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नवउदारवादी पूंजीवाद में इंफ्रास्ट्रक्चर ‘पवित्र गाय’ क्यों बन गया है?

जो इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट लाभ उत्पन्न कर रहे हैं उनका फ़ायदा भी देशी-विदेशी ब्याजखोर वित्तीय पूंजीपतियों को ही मिलता है।... जबकि इसी सरकार द्वारा मज़दूरों-मेहनतकशों के लिए न्यूनतम आय की गारंटी या अन्य कोई लाभ दिए जाने पर पर पूरा कॉर्पोरेट मीडिया हायतौबा मचा देता है। 
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कृत्रिम सहमति निर्माण की सुविदित पद्धति अनुसार कॉर्पोरेट पूंजी नियंत्रित मीडिया में इंफ्रास्ट्रक्चर या भौतिक बुनियादी ढांचे में भारी निवेश को एक स्वयं सिद्ध सत्य की तरह पेश किया जाता है। कुछ इस तरह की छवि गढ़ दी गई है कि अनेक जनपक्षधर बुद्धिजीवी तक सहमत नजर आते हैं कि इंफ्रास्ट्रक्चर एक ऐसी चीज है जिसे निरपेक्ष रूप से बढ़ाते जाना हरेक देश में हमेशा ही जरूरी होता है क्योंकि किसी भी देश में मौजूद बुनियादी ढांचा हमेशा ही जरूरत की तुलना में कम ही रहता है। अर्थात बुनियादी ढांचे में तीव्रतम व उच्चतम स्तर के पूंजी निवेश को आर्थिक वृद्धि व विकास का पर्याय बना दिया गया है जिसमें कितना ही निवेश क्यों न किया जाए, उसके ‘बहुत ज्यादा होने’ जैसी कोई चीज होती ही नहीं है।

कॉर्पोरेट मीडिया में विभिन्न ‘विद्वानों’, ‘विशेषज्ञों’, ‘विश्लेषकों’ के साथ-साथ सरकारी व निजी प्रबंधकों एवं पूंजीपतियों द्वारा पूरी बहस को सिर्फ इतने पर सीमित कर दिया जाता है कि इसमें पूंजी निवेश की पद्धति क्या हो। उसमें भी पूर्व निर्धारित निष्कर्ष होता है कि पूरी तरह देशी-विदेशी निजी कॉर्पोरेट पूंजी ही सर्वोत्तम विकल्प है। अतः निजीकरण को अर्थव्यवस्था व इंफ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र के हर रोग के लिए रामबाण उपाय के तौर पर गुणगान किया जाता है। इन विशेषज्ञों का पूरा जोर इस बात पर ही होता है कि सरकार देशी-विदेशी कॉर्पोरेट पूंजी को इंफ्रास्ट्रक्चर में निजी पूंजी निवेश को बढाने हेतु हर मुमकिन रियायतों व सुविधाओं के जरिए प्रोत्साहन दें।

केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तुत पिछले सालाना बजट में भी मुख्य जोर इंफ्रास्ट्रक्चर पर ही था और कॉर्पोरेट नियंत्रित मीडिया में बजट की सर्वाधिक प्रशंसा इंफ्रास्ट्रक्चर हेतु आबंटन को 33% बढ़ाने के लिए ही हुई थी। मुख्य धारा के अर्थशास्त्रियों व पूंजीपतियों ने इंफ्रास्ट्रक्चर पर इस बढ़े खर्च के लिए बजट की बड़ी तारीफ की थी। उनके अनुसार इससे अर्थव्यवस्था में पूंजी निवेश बढ़ता है। इससे आर्थिक वृद्धि तेज होती है और रोजगार सृजन होता है।

