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क्यों आबादी को नियंत्रित करने से जुड़ा क़ानून संविधान के मौलिक अधिकार के ख़िलाफ़ है?

इस तरह के प्रावधान का मतलब है कि राज्य अपने नागरिकों को समान तौर पर नहीं देख रहा है। लोक कल्याण से जुड़ी मदद को पहुंचाने के लिए शर्त रख रहा है। आधुनिक राज्य से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती है कि वह अपने नागरिकों के बीच इस तरह का बंटवारा करे। यह एक तरह से राज्य की तरफ से उठाया गया ऐसा कदम हुआ जो अपने आप में लोगों को उत्पीड़ित करेगा।
क्यों आबादी को नियंत्रित करने से जुड़ा क़ानून संविधान के मौलिक अधिकार के ख़िलाफ़ है?

उत्तर प्रदेश विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित जनसंख्या बिल के मसौदे की पहली लाइन ही कहती है कि सीमित संसाधन हैं, इसलिए जनसंख्या नियंत्रण कानून की जरूरी है।

इस बात की खासियत यह है कि यह बात केवल विधि आयोग ही नहीं बता रहा बल्कि जनसंख्या पर नियंत्रण पाने के लिए कानून का इस्तेमाल करने वाला हर समर्थक यही बात करता है। तकरीबन सबके मन में मोटे तौर पर यही तर्क चलता है कि इतने ज्यादा लोग हो जाएंगे तो उनकी जरूरतें कहां से पूरी होंगी, इसलिए ऐसा कदम उठाना जायज है जिसका मकसद बढ़ती हुई जनसंख्या पर लगाम लगाना हो।

प्रस्तावित बिल और ऐसे लोगों के रायशुमारी में दो प्रमुख कमियां है। पहली कमी कि वह इस पूर्वाग्रह के शिकार हैं कि आबादी बढ़ रही है। इस पूर्वाग्रह का जवाब है कि आबादी से जुड़े सरकार के ही आंकड़े देख लिए जाएं। यह आंकड़े बताते हैं कि भारत और उत्तर प्रदेश की आबादी बिल्कुल नियंत्रित है। भारत की कुल आबादी का प्रजनन दर 2.3 और उत्तर प्रदेश की कुल आबादी का प्रजनन दर 2.7 है। यह रिप्लेसमेंट दर 2.1 के बिल्कुल करीब है। जिसका मतलब है कि भारत की जनसंख्या विस्फोट की स्थिति से नहीं गुजर रही। उतने ही बच्चे पैदा हो रहे हैं जितना इस पूरी पीढ़ी को स्थानांतरित करने के लिए जरूरी है।

दूसरी कमी लिमिटेड रिसोर्सेज 'सीमित संसाधन' वाले कथन से जुड़ी है। भारत की असली परेशानी सीमित संसाधन की नहीं है। मौजूदा आबादी के जीवन स्तर को बेहतर करने के लिए भारत के पास भरपूर संसाधन है। कमी गवर्नेंस की है। जिसकी वजह से संसाधनों का असमान बंटवारा बढ़ता जा रहा है। सरकारी गवर्नेंस इतनी अनैतिक और बेईमान किस्म की है कि अमीर लोग ही अमीर होते जा रहे हैं। जिसके पास सरकारी नौकरी है, उसकी मौज है जो प्राइवेट नौकरी कर रहा है, वह सजा काट रहा है।

कुछ लोगों के हाथ में संपत्ति का केंद्रीकरण होते जा रहा है। साल 2020 में 100 बिलेनियर की संपत्ति में हुए इजाफे को अगर सबसे गरीब 10 फ़ीसदी लोगों में बांट दिया जाए तो हर एक व्यक्ति को तकरीबन ₹1 लाख मिल सकता है। मुकेश अंबानी ने कोरोना के दौर में जब औसत व्यक्ति ₹3000 प्रति महीना भी नहीं कमा पा रहा था उस वक्त हर घंटे 90 करोड रुपए की कमाई की थी। तो यह सारे आंकड़े यही बताते हैं कि सरकार के पास पैसा नहीं है, सीमित संसाधन हैं - ऐसी सभी तर्क भ्रम फैलाने के लिए रखे जाते हैं। आबादी नियंत्रित स्थिति में है। संसाधन भरपूर हैं। दिक्कत है तो केवल सरकार नाम की संस्था की, जो न जनकल्याण को तवज्जो देती है और न ही प्रशासन को।

सरकारी बेईमानी की वजह से पैदा हुई परेशानियों से चुनाव में ध्यान हटाने के लिए जनसंख्या कानून लाने का खेल खेला गया है। जनसंख्या कानून का मसौदा जारी किया गया है। तो चलिए कानून की संवैधानिकता की परख कर लेते हैं कि क्या यह कानून संविधान के मूलभूत सिद्धांतों के अनुरूप है भी या नहीं।

