नज़रिया: किन वजह से याद रखी जाएगी राष्ट्रपति की उत्तर प्रदेश यात्रा
25 जुलाई 2021 को श्री रामनाथ कोविन्द को भारत के प्रथम नागरिक और देश की सर्वोच्च संस्था के तौर पर पूरे 4 साल हो जाएँगे। अगले साल यानी 2022 में 25 जुलाई को उनका कार्यकाल पूरा हो जाएगा। देश के चौदहवें राष्ट्रपति के रूप में उनके कार्यकाल को कई तरह से याद किया जाएगा और उनके कार्यकाल की अलग-अलग तरह से व्यखायाएं भी होंगीं। उनके कार्यकाल को याद करते वक़्त हाल में ही हुई उनकी अपने प्रदेश यानी उत्तर प्रदेश की यात्रा का अनिवार्य रूप से ज़िक्र होगा।
सार्वजनिक जीवन में कम से कम मतलब रखने और देश व सरकार के काम-काज में दैनंदिन कार्य-व्यवहार से एक निश्चित दूरी बनाए रखना ही इस पद को ‘महिमा’ प्रदान करता है। और यह संविधान सम्मत भी माना जाता है।
इनका कार्यकाल जब पूरा होगा तब होगा लेकिन भारत जैसे संप्रभु देश के प्रथम नागरिक और अपने आप में एक संस्था होने के नाते उनके 4 सालों के कार्यकाल को अगर देखा जाए वो ऐसे कोई प्रतिमान बनाते हुए नहीं दिखलाई पड़ते जहां उन्होंने कोई विशिष्ट काम किया हो और जिसे आगे आने वाले ऐसे विशिष्ट और प्रथम नागरिक के लिए कोई नज़ीर ही बनाई हो।
राष्ट्रपति पद का चुनाव चूंकि किसी एक राजनीतिक दल को देश भर में प्राप्त बहुमत का विषय बन चुका है इसलिए इस पद पर बैठे किसी भी महामहिम के लिए एक अनिवार्य शर्त उस पार्टी के प्रति नरमदिली और उसकी विचारधारा को बलवती करना हो गया है जिसने उन्हें इस पद पर पहुंचाया है। यहाँ पद स्वत: गौण हो जाता है और पार्टी या उसके नेता या उसकी विचारधारा के प्रति विशिष्ट प्रकार की प्रतिबद्धता व्यवहारिकता का रूप धारण कर लेती है।
श्री रामनाथ कोविन्द एक मात्र नज़ीर नहीं हैं बल्कि इनसे पहले श्री ज्ञानी जैल सिंह, श्रीमती प्रतिभा देवी पाटिल और अन्य कई प्रथम पुरुष इसी गति को प्राप्त हुए हैं। जिन्हें इसी रूप में याद किया जाता है। श्री ज्ञानी जैल सिंह के बारे में तो कितने ही किस्से मशहूर हैं कि वो तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से पूछे बगैर एक सवाल का जवाब भी न दिया करते थे। इसमें कितनी सच्चाई है कहना मुश्किल है लेकिन ये सब किस्से झूठे ही हैं ऐसा भी प्रमाणित नहीं होता है।
तब हालांकि सुविधा ये थी कि संचार और मीडिया की पहुँच बहुत सीमित थी। और हर दिन की बात इस तरह सर्व सुलभ नहीं थी। वीडियो, ऑडियो इतने सुलभ नहीं थे कि लोग महामहिम के भाषण को बार- बार आगे-पीछे करके सुन सकें। एक बार में कई लोगों तक सेकंड के दसवें भाग में पहुंचा सकें। इसलिए कोई ठोस प्रमाण दोनों ही बातों के नहीं हैं कि वो हर बात तत्कालीन प्रधानमंत्री से पूछ कर बोलते थे या ऐसा नहीं करते थे। लेकिन आज यह सुविधा है। लोग इस सुविधा का इस्तेमाल कर रहे हैं। राष्ट्रपति जी का भाषण देता हुआ वीडियो धरती की जैसे दो-चार परिक्रमा कर चुका है।