रोजगार सृजन में वृद्धि के तर्क पर पहले नजर डालते हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) का 2016-17 से 2021-22 तक का सालाना डेटा उपलब्ध है। इस अवधि में, सड़कों और राजमार्गों पर कुल पूंजी परिव्यय में, वास्तविक मुद्रास्फीति-समायोजित आधार पर, 84% की वृद्धि हुई है। हमारे पास सड़क-निर्माण क्षेत्र में नौकरियों के लिए अलग से डेटा नहीं है, इसलिए हमें निर्माण क्षेत्र को इसके प्रॉक्सी के रूप में उपयोग करना होगा। 2016-17 से 2021-22 के बीच कंस्ट्रक्शन रोजगारों  में 6% की गिरावट आई है। साफ है कि न केवल उच्च बुनियादी ढांचे के खर्च ने कोई नई नौकरियां पैदा नहीं की हैं, बल्कि वास्तव में नौकरियां कम हो गईं हैं। बेशक मुख्यधारा के अर्थशास्त्री कहेंगे कि बुनियादी ढांचा खर्च अन्य उद्योगों में भी रोजगार पैदा करता है, जैसे सीमेंट, स्टील और खनन जो इसे कच्चा माल प्रदान करते हैं। किंतु यहां भी आंकड़े निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं। 2016-17 और 2021-22 के बीच, सीमेंट उद्योग में नौकरियों में 62% की भारी गिरावट आई है, धातु क्षेत्र में रोजगार में 10% की गिरावट आई है और खनन नौकरियों में 28% की गिरावट आई है।

जहां तक पूंजी निवेश में वृद्धि की बात है सरकार द्वारा हर कोशिश के बावजूद पिछले 10 साल में कुल पूंजी निवेश घटा है। सरकार का पूंजीगत खर्च बढ़ा है फिर भी कुल जड़ पूंजी निर्माण 2011 में सकल घरेलू उत्पाद के 33% से गिरकर 27% पर आ गया है। अर्थात इन दोनों के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है। वजह है कि निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र सरकार द्वारा घोषित प्रोत्साहनों का लाभ तो ले रहा है पर स्वयं अपनी ओर से पूंजी निवेश नहीं बढ़ा रहा है।

मुख्यधारा के अर्थशास्त्री व पूंजीपति आधारभूत ढांचे में निवेश पर जोर दे रहे हैं और उस पर सार्वजनिक बजट आबंटन बढ़ाने व निजी पूंजी को प्रोत्साहन देने हेतु सरकार की तारीफ कर रहे हैं। फिर भी निजी पूंजी निवेश बढ नहीं रहा है! वजह है कि निजी पूंजीपति घाटे का बजट नहीं बनाता, वो तो पूंजीपतियों की सेवा में उनकी सरकार का काम है। पूंजीपति उद्योग में पूंजी निवेश करता है ताकि उसके द्वारा उत्पादित माल बाजार में बिक कर उसके लिए मुनाफा अर्जित करे। पर समाज के शीर्ष तबके के छोड़कर अधिकांश जनता की आय में तो महंगाई की तुलना में प्रभावी तौर पर कमी आई है। अतः बाजार में उपभोग मांग सीमित बनी हुई है। ऐसे में पूंजीपति नई उत्पादन क्षमता में तो पूंजी निवेश क्यों करें? यहां तक कि पूंजीपति वर्ग की निजीकरण की मांग पर ही सरकार जिन पब्लिक सेक्टर कंपनियों को सस्ते दाम पर बेचने के लिए तैयार है पूंजीपति उन्हें भी खरीदने में रूचि नहीं ले रहे हैं और सरकार के विनिवेश लक्ष्य पूरे नहीं हो रहे हैं।

नवउदारवादी दौर में वैचारिक तौर पर प्रचार किया जाता है कि निजी पूंजी स्वतंत्र व खुली प्रतियोगिता वाला मुक्त बाजार चाहती है जिसमें बाजार शक्तियां पूंजी को सर्वश्रेष्ठ उद्यमी को आबंटित करेंगी। पर वास्तविक निवेश के समय पाया जाता है कि निजी पूंजी इसके लिए तैयार नहीं क्योंकि इन कॉर्पोरेट को कर्ज या शेअर के रूप में फाइनेंस प्रदान करने वाली वित्तीय पूंजी इसके लिए तब तक राजी नहीं जब तक उन्हें उनकी पूंजी पर एक उच्च न्यूनतम मुनाफा दर की गारंटी न की जाए। बताया जाता है कि सरकार को कारोबार से दूर रहना चाहिए। लेकिन वास्तव में सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य, सार्वजनिक यातायात जैसे सामाजिक हित के क्षेत्रों पर खर्च करने के बजाय उन्हीं कारोबारों में निवेश करे जिनसे निजी कॉर्पोरेट पूंजी के लाभ में वृद्धि हो। निजी कॉर्पोरेट पूंजी निवेश करती भी है तो वहीं जहां पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरर्शिप के नाम पर सरकार निजी पूंजी के लिए एक उच्च न्यूनतम लाभ दर की गारंटी करती है और हानि की स्थिति में इसकी जिम्मेदारी सार्वजनिक क्षेत्र में ले लेती है।   

