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नए फिल्म सर्टिफिकेशन बिल पर बवाल क्यों हो रहा है?

केंद्र सरकार के पास फिलहाल सीबीएफसी के फैसले को पलटने की अनुमति नहीं है। लेकिन नए ड्राफ्ट के मुताबिक सरकार सीबीएफसी को फ़िल्म का सर्टिफिकेशन रद्द करने या बदलाव करने का आदेश दे सकेगी।
नए फिल्म सर्टिफिकेशन बिल पर बवाल क्यों हो रहा है?
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: Commons

अक्सर फिल्मों को समाज का आइना कहा जाता है। इस आइने में कई बार वो गंदी सच्चाई भी साफ दिख जाती है जिसे अक्सर जनहित और विकास के नाम पर छिपाने की कोशिश की जाती है। अब सरकार अपने नजरिए से इस आइने की तस्वीर दुनिया के सामने लाना चाहती है। ऐसा हम नहीं लोग कह रहे हैं, नए फिल्म सर्टिफिकेशन बिल के प्रावधानों को पढ़कर-समझकर।

आपको बता दें कि इस साल 6 अप्रैल को सरकार ने जब अचानक फिल्म सर्टिफिकेशन एपेलेट ट्रिब्यूनल यानी  एफसीएटी को बंद कर दिया, तब कई लोगों का कहना था कि ये तो बस शुरुआत है फिल्मी जगत के सरकारी मुट्ठी में बंद होने की। अब सिनेमैटोग्राफ ऐक्ट 1952 में संशोधन के लिए सरकार ने जो नया ड्राफ्ट 18 जून शुक्रवार को जारी किया है, उसने इस बात पर एक तरह से मुहर लगा दी है। हालांकि 2 जुलाई तक ये ड्राफ्ट सरकार ने पब्लिक और फ़िल्म मेकर्स की राय जानने के लिए सार्वजनिक रखा है लेकिन इससे बहुत कुछ बिल में बदलेगा ऐसा लगता तो नहीं है।

आख़िर है क्या इस नए बिल में?

वैसे सेंसर बोर्ड फिल्मों के प्रमाणन को लेकर कई बार विवादों में रहा है। अक्सर उस पर  सवाल भी खड़े होते रहे हैं। ऊपर से ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म के आगमन ने सर्टीफिकेशन की पूरी प्रक्रिया को ही बेमानी कर दिया है। ऐसे में सिनेमैटोग्राफ एक्ट भारत में सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रिलीज होने वाली फिल्मों के प्रमाणन का निर्देशित करने वाला एकमात्र कानून है।  यह सीबीएफसी को नियंत्रित करता है, जिसे भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज होने वाली प्रत्येक फिल्म को प्रमाणित करने का अधिकार है।

अगर नया बिल पास हो जाता है तो केंद्र सरकार को सीबीएफसी द्वारा दिए गए सर्टिफिकेट को पुनः परिक्षण के आदेश देने की पावर मिल जाएगी। मतलब है कि अगर सरकार को ये ज्ञात हुआ कि किसी फ़िल्म में सेक्शन 5B (प्रिंसिपल फॉर गाइडेंस इन सर्टिफाइंग फ़िल्म्स ) का उल्लंघन हुआ है तो सरकार सीबीएफसी को फ़िल्म का सर्टिफिकेशन रद्द करने या बदलाव करने का आदेश दे सकेगी। केंद्र सरकार के पास फिलहाल सीबीएफसी के फैसले को पलटने की अनुमति नहीं है।

केंद्र सीबीएफसी के फैसले पर रोक लगा सकती है!

सेक्शन 5B यानी प्रिंसिपल फॉर गाइडेंस इन सर्टिफाइंग फ़िल्म्स कहना है कि अगर कोई फ़िल्म या फ़िल्म का कोई सीन देश की अखंडता के खिलाफ़, देश की शांति के खिलाफ़, देश की नैतिकता के खिलाफ़, दूसरे देशों से संबंधों को खराब करने, देश का माहौल बिगाड़ने लायक लगता है तो सरकार इस पर रोक लगा सकती है।

हालांकि इससे पहले नवंबर 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस फैसले को कायम रखने के आदेश दिया था जिसमें हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से सीबीएफसी के किसी भी फ़ैसले को ओवररूल करने या बदलने के अधिकार छीन लिए थे। इस फ़ैसले के बाद सरकार के पास सिर्फ़ इतनी पावर थी कि वे सीबीएफसी बोर्ड के हेड से फ़िल्म पर दोबारा विचार करने की राय दे सकें। मौजूदा एक्ट में सेक्शन 6 के आधार पर सरकार के पास फ़िल्म सर्टिफिकेशन की प्रोसीडिंग की रिकॉर्डिंग देखने का भी अधिकार है।

