रत करते हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर लगातार इस बात को लेकर नज़र बनाये रखी है कि क्या शाह की तबीयत ख़राब हुई है या नहीं, ट्वीट से साफ़-साफ़ है कि कुछ लोग दिल्ली के एक अस्पताल से "अच्छी ख़बर" की उम्मीद कर रहे थे, वहीं कुछ लोग यह भी उम्मीद कर रहे थे कि वह अपनी बीमारी से उबर ही नहीं पायेंगे।

किसी शख़्स के बीमार होने या उसकी मौत का जश्न मनाना हिंदुत्व के ट्रोल के निर्णायक लक्षणों में से एक है। सितंबर, 2017 में जब पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी, तो निखिल दधीचि ने हिंदी में ट्वीट किया था, "एक कुतिया कुत्ते की मौत मर गयी।" उसने लंकेश की हत्या से मर्माहत होने वाले लोगों का मज़ाक उड़ाया था। दधीचि को फ़ॉलो करने वालों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं।

दधीचि ने जिस तरह का ट्वीट किया था, उसे निशाने पर लेते हुए केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने गौरी लंकेश की नृशंस हत्या को लेकर "सोशल मीडिया पर ख़ुशी जताने वाले संदेश की कड़ी निंदा” की थी। इस पर पलटवार करते हुए ऑल इंडिया रेडियो का एक पूर्व प्रस्तोता ने टिप्पणी की थी, “मीडिया, धर्मनिरपेक्ष और उदारवादी ग़ुंडों को नमन? हम आपके लिए अथक, नि: स्वार्थ भाव से काम करते हैं। यह इनाम है।” मोदी इस ट्वीटर हैंडल को भी फ़ॉलो करते हैं।

मई 2019 में हिंदुत्व की सत्ता में वापसी के बाद भी उसके समर्थकों ने अपने तौर-तरीक़ों में कोई बदलाव नहीं किया है। उन्होंने पत्रकार राना अय्यूब के कोविड-19 के परीक्षण में पॉज़िटिव  पाये जाने का जश्न मनाया। सुंदांदा रॉय ने ट्वीट किया, "बिग ब्रेकिंग: राना अय्यूब नहीं रही।" राना अय्यूब ने भी हमेशा की तरह पलटवार करते हुए लिखा, "आपको निराश करने के लिए माफ़ी चाहती हूं।"

हिंदुत्व समर्थकों ने आरोप लगाया कि वह अपनी कोविड-19 रिपोर्ट को लेकर भी बुद्धु बना रही थी। @ divya_16 में दावा किया गया, "अगर @RanaAyyub कोविड के पॉज़िटिव  होने को लेकर इतना झूठ बोल सकती है, तो कल्पना कीजिए कि वह 2002 से कितने झूठ बोली होगी।" इसके जवाब में अय्यूब ने लिखा, "इस ट्विटर हैंडल को भारत के प्रधानमंत्री द्वारा फ़ॉलो किया जाता है, मैं अपने मामले को यहीं विराम देती हूं।"

ग़ैर-क़ानूनी उपाय

नफ़रत के इस वायरस ने अब हिंदुत्व के उन विरोधियों को भी संक्रमित कर दिया है, जिनका दावा होता है कि अपने प्रतिद्वंद्वियों के उलट वे लोकतंत्र, बहस और असहमति में यक़ीन करते हैं। इन्होंने हमेशा ही लिंचिंग जैसे हिंदुत्व समर्थकों की हिंसक रणनीति और उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली तीखी भाषा की आलोचना की है। इसके बावजूद, सप्ताह भर से अस्पताल में रह रहे शाह को लेकर उनकी जिस तरह की प्रतिक्रियायें आयी हैं,उनसे इनके ख़ुद में आये बदलाव सामने आता है। सिर्फ़ अपने कार्यों में ही नहीं, बल्कि अपनी कल्पना और जिस ज़बान में वे काम करते हैं, उस लिहाज़ से भी धीरे-धीरे ये हिंदुत्व के विरोधी भी हिंदुत्ववादियों की तरह ही बनते जा रहे हैं।

किसी के मरने की कामना करने वाले लोग उस हक़ीक़त से अपने मोहभंग का संकेत देते हैं, जिनके बारे में उन्हें लगता है कि वे उन्हें नहीं बदल सकते। समकालीन भारत के सिलसिले में जो लोग शाह के मरने की कामना करते हैं, वे अनजाने में उस हिंदुत्व से नहीं जीत पाने की असमर्थता की अपने ख़ुद की लाचारी को ज़ाहिर कर रहे हैं, जिसका शाह एक लोकप्रिय चेहरा हैं। ये जीत के लिए अधीर हुए जा रहे हैं, इससे अबतक की गयी उनकी कोशिश की निरर्थकता भी सामने आ जाती है।