इसका अर्थ है कि पूंजीपति वर्ग का मुख्य जोर इंफ्रास्ट्रक्चर में निजी पूंजी निवेश बढ़ाने के बजाय इस पर सार्वजनिक खर्च में वृद्धि ही है। बुलेट ट्रेन, मेट्रो, रेलवे, हाइवेज-एक्स्प्रेसवेज, बंदरगाह, एयरपोर्ट, डिजीटल इंफ्रास्ट्रक्चर, स्मार्ट सिटी, आदि में बढ़ता सार्वजनिक खर्च दो तरह से पूंजीपति वर्ग को लाभ पहुंचाता है। एक, इन सभी प्रोजेक्ट का बिक्री ऑर्डर निजी पूंजीपतियों को ही मिलता है। यह उनके उत्पादों व सेवाओं के लिए मांग सृजित कर उनकी बिक्री व मुनाफे को बढ़ाता है। अर्थात सरकार पूंजीपति वर्ग के बिजनेस मैनेजर की तरह काम करने लगती है।

इसके लिए खर्च पूरा करने हेतु अप्रत्यक्ष करों के बोझ में वृद्धि की जाती है। इस बार के सालाना आर्थिक सर्वेक्षण में जीडीपी 1% बढ़ने पर अप्रत्यक्ष करों से आय में 1.1% वृद्धि का प्रोजेक्शन किया ही गया था। यह तब है जब सिर्फ केंद्र के टैक्स राजस्व में ही अप्रत्यक्ष करों का योगदान प्रत्यक्ष करों के लगभग बराबर हो चुका है - बजट अनुसार टैक्स राजस्व का 30% प्रत्यक्ष करों से तो 28% अप्रत्यक्ष करों से आता है। इसमें राज्यों के कर जोड़ दें तो अप्रत्यक्ष करों का हिस्सा संभवतः लगभग दो तिहाई होगा। साथ ही इंफ्रास्ट्रक्चर पर बड़े खर्च से पूंजीपति वर्ग को एक और लाभ है - उनके लॉजिस्टिक्स खर्च में कमी से लाभ दर में वृद्धि।

दरअसल आज के वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट के दौर में प्रभावी बाजार मांग अत्यंत सीमित है और पूंजीपति अपने उत्पादों के लिए मांग सृजित कर उन्हें मुनाफे पर बेच पाने में खुद को असमर्थ पा रहे हैं। ऐसे में नवउदारवादी पूंजीवाद की नीति है कि सरकार कुछ एकाधिकारी पूंजीपतियों के लिए मांग सृजन व बिक्री प्रबंधन का काम भी संभाल ले। युद्ध का माहौल बना जंगी साज-सामान का कारोबार इसका ही एक प्रमुख उपाय रहा है, जिसके जरिए कुछ पूंजीपतियों ने भारी लाभ अर्जित किया।

इंफ्रास्ट्रक्चर भी सरकार द्वारा निजी एकाधिकारी पूंजीपतियों के लिए मांग सृजन व बिक्री प्रबंधन का प्रमुख उपाय बन गया है। बुलेट ट्रेन हो या बड़े शानदार एयरपोर्ट, महंगे एक्सप्रेसवे हों या स्मार्ट सिटी, सेंट्रल विस्टा हो या बड़े मेट्रो प्रोजेक्ट - इनमें से किसी की मांग जनता द्वारा नहीं की जाती। आम जनता तो सभी के लिए अच्छे स्कूलों, अस्पतालों, सुलभ व सस्ते सार्वजनिक यातायात, सफाई की सुविधा, सभी के लिए सुलभ पार्क व खेल सुविधाओं जैसे बुनियादी ढांचे की मांग करते रह जाती है। उधर सरकार व पूंजीपति मिलकर एयरपोर्ट, हाइवे, 20 हजार करोड़ के सेंट्रल विस्टा, स्मार्ट सिटी, एलीवेटिड रोड़, प्रधानमंत्री हेतु नए शानदार हवाई जहाज की मांग सृजित कर अपने करीबी पूंजीपतियों को उनका ऑर्डर भी दे देती है। पूंजीपति के लिए मांग भी तैयार, बिक्री भी सुनिश्चित, भुगतान पक्का व लाभ दर सुनिश्चित - इसे अधिक और क्या चाहिए!  

