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क्यों दलित अस्मिता पर हो रहे हैं लगातार हमले?

दलित महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया जा रहा है। उनकी हत्या की जा रही है। ये घटनाएं इतनी आम होती जा रही हैं, जैसे दलित इंसान ही न हों। 
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फोटो साभार : किसान एकता मोर्चा

हाल ही में उत्तर प्रदेश के अलीगढ जिले में अकराबाद में एक 16 वर्षीय दलित लड़की की खेत में लाश मिली। बताया जा रहा है कि एक युवक ने पोर्न फिल्म देखकर लड़की से बलात्कार करने का प्रयास किया। लड़की द्वारा विरोध किए जाने पर उसके ही दुपट्टे से उसका  गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी। यह अकारण नहीं है कि दलितों और खासतौर से दलित महिलाओं पर अत्याचार की घटनाएं निरंतर बढ़ रहीं हैं। दलित महिलाओं का यौन उत्पीड़न किया जा रहा है। उनकी हत्या की जा रही है। ये घटनाएं इतनी आम होती जा रही हैं, जैसे दलित इंसान ही न हों। जैसे वे इस देश के नागरिक ही न हों। या फिर दलित होना ही उनका सबसे बड़ा गुनाह हो।

वैसे तो पूरे देश में ही दलित उत्पीड़न की घटनाएं हो रही हैं पर उत्तर प्रदेश में तो यह बेलगाम हो गया है। अभी तीन-चार दिन पहले ही अमरोहा जिले के रजबपुर में दो युवक खेत में काम कर रही 18 वर्षीय दलित लड़की को गन्ने के खेत में खींच ले गए और उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया।  

हाथरस काण्ड को भुला भी नहीं पाए थे कि बलरामपुर, उन्नाव, नोएडा और अब अलीगढ़। दलित उत्पीड़न का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। ऐसा लग रहा है जैसे उत्तर प्रदेश में जंगल राज हो। गुंडे-बदमाशों के हौसले बुलंद हैं। हाथरस में ही एक युवा लड़की को दिन-दहाड़े छेड़ा जाता है और लड़की का पिता विरोध करता है तो उसे गोली मार दी जाती है। इधर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का क्या कहना! वे अपराधियों के खिलाफ रासुका में मामला दर्ज करने की बात करते हैं। यह जल्दी से साबित ही नहीं होता है और अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं।

क्यों होती हैं दलित उत्पीड़न की घटनाएं ?

भारतीय समाज जिन स्तरों में बंटा है, उनमें सबसे निचले पायदान पर दलित हैं। समाज की मनुवादी मानसिकता के कारण दबंग जातियां दलितों को अपना गुलाम जैसा समझती हैं। यही कारण है कि दलित और उनकी  महिलाएं उनका इजी टारगेट होते  हैं। 

दूसरी ओर पुलिस प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था में भी जातिवादी मानसिकता के लोग बैठे होते हैं। वे इन मुद्दों को कुछ इस अंदाज में लेते हैं कि दलितों के साथ तो यह सब होता ही रहता है। 

अत्याचारी उनकी जाति का होने के कारण अक्सर वे उसके पक्ष में खड़े होते हैं। यही कारण है कि पुलिस उनके मामले अनुसूचित जाति अत्याचार निवारण अधिनियम की धारा में दर्ज नहीं करती जब तक कि उन पर अत्यधिक दबाब न हो। दबंग जातियों के ख़िलाफ़ कोई गवाही देने को भी जल्दी से राजी नहीं होता। उसे डर होता है कि दबंग जाति के लोग कहीं उसको  ही  न टारगेट बना लें  या उसे किसी झूठे मामले में फंसा न दें। उन्हें इतनी धमकियां दी जाती हैं कि गवाहों के हौसले पस्त हो जाते हैं। परिणाम यह होता है कि अत्याचार की पुष्टि नहीं होती और अत्याचारियों को सजा ही नहीं मिलती। इससे उनका हौसला और बढ जाता  है।

किस से  करें न्याय की उम्मीद?

हमारे देश में मनुवादी व्यवस्था के चलते आमतौर पर दलितों को न्यायाधीश की कुर्सी तक पहुँचने नहीं दिया जाता। आम शिकायत है कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में भी जातिवादी और पितृसत्तात्मक सोच व्याप्त है। हाल ही में महाराष्ट्र का एक रेप केस का मामला आया। इसमें आरोपी मोहित सुभाष चव्हान सरकारी बिजली कंपनी में टेक्नीशियन है। उस पर एक 16 वर्षीया स्कूली छात्रा के साथ बलात्कार का आरोप है। इस पर सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश ने बलात्कार के आरोपी से पूछा – ‘क्या आप पीड़िता से शादी करेंगे?’ इसमें हम आपकी मदद कर सकते हैं। इस पर आरोपी के वकील ने कहा कि –‘मेरा मुवक्किल ऐसा नहीं कर सकता। वह पहले से ही शादीशुदा है।’