लोग 26 जून 2021 से राष्ट्रपति के उस भाषण पर अपनी टिप्पणियाँ किए जा रहे हैं जो उन्होंने अपने पैतृक गाँव में दिया। उन दृश्यों को बार-बार देख रहे हैं और तमाम सोशल मीडिया के सार्वजनिक मंचों से साझा कर रहे हैं जो उन्होंने अपने गाँव में कदम रखते ही अपनी मिट्टी को नमन किया। यह वाकई एक भावनात्मक क्षण खुद महामहिम और उनके गाँव वालों के लिए रहा होगा। अपनी मिट्टी से लगाव होना बहुत स्वाभाविक लाग्ने वाला अनुभव है।
जिस क्षण देश के राष्ट्रपति महामहिम ने अपने गाँव की मिट्टी को अपने अंजुल में लिया (हालांकि वह हैली पेड और वहाँ केवल कंक्रीट था) लेकिन प्रतीकात्मक रूप से उस तस्वीर का भावनात्मक मूल्य है। उसी क्षण उन्होंने यह भी कहा कि ‘यह हमारे देश के लोकतन्त्र की खूबसूरती है और उसी की बदौलत वो यहाँ तक पहुंचे’।
इस दृश्य ने भारत के लोकतन्त्र की उस खूबसूरती पर एक बार फिर मुहर लगाई। एक घनघोर सामंती, वर्णवादी समाज में अगर लोकतान्त्रिक व्यवस्था न अपनाई गयी होती तो ऐसे कितने ही कारण थे कि श्री रामनाथ कोविन्द उस पद को सुशोभित न कर पाते जैसे आज भी कई लोग अपनी पसंद से मूंछें नहीं रख पाते या, घोड़े पर बारात लेकर नहीं जा पाते या मोटसाइकिल पर नहीं निकल पाते या समाज में बराबरी के लायक इज़्ज़त पाने लायक नहीं समझे जाते। इसलिए प्रतीकात्मक ही सही लेकिन लोकतन्त्र ने समाज की बनी बनाई ऐसी कई रूढ़ियों को तोड़ा है जिसके बारे में आज के तथाकथित आधुनिक हो चुके समाज में भी कल्पना करना मुश्किल है।
महामहिम ने अपने भाषण में अपनी तनख्वाह और उस पर लगने वाले कर या टैक्स का ज़िक्र करते हुए एक टीचर की आय और उसकी बचत की तुलना खुद से करके एक तरह से बहुत सरल और स्वाभाविक मनोभावों को ही अभिव्यक्त किया लेकिन इससे महिमा, मान, गरिमा और प्रतिष्ठा और एक संस्था के तौर पर सर्वोच्च के रूप में स्वीकृत और प्रतिष्ठित पद के मिजाज को थोड़ा कमतर कर दिया।
अपने गाँव में अपने लोगों को अपनी ज़िंदगी, अपनी आय के बारे बताते वक़्त बड़बोला न होना एक किस्म की उदारता है और कई बार ऐसे मौकों पर लोग भावुक होकर कुछ ऐसा बोल जाते हैं जो उनकी पद की गरिमा के लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता है लेकिन ऐसे मौकों पर अक्सर लोग झूठ से बचते हुए भी दिखलाई देते हैं। डींगें हाँकना जिसे कहा जाता है वह भी कई सफल लोग अपने गाँव में जाकर करते हैं, अपनों के बीच खुद को बड़ा दिखलाना या उनके बराबर दिखलाने के सभी प्रयास भावुकता की कसौटी पर खरे भी उतरें लेकिन एक संस्था के तौर पर अपनों के बीच पहुँचकर भी उसकी गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने की महती ज़िम्मेदारी उस व्यक्ति की होती है जिसका रूपान्तरण और प्रतिष्ठा एक संस्था के बतौर हो चुकी हो।