मद्रास हाईकोर्ट में वकालत कर रहे वकील सुरहीत पार्थसारथी द हिंदू अखबार के अपने कॉलम में लिखते हैं कि साल 1994 में इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑफ पापुलेशन एंड डेवलपमेंट प्रोग्राम एक्शन के तहत आबादी के मुद्दे पर कुछ सिद्धांत निर्धारित किए गए थे। इन सिद्धांतों को मानने की सहमति कई देशों के साथ भारत ने भी दी थी। यहीं से निकला एक सिद्धांत है कि देशों को जनसांख्यिकी लक्ष्यों से आगे जाकर इस पर ध्यान देना चाहिए बच्चा जन्म देने का अधिकार महिला को ही मिले। यानी महिला ही यह निर्धारित करे कि उसे बच्चा चाहिए या नहीं। इसी आधार पर साल 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन के मामले में फैसला दिया की प्रजनन का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने के अधिकार में शामिल है। व्यक्ति के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत आता है। इसलिए औरत गर्भधारण करें या न करें इसका अंतिम फैसला करने का अधिकार उस औरत को ही है।

केएस पुट्टा स्वामी बनाम भारत सरकार का मामले पर सुप्रीम कोर्ट के नौ जजों की बेंच ने फैसला सुनाया था। इस फैसले को भारत के सबसे महान फैसलों में से एक बताया जाता है। इसी की वजह से निजता का अधिकार मौलिक अधिकार के रूप में घोषित हुआ। निजता का अधिकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन जीने के अधिकार के अंतर्गत शामिल हुआ। इसी फैसले में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि बच्चा जन्म देने का अधिकार गहरे तौर पर निजी फैसला है। किसी के व्यक्तिगत शरीर से जुड़ा फैसला है। ऐसे तमाम तरह के फैसले निजता के अधिकार के अंतर्गत शामिल हैं। अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अंतर्गत आते हैं।

लेकिन फिर से यहां पर कोई तर्क रख सकता है कि मौलिक अधिकार पूरी तरह से व्यक्तिगत अधिकार नहीं होते हैं कि राज्य उन पर किसी भी तरह का प्रतिबंध ही न लगा सके। राज्य चाहे तो लोकहित का मकसद बताकर  मौलिक अधिकारों में भी हस्तक्षेप कर सकता है। मौलिक अधिकारों की भी सीमा तय कर सकता है। इसलिए जनसंख्या नियंत्रण से जुड़ा कानून संवैधानिक तौर पर उचित है।

यह बात बिल्कुल सही है कि लोकहित को ध्यान में रखकर मौलिक अधिकारों के भीतर एक हदतक प्रतिबंध लगाने का अधिकार संविधान देता है। लेकिन इसके पीछे भी एक सिद्धांत काम करता है। ऐसा नहीं हो सकता कि राज्य केवल लोकहित बताकर मौलिक अधिकारों पर प्रतिबंध लगा दे।

कानून और संविधान की तमाम किताबें और सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले इसीलिए आनुपातिकता के सिद्धांत यानी प्रिंसिपल ऑफ प्रोपशियानिलिटी की बात करते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अगर सरकार जनसंख्या नियंत्रण कानून ला रही है और मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप हो रहा है तो इसके लोकहित की जांच अनुपातिकता के सिद्धांत के तहत की जाएगी। इस सिद्धांत के मुताबिक यह देखा जाता है कि लोकहित क्या है? लोकहित का मकसद क्या है? क्या मकसद वाजिब है? क्या कानून और लोकहित के बीच तार्किक संबंध है? क्या कोई दूसरा विकल्प नहीं है, जिससे लोगों का हित भी सध जाए और मौलिक अधिकार में छेड़छाड़ भी न हो।

इस आधार पर देखा जाए तो सबसे पहले यह लोकहित ही सरासर तौर पर गलत नजर आता है कि भारत में किसी भी तरह की जनसंख्या नियंत्रण कानून की जरूरत है। इसकी वजह है कि तमाम तरह के आंकड़े दिखा रहे हैं कि भारत और उत्तर प्रदेश में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति नहीं है। आबादी खुद नियंत्रित स्थिति में बढ़ रही है। इसलिए किसी भी तरह के कानून की जरूरत नहीं है। उस कानून के जरिए ऐसे प्रावधान की जरूरत नहीं है जिससे मौलिक अधिकार प्रतिबंधित होते हैं। इस तरह से यहां पर ना तो लोकहित सिद्ध हो पा रहा है और न ही लोकहित और मौलिक अधिकार के प्रतिबंध के बीच किसी भी तरह का जायज संबंध। इसलिए यह कानून संविधान के मूलभूत सिद्धांतों पर खरा न उतरने की पूरी संभावना रखता है।

