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यूपी स्थानीय निकायों के चुनावों में क्या भाजपा पसमांदा मुसलमानों को लुभा पाएगी? 

भाजपा के ख़िलाफ़ अल्पसंख्यकों में बढ़ते ग़ुस्से के मद्देनज़र, पार्टी ने लगभग 350 मुसलमान उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। लेकिन स्थानीय निकाय चुनाव पार्टियों से ज़्यादा व्यक्तित्वों के बारे में होते हैं।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

उत्तर प्रदेश में होने वाले शहरी स्थानीय निकायों के चुनाव सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की मुस्लिम पहुंच के मामले में लिटमस टेस्ट होंगे। मई 2023 में होने वाले इन चुनावों में कट्टर हिंदुत्व पार्टी ने लगभग 350 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है।

मुसलमानों के बीच अपनी लोकप्रियता की जांच करने के लिए, भाजपा ने नगर पालिकाओं के अध्यक्ष से लेकर नगर निगमों के काउंसिलर जैसे कई पदों पर मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है।

राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य, उत्तर प्रदेश में, 760 यूएलबी हैं और 14,684 पदों के लिए चुनाव होंगे, जिनमें 17 मेयर और 1,420 पार्षद पद शामिल हैं, मतदान 4 मई और 11 मई को दो चरणों में होंगे। परिणाम 13 मई को घोषित किए जाएंगे।

भाजपा का 'नया प्रयोग'

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए, बीजेपी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के चेयरमैन कुंवर बासित अली ने बताया कि यह नया प्रयोग है और उनकी पार्टी चुनावों में अब तक लगभग 350 मुस्लिम उम्मीदवारों की घोषणा कर चुकी है।

उन्होंने बताया कि, "अभी हम और अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारने पर विचार कर रहे हैं और जल्द ही लगभग 100 और उम्मीदवारों की घोषणा की जाएगी।" अली ने इस बात की भी पुष्टि की कि बीजेपी ने मेयर पद के लिए किसी भी मुस्लिम उम्मीदवार को मैदान में नहीं उतारा है। 

भाजपा की नज़र पसमांदा (जो सामाजिक रूप से पीछे रह गए हैं या पिछड़े हैं) मुसलमानों पर है और इसलिए उन्हें सबसे ज्यादा टिकट दिया गया है। विशेष रूप से, उत्तर प्रदेश में, पसमांदा मुसलमानों की कुल आबादी का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा है। पसमांदा मुसलमानों के नेताओं का दावा है कि वे राज्य में समुदाय की आबादी का लगभग 85 प्रतिशत हिस्सा हैं।

हालांकि, पार्टी ने समुदाय के लिए किसी भी किस्म की रियायत की घोषणा नहीं की है। पार्टी नेतृत्व का मानना है कि मुफ्त राशन वितरण जैसी लोकलुभावन योजनाओं से लाभान्वित मुसलमान पार्टी के पक्ष में मतदान करेंगे।

क्या यह आंखों में धूल झोंकने जैसा है?

हालांकि, उत्तर प्रदेश में पसमांदा नेतृत्व भाजपा की मुस्लिम पहुंच को "आंखों में धूल झोंकने" के रूप में देखता है। मोमिन अंसार सभा के अकरम अंसारी ने इस लेखक को बताया कि भाजपा ने कई मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है लेकिन उनकी शिकायतों को समझने के लिए कभी भी समुदाय से जमीन पर जुड़ने का कोई प्रयास नहीं किया है। 

अंसारी का कहना है कि, दक्षिणपंथी इकोसिस्टम और नेताओं के नफ़रत भरे भाषणों और धमकियों ने मुस्लिम समुदाय को भाजपा के करीब आने से रोक दिया है। 

इसके अलावा, मुस्लिमों को टिकट देने के पीछे भाजपा की असल मंशा को लेकर राजनीतिक हलकों में भी बहस चल रही है। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि पार्टी का उद्देश्य विभिन्न मुसलमानों के बीच उनकी सामाजिक स्थिति के आधार पर विभाजन पैदा करना है।

मुसलमानों पर हमले 

राजनीतिक टिप्पणीकारों का यह भी मानना है कि मुसलमानों का विश्वास जीतना भाजपा के लिए एक कठिन काम है, क्योंकि पार्टी संघ परिवार की चाल पर चलती है, जिसमें मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है।

2014 में सत्ता में भगवा पार्टी का प्रभुत्व बढ़ने के बाद से मुस्लिम समुदाय बढ़ते अपमान और भेदभाव का सामना कर रहा है। मुसलमानों के प्रति दक्षिणपंथी पारिस्थितिकी तंत्र की शत्रुता ने उनके जीवन को कठिन बना दिया है।

समुदाय के जीवन, संस्कृति, शिक्षा और यहां तक कि उनके व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप कर  लगातार किए जा रहे हमलों ने मुसलमानों को भगवा दल के प्रति अधिक सावधान बना दिया है। गोरक्षकों द्वारा लिंचिंग की घटनाओं की बढ़ती संख्या और कुछ हिंदू त्योहारों के दौरान देखी गई हिंसा ने भी भाजपा और मुसलमानों के बीच की खाई को चौड़ा कर दिया है।

देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय में सत्तारूढ़ व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा पनप रहा है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में, हिंदुत्व नेता लगातार उनके खिलाफ ज़हर उगल रहे हैं, उन्हें धमका रहे हैं, और मुसलमानों का आर्थिक बहिष्कार करने का आह्वान कर रहे हैं। कुछ प्रमुख दक्षिणपंथी लोगों ने पैगंबर सहित पूजनीय/माननीय मुस्लिम शख्सियतों को भी निशाना बनाया है।

मुसलमानों के भीतर लामबंदी 

भेदभावपूर्ण नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ बड़े पैमाने पर हुए विरोध के बाद मुस्लिम समुदाय ने खुद को पहले से कहीं अधिक मजबूत बना लिया है, जिस आंदोलन के दौरान उन्हें पूर्वोत्तर दिल्ली में बड़े पैमाने पर हिंसा और यूपी जैसे भाजपा शासित राज्यों में पुलिस की कार्रवाई का सामना करना पड़ा था। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम आरक्षण पर लगाई गई रोक पर स्थगन आदेश दिया है, जिसे भाजपा के नेतृत्व वाली कर्नाटक सरकार खत्म करने का प्रयास कर रही है।

तो, स्थानीय निकाय चुनावों में बीजेपी द्वारा मुसलमानों को इतने टिकट देने का क्या मतलब है?

बीबीसी के पूर्व ब्यूरो चीफ समीरत्मज मिश्रा ने इस लेखक को बताया कि भाजपा ने पहले भी विधानसभा और आम चुनावों में मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, लेकिन इस बार वह इसका ज्यादा प्रचार कर रही है। उन्होंने कहा कि बीजेपी ने दानिश अंसारी जो पसमांदा मुस्लिम हैं को योगी आदित्यनाथ सरकार में शामिल किया और जिसके ज़रिए वह पसमांदाओं को लुभाने की कोशिश कर रही है। 

उन्होंने कहा, "इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मुस्लिम भगवा ब्रिगेड से नाराज़ हैं। उनका यह गुस्सा उनके साथ हो रहे भेदभाव और भाजपा सरकारों के तहत हुई कार्रवाई के कारण है।"

मिश्रा ने कहा कि, "ऐसी विपरीत परिस्थितियों में, मुझे नहीं लगता कि वे भाजपा को वोट देंगे," और कहा कि "यदि कोई भाजपा उम्मीदवार जीतता भी है, तो यह उसके व्यक्तित्व के कारण होगा, न कि उस पार्टी के कारण जिसने उसे मैदान में उतारा है।"

संयोग से, भाजपा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति तारिक मंसूर को भी अपने मुस्लिम आउटरीच के हिस्से तौर पर उत्तर प्रदेश विधान परिषद में नामित किया है।

आगामी यूएलबी चुनावों को राज्य में 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले राजनीतिक दलों के लिए "सेमीफाइनल" के रूप में देखा जा रहा है, जो राज्य 80 सांसदों को लोकसभा में भेजता है।

भाजपा की पसमांदा मुसलमानों के बीच पैठ बनाने की कोशिश 

पिछले साल अगस्त में भाजपा के हैदराबाद अधिवेशन के दौरान मुसलमानों में पैठ बनाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दे गए इशारों के बाद, पार्टी अक्टूबर 2022 से यूपी में "पसमांदा" मुसलमानों से जुड़ने का प्रयास कर रही है।

राज्य के कुछ भाजपा नेताओं का दावा है कि वे पिछले कुछ महीनों से बैठकों, सम्मेलनों आदि के ज़रिए पसमांदा मुसलमानों को लुभाने के लिए लगातार अभियान चला रहे हैं।

राजनीतिक प्रतिनिधित्व का सवाल 

हालांकि, राजनीतिक ऑबजरवर्स का मानना है कि यूएलबी चुनावों में, पार्टी के चिन्ह का कोई महत्व नहीं होता है, क्योंकि लोग अक्सर व्यक्तित्व के आधार पर मतदान करते हैं।

शिया डिग्री कॉलेज में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर वसी रजा का मानना है कि स्थानीय निकाय के चुनावों में मतदाताओं का मतदान करने का पैट्रन विधानसभा और आम चुनावों से अलग होता है। उन्होंने बताया कि "उम्मीदवार के व्यक्तित्व में पार्टी के चिन्ह से अधिक वजन होता है।"

भाजपा के खिलाफ मुस्लिम नाराज़गी पर रजा ने कहा कि दूसरा कारण राजनीतिक प्रतिनिधित्व का सवाल है। भाजपा उन्हें कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं दे रही है। मुख्तार अब्बास नकवी का राज्यसभा कार्यकाल खत्म होने के बाद से नरेंद्र मोदी सरकार में कोई मुस्लिम मंत्री नहीं है।

आजादी के बाद केंद्र में यह पहली सरकार है जिसकी मंत्रिपरिषद में कोई मुस्लिम  प्रतिनिधित्व नहीं है और सत्ता पक्ष में कोई मुस्लिम निर्वाचित संसद सदस्य नहीं है।

लेखक उत्तर प्रदेश स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें :

UP Local Body Polls Will be Acid Test for BJP’s Pasmanda Muslim Outreach

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