यहाँ, संभव है भावुकता में ही, राष्ट्रपति जी सच से विचलित हो गए। उन्हें भी इस बात का पता है कि उनका भाषण खत्म होने से पहले ही लोग तमाम स्रोतों से इस बात का पता लेंगे कि देश के राष्ट्रपति की तनख्वाह क्या है और उस तनख्वाह पर कितना टैक्स दिया जाता है। लोगों ने ऐसा ही किया और यह बात प्रामाणिक रूप से सही पायी गयी कि राष्ट्रपति की तनख्वाह ‘कर मुक्त’ होती है, ऐसे में पौने तीन लाख रुपया महीना टैक्स देने वाली बात सार्वजनिक जीवन में हास्य का विषय बन कर बाहर आने लगी।
कई लोग कह रहे हैं कि राष्ट्रपति को यह कहने की क्या ज़रूरत थी? और राष्ट्रपति क्या केवल एक कर्मचारी ही है? ज़रूर उनकी नियुक्ति होती है और उदारमना कोई व्यक्ति इस पद होकर भी खुद को राष्ट्र का नौकर होने के बोध से सम्पन्न हो सकता है और जिसे बहुत अच्छी बात माना जा सकता है कि इस व्यक्ति में अहंकार नहीं है या यह व्यक्ति देश की जनता को कितना बड़ा रुतबा अदा करता है वगैरह-वगैरह लेकिन उनकी तनख्वाह पर ‘मासिक कर’ और वो भी इतना ज़्यादा यानी 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा? ये थोड़ा अतिरेक हो गया और इस अतिरेक के बाद उसी जनता की जो टिप्पणियाँ, व्यंग्य, हास्य, कटाक्ष, तंज़ आए उससे पद की प्रतिष्ठा और संस्था की गरिमा को गंभीर चोट पहुंची है। पता नहीं ये बात स्वयं राष्ट्रपति जी जानते हैं या नहीं?
राष्ट्रपति जी के उत्तर प्रदेश के इस दौरे को भी कई -कई कोणों से देखा जा रहा है। और बीते चार सालों में सरकार के किसी भी फैसले पर कोई प्रश्नचिह्न न लगाने, राम मंदिर के लिए 5 लाख का चन्दा देने और महाराष्ट्र में राजनीतिक उथल- पुथल के दौरान अविवेकी निर्णय लेने से ऐसी छवि बनी है कि वो इन अटकलों की पुष्टि करती है।
कहा जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की खराब स्थिति के मद्देनजर यह दौरा बनाया गया। या अपनी तनख्वाह की बात करके और उस पर टैक्स देने की पीड़ा को साझा करके और उसकी तुलना एक शिक्षक की आय से करके महामहिम ने उभरते असन्तुष्ट को दबाने का काम किया है जो इस वक़्त एक खास दल की तात्कालिक ज़रूरत है।
इन अटकलों में कोई बल न भी हो लेकिन देश के चौदहवें राष्ट्रपति जी ऐसे पहले राष्ट्रपति हो चुके हैं जिन्होंने महिमा और मर्यादाओं के उन तटबंधों को तोड़ा है जो अभी तक हुए राष्ट्रपतियों ने कभी उचित न समझा।
आम तौर पर राष्ट्रपति की भूमिका अपवाद स्वरूप उपजी अति असामान्य परिस्थितियों में ही मुखर होती है लेकिन इसी देश में दसवें राष्ट्रपति के. आर. नारायण ने तत्कालीन सरकार को जिन शब्दों में चेताया था और राष्ट्र के नाम अपने संदेश में देश में बढ़ती आर्थिक असमानता और दलितों, आदिवासियों और अल्प संख्यकों पर हो रही ज़्यादतियों के बारे में कठोर टिप्पणियाँ की थीं वो जैसे सरकार और राष्ट्रपति नामक संस्था दोनों के बीच के सांवैधानिक रिश्तों की उन्नत अवस्था थी।