पायरेसी के खिलाफ़ सख्ती वाला प्रावधान

नए बिल के ड्राफ्ट में धारा 6AA जोड़ने का प्रस्ताव है, जो अनऑथोराइज्ड रिकॉर्डिंग को प्रतिबंधित करेगा। सरकार के अनुसार मौजूदा सिनेमैटोग्राफ ऐक्ट (1952) में पायरेसी के लिए कोई सख्त क़ानून नहीं है। इसलिए इस प्रवधान को जोड़ा गया है। इसके अनुसार फ़िल्म की बिना अधिकार रिकॉर्डिंग करने की मनाही होगी। नए प्रस्ताव के मुताबिक, उल्लंघन करने पर कम से कम तीन महीने की जेल हो सकती है, जो तीन साल तक भी बढ़ाई जा सकती है। वहीं, कम से कम 3 लाख रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा, जो ऑडिट ग्रॉस प्रोडक्शन कॉस्ट का 5 प्रतिशत तक हो सकता है। सजा और जुर्माना दोनों भी हो सकता है। सरकार का कहना है पायरेसी से हर साल एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का बहुत नुकसान होता है। इस बिल के ज़रिये पायरेसी करने वालों पर लगाम लगेगी।

उम्र के आधार पर सर्टिफिकेशन

ड्राफ्ट में उम्र के आधार पर फिल्मों को सर्टिफिकेट देने का प्रस्ताव दिया गया है। मौजूदा समय में फिल्मों को तीन कैटेगरी में बांटा जाता है- अनरिस्ट्रिक्ट पब्लिक मतलब सभी के लिए U, U/A 12 उम्र से कम बच्चों को पेरेंट्स गाइडेंस की जरूरत होगी, और एडल्ट फिल्मों के लिए A।

वहीं, नए प्रस्ताव में फिल्मों को उम्र के आधार पर बांटने को कहा गया है, जिसमें 7+ के लिए U/A, 13+ के लिए U/A और 16+ के लिए U/A सर्टिफिकेट।

अब तक सीबीएफसी द्वारा दिए जाने वाला सर्टिफिकेशन सिर्फ़ 10 साल के लिए वैलिड होता था। लेकिन इस नए बिल के लागू होने के बाद फ़िल्म का सिर्फ एक बार ही सर्टिफिकेशन होगा और वो आजीवन वैलिड रहेगा।

पहले की सिफारिशें ठंडे बस्ते में!

गौरतलब है कि साल 2013 में, सिनेमैटोग्राफ एक्ट के तहत प्रमाणन से जुड़े मुद्दों की पड़ताल के लिए कांग्रेस सरकार के इन्फॉर्मेशन एंड ब्राडकास्टिंग मिनिस्ट्री के मंत्री मनीष तिवारी ने जस्टिस मुकुल मुद्गल की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था। इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में फ़िल्म के सीन्स को ना काटने, सर्टिफिकेशन में U/A12+ और U/A15+ जैसी कैटेगरीज़ को जोड़ने और बोर्ड को सिर्फ फ़िल्म का सर्टिफिकेशन का काम करने के सुझाव दिए थे।

हालांकि 2014 में सरकार बदली और फिर ये रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई। 2016 में जब ‘उड़ता पंजाब’ पर सेंसर बोर्ड की कैंची चली तो फिर विवाद ने तूल पकड़ लिया।  उस समय के इन्फॉर्मेशन एंड ब्राडकास्टिंग मिनिस्ट्रर अरुण जेटली ने डायरेक्टर श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में अपनी एक्सपर्ट कमेटी बनाई। इस कमेटी ने भी उम्र के आधार पर प्रमाणन की मांग का समर्थन किया और सीबीएफसी की शक्तियों को सीमित करने के लिए अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की, लेकिन इनकी रिपोर्ट भी गट्ठरों में दब गई।

इसके बाद साल 2019 में, सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक को राज्यसभा में पेश किया गया था, जहां पायरेसी से निपटने के उद्देश्य से अधिनियम की धारा 7 में एक नई धारा 6AA, और एक नई उप-धारा (1A) को सम्मिलित करने का प्रस्ताव किया गया था। जिसके बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने 2020 में लोकसभा में सूचना प्रौद्योगिकी पर स्थायी समिति द्वारा प्रस्तुत एक रिपोर्ट की समीक्षा की। नवीनतम मसौदा विधेयक उसी का परिणाम है।

सिनेमा उद्योग का इस बिल पर क्या कहना है?

