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क्यों संकट में है गोरखपुर की टेराकोटा कला?

“पहले गांव के तालाबों में हमें मुफ़्त में मिट्टी मिल जाती थी लेकिन अब इन इलाक़ों में काम लायक मिट्टी समाप्त हो जाने के कारण बाहर से मंगानी पड़ रही है। मिट्टी और ईंधन के दाम आसमान छू रहे हैं।”
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दुनिया की हर प्राचीन सभ्यता में टेराकोटा के बर्तन, खिलौने और मूर्तियां बनाने का प्रचलन था, चाहे वह प्राचीन सिंधु घाटी की सभ्यता हो अथवा मिस्र या सुमेरियन सभ्यता। टेराकोटा शिल्प के प्रसिद्ध उदाहरण चीन के प्रथम सम्राट क्विन शी (221ईसा पूर्व से 210ईसा पूर्व तक) के समय के हैं। यह टेराकोटा शिल्प में निर्मित मानव देह के बराबर आठ हज़ार से अधिक सैनिकों की फौज़ है। ये क़रीब तीन दशक पहले एक गुफा मंदिर में मिले थे, जो आज भी पूरी तरह से संरक्षित हैं। टेराकोटा के शिल्प में निर्मित वस्तुएं मिट्टी से बनाकर आग पर पकाई जाती है जिसके कारण ये सालों-साल ख़राब नहीं होतीं। भारत में समय बीतने के साथ-साथ टेराकोटा के बर्तन का प्रयोग ‌लगभग समाप्त हो गया है, परंतु धार्मिक कार्यों तथा सजावट के लिए इसका प्रयोग आज भी होता है।

यूं तो देश के अनेक भागों में बनाए जाने वाले टेराकोटा शिल्प मशहूर हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में गोरखपुर जिले के टेराकोटा शिल्प की ख्याति न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है। साल 1966 में जवाहरलाल नेहरू जब गोरखपुर आए तो वे इस कला की शुरूआत करने वाले सुखराज प्रजापति से मिले तथा उसकी बनाई हुई कृतियों की काफी प्रशंसा की। इसके बाद ही सुखराज ने स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देना का शुरू कर दिया। गोरखपुर शहर से क़रीब दस किलोमीटर दूर गुलरिया थाना क्षेत्र के औरंगाबाद, बूढ़ाडीह और भरवलिया गांव के तालाबों में एक विशेष किस्म की मिट्टी पाई जाती है। इसी मिट्टी से टेराकोटा आकृति तैयार की जाती है, इन आकृतियों में विशेष प्रकार का चमकीला रंग नज़र आता है। यह रंग भी मिट्टी में प्राकृतिक तौर पर पाया जाता है। इस इलाक़े के दो सौ परिवार इसी व्यवसाय में लगे हैं। मूलतः पहले इस इलाक़े के कुम्हार केवल हाथी-घोड़े की आकृति बनाते थे क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार में मनाए जाने वाले छठ पर्व में इसका उपयोग होता है, लेकिन जब इस कला की प्रसिद्धि बढ़ी तो इसके कलाकार अन्य शिल्प कलाकृतियां बनाने लगे।

दीपावली के समय में टेराकोटा के कलात्मक दीपकों की मांग बहुत बढ़ जाती है। इसी इलाक़े के एक मूर्तिकार शिवानंद प्रजापति को 1981 में अपनी कला के लिए उत्तर प्रदेश राज्य पुरस्कार मिला था। इसके बाद वे आठ फ़ीट के टेराकोटा घोड़े लेकर दिल्ली प्रदर्शनी में गए। उन्हें पुरस्कार तो नहीं मिला, लेकिन सरकार ने उनके घोड़े ख़रीद लिए जो आज भी दिल्ली के पृथ्वीराज रोड पर स्थापित हैं। निश्चित रूप से इस कला का गौरवशाली अतीत रहा है।

हालांकि पिछले दिनों जब मैं गोरखपुर में इनके गांवों में गया, तब मैंने अनुभव किया कि अब यह पूरी कला संकट में आ गई है तथा इसको बनाने वाले बहुत से लोग अन्य रोज़गार-धंधों की ओर मुड़ रहे हैं। पहले तो कच्ची सड़कों के कारण इन गांवों तक पहुंचना भी बहुत मुश्किल था, लेकिन अब यहां तक पक्की सड़कें बन जाने के कारण रास्ता सुगम हो गया है। यहां के एक शिल्पकार राकेश प्रजापति बताते हैं कि "पहले इन गांवों के तालाबों में हमें मुफ़्त में मिट्टी मिल जाती थी, लेकिन अब इन इलाकों में काम लायक मिट्टी समाप्त हो जाने के कारण मिट्टी बाहर से मंगानी पड़ रही है। मिट्टी और ईंधन के दाम आसमान छू रहे हैं।"

एक अन्य शिल्पी ने बताया कि "एक ट्राली मिट्टी में एक डीसीएम गाड़ी के बराबर सामान तैयार होता है। इस मिट्टी की क़ीमत एक लाख रूपये तक है। एक ट्राली मिट्टी से सामान बनाने के लिए अगर दस लोग काम करें तो भी एक महीने का समय लगता है। इसे पकाने में भी अधिकतम तीन दिन का समय लगता है।"

68 साल के मूर्तिकार गब्बूलाल प्रजापति ने बताया कि, "जब वह दस साल के थे तब से यह काम कर रहे हैं। टेराकोटा हस्तशिल्प का सारा काम हाथ से होता है। पहले इसके अलग-अलग हिस्सों को हाथ से बनाया जाता है, फिर इन्हें आपस में जोड़ दिया जाता है। इन्हें छांव में सुखाया जाता है जिससे ये चिपके नहीं, फिर इन्हें आवां में पकाया जाता है। यह सब काम इतना भी सरल नहीं है जितना देखने में लगता है।" आपको बता दें, साल 1983 में इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था।

अनेक कुम्हारों का कहना है कि पुरस्कार आदि तो बहुत मिले लेकिन इस कला को स्थायी रूप से संरक्षित करने की कोई व्यवस्था नहीं की गई। गोरखपुर शहर में बड़े शोरूम खोलने की योजना थी लेकिन कुछ व्यक्तिगत प्रयासों से ही ये शिल्प रेलवे स्टेशन तथा एक अन्य जगह ही नगर में मिल पाते हैं, अगर अधिक लेना है तो उसके लिए इनके गांव तक जाना पड़ता है। दीपावली जैसे त्योहारों पर लगने वाले मेले में ही ये अपना ज़्यादा सामान बेच पाते हैं। कोरोना महामारी ने तो इनके व्यवसाय को पूरी तरह से ठप कर दिया था क्योंकि उस समय हर तरह के सामूहिक आयोजन बंद हो गए थे जहां इनके सामानों की बिक्री होती थी। सरकारी संरक्षण के अभाव में यह कला पूरी तरह विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है।

एक शिल्पकार ने बताया, "एक कलाकृति जो एक थोक का व्यापारी हमसे दस-बारह रूपये में खरीदता है, उसी को वह दिल्ली जैसे महानगरों में सौ से डेढ़ सौ रूपये में बेचता है।" इनकी मांग है कि इस कला को बचाने के लिए राज्य सरकार सरकारी समिति बनाकर सीधे इनसे खरीदारी करे तथा राज्य में स्थित हस्तशिल्प के सभी सरकारी शोरूमों में इनकी कलाकृतियों को विक्रय के लिए रखा जाए तथा इन्हें उचित मूल्य दिलवाने की व्यवस्था की जाए, तभी इस कला को बचाया जा सकता है।

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