यह मांग तैयार करने के लिए करोड़ों का शुल्क लेकर बड़ी कंसलटिंग कंपनियां रिपोर्ट पेश करती हैं जिनमें बताया जाता है कि स्थान विशेष पर यह इंफ्रास्ट्रक्चर कितना लाभ पहुंचाएगा और कितने लोग इसका प्रयोग करेंगे। पर वास्तविकता क्या है? लखनऊ मेट्रो के पहले कॉरिडोर के चालू होने के चार साल बाद, 23 किमी नेटवर्क पर दैनिक सवारियां 75,000 और 90,000 के बीच ही हैं। गत जुलाई में पेश की गई आवास और शहरी मामलों पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट का अनुमान है कि मात्र संचालन खर्च निकालने हेतु ₹6,928 करोड़ के लखनऊ मेट्रो को प्रतिदिन 125,000 यात्रियों की आवश्यकता है; और लिए गए ऋणों को चुकाने के लिए रोजाना 200,000 सवारी की आवश्यकता है। पहले बताई गई मांग से कम पर संचालित लखनऊ सहित तमाम मेट्रो प्रोजेक्ट की हानि की जिम्मेदारी किसकी होगी? ऐसे ही दिल्ली मेट्रो के एयरपोर्ट कॉरिडोर को निर्माण करने के बाद भी अनिल अंबानी की कंपनी छोड़ भागी थी लेकिन कोर्ट ने उन्हें अपना निवेश ब्याज सहित वापस दिला दिया। घाटे की जिम्मेदारी दिल्ली मेट्रो पर डाल दी गई। 

उपरोक्त जिम्मेदारी तो तय नहीं होगी लेकिन केवल एक चौथाई सदी में, अहमदाबाद का मामूली कमोडिटी व्यापारी अडानी देश के सबसे बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर खिलाड़ी के रूप में रूपांतरित हो गया है। यह कर्ज में गर्दन तक डूबा हुआ है, लेकिन घरेलू प्रोजेक्ट के साथ-साथ मौजूदा सरकार की मदद से ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, श्रीलंका व इजरायल तक में भी हार्ड एसेट्स की एक चमकदार सूची का मालिक बन गया है। पर अब इसका ऊंचा कर्ज सिर्फ इसके लिए नहीं, पूरी अर्थव्यवस्था हेतु गले की फांस बन गया है और अंततः इसका सारा बोझ आम जनता पर ट्रांसफर कर दिया जाएगा।

जो इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट लाभ उत्पन्न कर रहे हैं उनका फायदा भी देशी-विदेशी ब्याजखोर वित्तीय पूंजीपतियों को ही मिलता है। जैसे टोल वाली सड़कों या पुलों पर जहां सरकार न सिर्फ लगभग अनिश्चित काल तक टोल वसूली सुनिश्चित करती है बल्कि इसकी दर भी नियमित अवधि पर बढ़ाई जाती रहती है ताकि लाभ की दर न गिरे। कोटक एसेट मैनेजमेंट के सीईओ श्रीनिवासन के अनुसार, "एक बार किसी संपत्ति के निर्माण का सारा जोखिम पीछे चला जाए है और नकदी आने लगे, तो हम खुशी से पश्चिम में सेवानिवृत्त लोगों को हमारे द्वारा भुगतान किए जाने वाले टोल पर वार्षिक आय एकत्र करने में सक्षम बनाते हैं।" सिर्फ पश्चिम ही नहीं, बॉन्ड, बीमा, म्यूचूअल फंड व सेकुरिटीज में पैसा लगाने वाले देशी अमीर भी ऐसे ही अपनी पूंजी पर ऊंची आय प्राप्त करते हैं। जबकि इसी सरकार द्वारा मजदूरों-मेहनतकशों के लिए न्यूनतम आय की गारंटी या अन्य कोई लाभ दिए जाने पर पर पूरा कॉर्पोरेट मीडिया हायतौबा मचा देता है। इंफ्रास्ट्रक्चर को पवित्र पूजनीय गाय जैसा पेश करने के लिए वित्तीय पूंजीपतियों को होने वाला यह लाभ ही मुख्य कारण है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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