इस निरर्थकता का उनका बोध उनकी इस धारणा के चलते पैदा होता है कि हर समय उन्हें नाकाम करने, कमज़ोर करने, बेबस हालात में डालने के लिए हमेशा नाजायज़ क़दम का सहारा लिया जाता है। यह धारणा भीमा कोरेगांव मामले में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी को लेकर सोचे-समझे आरोपों में फ़ंसाना या दिल्ली दंगों में प्रेरित जांच जैसे उन उदाहरणों से बनती है, जिनके ज़रिये उन लोगों का उत्पीड़न सामने आया है, जिन्होंने सरकार की नागरिकता नीति के ख़िलाफ़ शांतिपूर्वक विरोध किया था।

इस तरह, जो लोग शाह के बीमार होने की कामना करते हैं, वे शाह को इन ग़ैर-क़ानूनी उपायों के अपनाने के पीछे के प्रमुख तरफ़दार के तौर पर इसलिए देखते हैं, क्योंकि वे गृह मंत्री हैं। अपराधबोध उन्हें इसलिए जकड़ नहीं पाता है,क्योंकि उनकी इस कामना में देश को बचाने की इच्छा निहित है, इस कामना में हिंदुत्व की तरफ़ से देश के कई मौजूदा सामाजिक दरारों को जानबूझकर और छल-कपट से व्यापक रूप से बढ़ाने  और उन दरारों को स्थायी बनाने की कोशिश है।

नैतिक तर्क

सत्ता पर काबिज़ किसी शख़्स के बीमार पड़ने की कामना करने की इस तरह की परिघटना भारत के लिए अजीब-ओ-ग़रीब नहीं है। दार्शनिक, कैस्पर जोहान्सन एक ब्लॉग में इस बात को क़ुबूल करते हैं कि 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रम्प के चुने जाने के बाद, वह दार्शनिक रूप से एक और शख़्स के बीमार पड़ने की कामना की नैतिक दुविधा को लेकर परेशान थे। जोहान्सन सवाल करते हैं, “क्या मेरे लिए नैतिक रूप से यह ग़लत है कि मैं डोनाल्ड ट्रम्प के बीमार होने की कामना करूं? यह कामना करूं कि वह बहुत बीमार हो जाये ? या फिर एकदम से चरम पर जाते हुए यह सोचूं कि काश वह मर जायें?”

धर्मशास्त्र के तौर पर जानी जाने वाली इस नैतिक-दार्शनिक शाखा का मानना है कि किसी अन्य इंसान को मारना हमेशा ग़लत होता है, चाहे वह कुछ भी हो। लेकिन, जोहान्सन हमारे सोचने विचारने के लिए एक सवाल छोड़ देते हैं: किसी व्यक्ति के लिए हिटलर को मारना ग़लत होगा, इससे पहले कि वह यहूदियों को सताना शुरू कर दे और द्वितीय विश्व युद्ध छेड़ दे? मगर सवाल है कि आख़िर वह व्यक्ति हिटलर की तरफ़ से होने वाले कार्यों की समय से पहले की भविष्यवाणी कैसे करे?

चूंकि भविष्य को समझना नामुमकिन है, ट्रम्प के चलते मरने वाले लोग या फिर इसी तरह हिटलर की वजह से जान गंवाने वाले तक़रीबन छह मिलियन यहूदियों के बारे में जानने का आख़िर क्या तरीक़ा हो सकता है। लिहाज़ा जोहान्सन इस निष्कर्ष पह पहुंचते हैं, "तो आप उनके (ट्रम्प) मरने की कामना करते हुए नैतिक रूप से ग़लत होंगे।" हालांकि उनका कहना है कि उनका यह सोचना ग़लत नहीं हो सकता है कि वह ट्रंप को लेकर "छोटी सी दुर्भावना" रखे, मिसाल के तौर पर यह दुर्भावना रखी जा सकती है कि उनकी सभी परियोजनाएं बेतरह नाकाम हो जायें।