यह सारे तर्क रखने के बाद भी उत्तर प्रदेश की सरकार कोर्ट में यह कह सकती है कि यह कानून अनिवार्य प्रकृति वाला नहीं है। यानी यह कानून स्वैच्छिक प्रकृति वाला है। जिसे मर्जी वह अपनाए जिसे न मर्जी वह न अपनाए।

इस पर कानूनी जानकारों का कहना है कि सरकार का यह तर्क भी गलत होगा। वजह यह है कि कानून में साफ-साफ लिखा है जो दो बच्चों की नीति अपनाएगा उसे सरकार की तरफ से कुछ फायदे दिए जाएंगे और जो दो बच्चों के नीति नहीं अपनाएगा उनसे फायदे छीन लिए जाएंगे और कई तरह की सरकारी मदद से उन्हें वंचित कर दिया जाएगा। जैसे कि अगर दो से अधिक बच्चे हैं और परिवार की कुल संख्या 4 से अधिक है तो उन्हें राशन देने से रोक दिया जाएगा।

इस तरह के प्रावधान का मतलब है कि राज्य अपने नागरिकों को समान तौर पर नहीं देख रहा है। लोक कल्याण से जुड़ी मदद को पहुंचाने के लिए शर्त रख रहा है। आधुनिक राज्य से ऐसी अपेक्षा नहीं की जाती है कि वह अपने नागरिकों के बीच इस तरह का बंटवारा करें। यह एक तरह से राज्य की तरफ से उठाया गया ऐसा कदम हुआ जो अपने आप में लोगों को उत्पीड़ित करेगा। लोग नसबंदी करने के लिए मजबूर होंगे। इस तरह से यह कानून अप्रत्यक्ष तौर पर नागरिकों पर दबाव डालता है। उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर राज्य की तरफ से बेवजह का अतिक्रमण करता है। इसलिए यह कानून संवैधानिक मान्यताओं के अनुरूप बिल्कुल नहीं है और न ही किसी तरह की जायज होने की संभावना रखता है।

यह केवल ऐसी तार्किक बात नहीं है जिसे भारत सरकार मानने से इनकार करती है। बल्कि भारत सरकार की तरफ से परिवार और स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालय ने पिछले साल सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट दायर करके खुद कहा था कि कई सारे अंतरराष्ट्रीय अनुभव बताते हैं कि राज्य की तरफ से दो बच्चों की नीति अपनाने के लिए बनाया गया किसी भी तरह का ऐसा कानून जो नागरिकों के बीच उत्पीड़न की संभावना पैदा करता है उसने ढंग के परिणाम नहीं दिए हैं। बल्कि इससे जनसंख्या की संरचना गड़बड़ हो गई। लिंगानुपात बिगड़ गया और लंबे दौर के लिए जनसांख्यिकी संरचनाओं पर गहरा प्रभाव पड़ा।

इन सब बातों का कहीं से भी यह मतलब नहीं है कि परिवार नियोजन पर ध्यान नहीं देना चाहिए। इन सभी बातों का महज यही मतलब है कि मौजूदा समय में जनसंख्या कानून के जरिए जनसंख्या नियंत्रित करने की वकालत करना क्यों गलत है।

सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने नागरिकों की उन जरूरतों को पूरी करे जो उनकी जायज परेशानियों से जुड़ी हुई है। न कि वैसी परेशानी को जन्म दे जो किसी भी तरह से जायज नहीं है और जिसका समाधान कई तरह के नाजायज परिणाम पैदा कर सकता है।

लोगों को रोजगार देकर लोगों की आमदनी बढ़ाकर लोगों के जीवन स्तर में सुधार किया जा सकता है। सुधरा हुआ जीवन स्तर खुद परिवार नियोजन के बारे में सोचने में सहायक होगा। अपने जीवन के बारे में जरूरी फैसले खुद ले पाएगा। अगर यह नहीं किया जाएगा और कानून पर ध्यान दिया जाएगा तो इसका उल्टा असर पड़ सकता है। सबसे अधिक प्रभावित अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग होंगे जहां कुल प्रजनन दर 3.1 से ऊपर है। लेकिन इनके पास जीवन स्तर सुधारने के लिए किसी भी तरह की सरकारी मदद की पहुंच नहीं है। इस कानून से औरतें बहुत ज्यादा प्रभावित होंगी। बच्चे के तौर पर लड़के की चाह रखने वाला भारतीय समाज जबरन औरतों को परेशान करेगा। अशिक्षित औरतों को असुरक्षित अबॉर्शन से गुजरना पड़ेगा। औरतों की नसबंदी बढ़ेगी। लिंग अनुपात में गड़बड़ होगा। इन सभी परेशानियों का कारण केवल कानून बनेगा।

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