इस नए ड्राफ्ट को ‘स्वयंवर’,’ द चोला हेरिटेज’ जैसी नेशनलअवार्ड विनिंग फ़िल्में बनाने वाले सम्मानित फ़िल्ममेकर अदूर गोपालाकृष्णन ने ‘सुपर सेंसर’ नाम दिया है। वहीं फिल्म निर्माता राकेश शर्मा ने दिप्रिंट को बताया कि इन संशोधनों को अलग-थलग करके देखना महत्वपूर्ण नहीं है।

उन्होंने कहा, ‘पहले, तो एफसीएटी को हटा दिया गया और फिर सीबीएफसी जैसे संवैधानिक निकाय को खत्म करने और सुपर सेंसर के रूप में कंटेंट पर सरकार का सख्त नियंत्रण कायम करने के लिए यह संशोधन किया गया है।’

वरिष्ठ फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल, जिन्होंने 2016 में बनाये गए पैनल का नेतृत्व किया था, ने कहा कि सीबीएफसी सरकार द्वारा स्थापित एक निकाय है और इसमें ऐसे लोग शामिल हैं जिन्हें सरकार जिम्मेदार मानती है और जिसकी समाज में कुछ हैसियत हैं।

उनका कहना था कि ‘अगर सीबीएफसी नाम की कोई संस्था है, तो आपको किसी फिल्म का मूल्यांकन करने के लिए सीबीएफसी के ऊपर और उससे परे और भी कोई नियंत्रण क्यों चाहिए?’

बिल के जरिए फिल्म इंडस्ट्री को अपने नियंत्रण में लाने की कोशिश!

बता दें कि पिछले कुछ सालों में संसद में एक ट्रेंड देखने को मिला है जहां सरकार के प्रतिनिधियों द्वारा अनुशंसित और संसद द्वारा पारित प्रस्तावों पर न तो कोई बहस होती है और ना विपक्षी पार्टियों की कोई सलाह ली जाती है। एफसीएटी की समाप्ति के समय भी बगैर किसी बहस के सरकारी अध्यादेश जारी कर दिया गया था।

कई लोगों का मानना है कि देश की विभिन्न संस्थाओं को नियोजित और नियंत्रित करने के बाद सरकार भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को अपने नियंत्रण में लाने में लग गई है। क्योंकि आज फिल्म इंडस्ट्री ही ऐसी जगह है जो लोगों को लंबे समय तक प्रभावित करती है। समाज और राजनीति की कड़वी लोगों के सामने रखती है। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत तमाम मंत्री और कार्यकर्ता फिल्म इंडस्ट्री के प्रभावशाली व्यक्तियों को अपने करीब लाने की कोशिश में जुटे दिखाई देते हैं।

नए बिल में कुछ अच्छी बातें, लेकिन साथ ही बहुत सारा डर और चिंता भी है!

सोशल मीडिया पर कुछ लोगों का मानना है कि अब सरकार फिल्मों का नैरेटिव बदलना चाहती है, फिलमी हस्तियों को अपने पक्ष में करना चाहती है। फिल्मों में ‘राष्ट्रवाद का नवाचार' दिखना चाहती है। अक्षय कुमार, अजय देवगन और कंगना रनोट सरीखे चंद कलाकार सरकार के हर फैसले और अभियान में उनके पक्ष में दिखाई देते हैं, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री का एक बड़ा हिस्सा आज भी सरकार की नीतियों से दूर अपनी धुन में कला और व्यवसाय की दो पटरियों पर संतुलन बना कर आगे बढ़ता ही दिखाई देता है।

बहरहाल, देश में हर साल छोटी-बड़ी हज़ारों फिल्में बनती हैं। बहुत से निर्माता अपनी सारी मेहनत, ऊर्जा और पैसा एक फिल्म बनाने में लगा देते हैं, लेकिन उनकी यह फिल्म दर्शकों तक थिएटर या टीवी के ज़रिए सेंसर बोर्ड से सर्टिफिकेट मिलने के बाद ही पहुँच पाती है। आंकडों की मानें तो हर साल 1,000 से भी अधिक फिल्में प्रमाणन के लिए सीबीएफसी के पास आवेदन करती हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि इस नए बिल में कुछ अच्छी बातें जरूर हैं लेकिन साथ ही बहुत सारा डर और चिंता भी है, जो फ़िल्ममेकर्स के कंटेंट बनाने और जनता के कंटेंट देखने की आज़ादी को बंधित कर सकता है। संविधान से मिले अभिव्यक्ति की आज़ादी को कानूनी दांव-पेंच में कैद कर सकता है।

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