सांस्कृतिक तर्क

नैतिक रूप से जो कुछ ग़लत है, वह सांस्कृतिक रूप से भी परिभाषित होता है। उदाहरण के लिए, भारत में मृतक के स्याह पहलू का शायद ही कभी ज़िक़्र होता है। जो लोग अपने दुश्मनों की मौत की कामना करते हैं, वे दूसरों की आलोचना या निंदा के निशाने पर होते हैं, इसका एक उदाहरण लंकेश की मौत का जश्न मना रहे लोगों पर रविशंकर प्रसाद की सार्वजनिक रूप से निंदा किया जाना था या फिर कर्नाटक के कांग्रेस प्रमुख, डीके शिवकुमार, जिन्होंने शाह के बीमार पड़ने पर अपने पार्टी कैडरों को टिप्पणी करने से बचने को लेकर ट्वीट करते हुए कहा, “दूसरों के साथ बुरा होने की कामना करना हमारी संस्कृति में नहीं है।”

यहां तक कि शाह ने भी उन लोगों को चुप कराने के लिए इसी सांस्कृतिक तर्क का सहारा लिया था, जिनके बारे में उन्होंने कहा था कि वे "उनकी मौत के लिए प्रार्थना कर रहे हैं।” लॉकडाउन के दौरान शाह की सार्वजनिक मौजूदगी इतनी कम हो गयी थी कि इससे उनके स्वास्थ्य को लेकर ज़बरदस्त अफ़वाह पैदा हो गयी थीं। 9 मई को शाह ने कहा था कि वह स्वस्थ हैं, और उन्हें अफ़वाहों को विराम देने के लिए सामने आना पड़ा है,क्योंकि उनकी पार्टी के समर्थक उनकी सेहत के बारे में चिंतित थे। उन्होंने तब कहा था, "हिंदू विचार के मुताबिक़, किसी भी इंसान के बारे में इस तरह की अफ़वाहें उसकी सेहत को और मज़बूती ही देती हैं। मुझे उम्मीद है कि लोग ऐसी बेकार की बातों में नहीं उलझेंगे और मुझे अपना काम करने देंगे और वे ख़ुद भी अपना काम करेंगे।”

अनुचित आवेग

इस बात की मिसाल शायद ही हो कि शाह ने भी अपने विरोधियों को लेकर किये जा रहे हिंदुत्व के ट्रोल को कभी रोका हो। कोई शक नहीं कि सोशल मीडिया पर नफ़रत फैलाने वालों को फ़ॉलो करने वाले प्रधानमंत्री के पास उनपर लगाम लगाने का कोई उपाय तक नहीं है। सही मायने में इस तरह से नफ़रत की भाषा का इस्तेमाल भारतीय जनता पार्टी में आगे बढ़ने की एक योग्यता बन गया है। तजिंदर पाल सिंह बग्गा ने 2011 में वक़ील प्रशांत भूषण पर हमला किया था और छह साल बाद उसे दिल्ली की बीजेपी विंग का प्रवक्ता बना दिया गया था।

लेकिन, हिंदुत्व के विरोधी के भी वही बन जाने की आशंका दिखती है,जिनसे वे आज नफ़रत करते हैं, ऐसे में भारत ऐसा गणतंत्र बनकर रह जायेगा, जहां कोई उम्मीद नहीं बचेगी। क्योंकि ऐसे में तो हिंसा, बहस के तौर-तरीक़े के साथ-साथ असंतोष को ज़ाहिर करने का पसंदीदा तरीक़ा बन जायेगी। हिंदुत्व के चलते इस समाज में जो दरार पैदा हुई है, उसे पाटना नामुमकिन हो जायेगा। हिंदुत्व के विरोधी ख़ुद ही हिंसा को जायज ठहराने और हिंसा में उलझे हुए किसी भड़काऊ ग़ुडे में बदल जायेंगे।

ऐसे में तो शायद यही कहा जायेगा कि कोई दहशत फ़ैलाने वाला ही किसी राजनेता के बीमार पड़ने की कामना वाले ट्विटर संदेशों को मनहूस के तौर पर देख सकता है।

ऐसे में तो शायद यही कहा जायेगा कि कोई दहशत फ़ैलाने वाला ही ऐसा ट्विटर संदेश लिख सकता है, जिसमें किसी राजनेता के बीमार पड़ने की कामना की जाती है, और जिसे वह मनहूस  के तौर पर देखता है। इसके बावजूद, इसी तरह की दुर्भावना से बनी सोच वाले बहुत सारे लोगों के लिए इस तरह की चीज़ों से आहत और क्रुद्ध, बेबस या दूषित आत्मा के नाजायज़ आवेग के लिए एक माहौल पैदा होता है। इस तरह की सोच से विचार-विमर्श कुंद पड़ जाता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why Wishing Ill on Amit Shah Should Alarm Everyone

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