यहाँ काबिले गौर है कि सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस पूछ रहा है कि क्या बलात्कार का आरोपी पीड़िता से शादी करेगा। यह महिलाओं का सरेआम अपमान है। उनकी अस्मिता का मज़ाक है।

इस तरह की सोच रखने वाले दलित महिला के साथ किसी दबंग जाति के व्यक्ति द्वारा बलात्कार को स्वीकार ही नहीं करेंगे। वे सवाल पूछेंगे कि कोई बड़ी जाति का व्यक्ति भला दलित महिला के साथ बलात्कार कैसे कर सकता है। वह तो अछूत है। उसे कैसे छू सकता है!  

फिर पुलिस वाले, मीडिया वाले भी (कुछ निष्पक्ष मीडिया वालों को छोड़ कर) कहां दलितों का साथ देते हैं। इस वजह से दलितों को न्याय नहीं मिलता। ज्यादातर मामले यूं ही रफा-दफा कर दिए जाते हैं। इस मनुवादी सोच के दौर में किसी कवि ने सही लिखा है कि-

लश्कर भी तुम्हारा है, सरदार तुम्हारा है

तुम झूठ को सच लिख दो अख़बार तुम्हारा है

इस दौर के फ़रियादी जायें तो कहा जाएं 

क़ानून तुम्हारा है , दरबार तुम्हारा है

दलितों का स्वाभिमान नहीं बर्दाश्त

ईर्षा-द्वेष और अहम् यूं तो मानव की  स्वाभाविक प्रवृतियां हैं। पर जाति से उच्च और  श्रेष्ठ होने का अहम् (असल में वहम) इतना बढ़ जाता है कि स्वयं को उच्च जाति का समझने वाला व्यक्ति दलितों को  कीड़े-मकोड़ों की मानिंद समझने लगता है। उन पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाता  है। उन्हें गुलामों जैसी स्थिति में रहने को विवश करता है।

उदाहरण के लिए कोई दलित शादी में घोड़ी पर न चढ़े, ऐसे कपड़े न पहने जैसे कथित उच्च जाति के लोग पहनते हैं। उनकी तरह नाम न रखे, मूंछे न रखे। पगड़ी न पहने। उनके सामने अपनी कोई आन-बान और शान न दिखाए। उनकी बराबरी न करे। बस उनके सामने हाथ जोड़े  गुलामों की तरह पेश आए। उनकी साफ़-सफाई करता रहे। उनकी गन्दगी ढोता रहे। उनके हुक्म की तामील करता रहे। उनके आगे सिर झुका के खड़ा रहे। उनके सामने  सर उठा के न चले।

कभी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने सही लिखा था -

निसार मैं तिरी गलियों पे  ऐ वतन कि जहाँ 

चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले

स्वाभिमान या आत्मसम्मान से जीने के लिए ज़रूरी है संघर्ष

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने कहा है – “हमारी लड़ाई धन-संपत्ति या शक्ति के लिए नहीं है। यह स्वतंत्रता की लड़ाई है। यह मानवीय गरिमा के दावे की लड़ाई है। “ जिस मनुवादी व्यवस्था ने सदियों से हमारे स्वाभिमान से जीने के हक़ मार रखे हैं। जिसने हमारे पुरखों को अपना गुलाम बना के रखा था। आज भी वे हमें अपने गुलाम के रूप में ही देखते हैं।  अपनी सेवा-टहल करवाना हमारा कर्तव्य समझते हैं। वे हमें हमारे अधिकार भला क्यों देंगे।”

आज के दौर में भी  हम देखते हैं कि दलितों के एक बहुत बड़े वर्ग का स्वाभिमान मर गया है । उन्हें गुलामी में जीने की आदत पड़ गई है। ये लोग गुलामी का आनंद लेने लगे हैं। यही कारण है कि ये संघर्ष से दूर भागते हैं। अपने हक़-अधिकारों के लिए लड़ना नहीं चाहते। ये निराशावादी भी हो गए हैं। इन्हें लगता है कि कुछ बदलाव नहीं आएगा। आज दलितों में एकता का अभाव है। यही इनके शोषण का कारण भी है। यदि ये दलित अपनी नकारात्मक सोच को सकारात्मक बना लें। अपने आत्म-सम्मान के लिए उठ खड़े हों तो इन्हें सम्मान से जीने से कोई नहीं रोक सकता है। आज इन्हें एकता की जरूरत है। उच्च  शिक्षित  होने की जरूरत है।  संविधान को पढ़ने की जरूरत है। बुद्धिमान और शक्तिमान होने की जरूरत है। जागरूक होने की जरूरत है। संघर्ष करने की जरूरत है  – अपने स्वाभिमान के लिए, अपने आत्म-सम्मान के लिए। अपने मानवाधिकारों के लिए।                                                                            

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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