राष्ट्रपति का काम है सरकार को यह बतलाना कि हमारी नज़र देश की परिस्थितियों पर है और हम अपनी मर्यादित भूमिका में रहते हुए सरकार को इन परिस्थितियों को लेकर अपनी चिंता, क्षोभ और नाराजगी बतलाएंगे। हम देश के अभिभावक हैं।
देश के गणतन्त्र की स्वर्ण जयंती के अवसर पर 25 जनवरी 2000 को गणतन्त्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र के नाम संदेश में श्री के. आर. नारायण के उस भाषण को इसलिए बार- बार पढ़ा और सुना जाना चाहिए ताकि पद की गरिमा और एक सर्वोच्च संस्था की अहमियत देश के ज़हन में बनी रहे। जब सरकारें असफल साबित हो जाएँ, न्यायालय अपना अंतिम निष्कर्ष बता दें, संसद अपनी तरफ से अंतिम कार्यवाही कर ले, कार्यपालिका की सीमा समाप्त हो जाए तब भी एक संस्था बचती जो एक व्यक्ति को इतना विवेक सम्पन्न बनाती है कि उसका कहा एक- एक शब्द विधान रच सकता है।
वह पलट सकता है न्यायालय के निर्णयों को, बदल सकता है संसद की नज़ीरों को और माफ कर सकता है किसी भी व्यक्ति को उसके किए अपराधों के लिए। इस धरती पर अगर एक राज्य किसी की मौत का फरमान सुना सकता है तो केवल एक व्यक्ति, संस्था के रूप में उसे उस मृत्यु दंड से बचा सकता है। उसे नया जीवन दे सकता है। ऐसे वैधानिक रूप से सर्वश्रेष्ठ पद पर आसीन व्यक्ति अपनी तनख्वाह और उस पर लगने वाले टैक्स की चर्चा करे यह न तो जरूरी ही है और न ही शोभनीय ही।
इस मुद्दे पर बात करके राष्ट्रपति जी ने उन हल्के कटाक्षों के लिए राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खोल दिये हैं जहां परिंदा भी बिना उनकी अनुमति के पर नहीं मार सकता। लोग कहने लगे हैं कि कभी खुद को मिली शानदार हवेली को देखा है? आपको पैसों या तनख्वाह की ज़रूरत ही क्या है? हम तो बिना किसी तनख्वाह ही राष्ट्रपति बन जाना चाहेंगे और क्यों नहीं? यही हास्य किसी सांवैधानिक पद की गरिमा को क्षत-विक्षत करते हैं।
खैर इन चार सालों के कार्यकाल में महामहिम की अपने गृह प्रदेश और अपने निज ग्राम की यात्रा को कई वजहों से याद रखा जाएगा। कुछ कारण तो पहले ही चर्चा में आ गए हैं। एक अति विशिष्ट व्यक्ति के सरकारी काफिले की वजह से एक महिला उद्यमी (वंदना मिश्रा) की अकाल मृत्यु, उत्तर प्रदेश की घनघोर अहंकारी पुलिस द्वारा उनके परिवार से माफी मंगाना और स्वयं राष्ट्रपति जी द्वारा खेद व्यक्त किया जाना। सर्वोच्च पद पर बैठे एक व्यक्ति और संस्था द्वारा अपनी तनख्वाह की बात सार्वजनिक रूप से करना।
संभव है आने वाले समय में प्रथम नागरिकों के लिए यह एक नज़ीर का काम करे। कुछ शायद इस रेखा के उस तरफ जाएँ और कुछ इस रेखा से प्रतिस्पर्द्धा करें और लंबी लकीर खींचने की कोशिश भी करें। ये तो वक़्त बताएगा।
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(लेखक पिछले 15 सालों से सामाजिक आंदोलनों से जुड़े हैं। समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)
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