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भारत संविधान पर चलेगा या सभ्यता की संकीर्ण व्याख्या पर? तय करना होगा

कुछ वर्ष पहले संविधान से अनुच्छेद 370 हटाया गया था. हमारे उच्चतम न्यायालय को अभी यह फैसला देना बाकी है कि यह निर्णय संवैधानिक था या नहीं. हाल में, नुपूर शर्मा और अन्यों ने जो नफरत भरी बातें कहीं उनका तब तक संज्ञान नहीं लिया गया जब तक की खाड़ी के देशों ने पैगम्बर मुहम्मद के अपमान पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. इस समय बुलडोज़र राज चल रहा है और चुन-चुन कर मुसलमानों के घरों को ज़मींदोज़ किया जा रहा है. क्या यह सब हमारे संवैधानिक मूल्यों से मेल खाता है?
constitution

संवैधानिक मूल्यों को परे रखकर जो कुछ किया या नहीं किया जा रहा है, उसे समझने के लिए हमें देश पर शासन कर रही राजनैतिक ताकतों की प्रवृत्तियों का गहराई से अध्ययन करना होगा. नरेन्द्र मोदी ने 2014 में ही कह दिया था की वे हिन्दू राष्ट्रवादी हैं. शासक दल के पितृ संगठन आरएसएस के एजेंडा में भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना शामिल है. इन तथ्यों के प्रकाश में हम वर्तमान हालातों को कैसे समझें? जहाँ हम भारतीय राष्ट्रवाद की बात करते हैं वहीं आज के भारत की सबसे शक्तिशाली पार्टी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करती है.

इस राजनीति से जुड़े चिन्तक-विचारक और सत्ताधारी दल के उच्च पदाधिकारी अपने भाषणों और वक्तव्यों से वर्तमान घटनाक्रम के पीछे के सच को उद्घाटित कर रहे हैं. इन दिनों 'सिविलाइज़ेशन नेशन' (सभ्यता पर आधारित राष्ट्र) की बात चल रही है – अर्थात ऐसे देश की जो अपनी सभ्यता से मार्गदर्शित होगा न कि कानून से. जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू), दिल्ली की कुलपति शांतिश्री धुलिपुड़ी पंडित ने 21 मई 2022 को कहा कि भारत 'सभ्यता पर आधारित राष्ट्र' है और उसे संविधान से बंधा नागरिक राष्ट्र नहीं बनना चाहिए. उनके अनुसार, "भारत को संविधान से बंधा नागरिक राष्ट्र बनाना, उसके इतिहास, प्राचीन विरासत, संस्कृति और सभ्यता को नज़रअंदाज़ करना होगा. मैं भारत को सभ्यता पर आधारित राष्ट्र मानतीं हूँ."   

सभ्यता की क्या परिभाषा है? इन सब विद्वतजनों की यह स्पष्ट मान्यता है कि हिन्दू धर्म, भारतीय सभ्यता का मूल आधार है. वे इतिहास की गलत व्याख्या के लिए वामपंथी इतिहासकारों को दोषी ठहराते हैं और कहते हैं कि इन इतिहासकारों ने इस्लाम और विशेषकर मुसलमानों, और उनमें भी मुगलों, को अनावश्यक महत्व दिया है. उन्हें इस बात का दुख है कि हमारे राष्ट्रीय विमर्श में हिन्दू राजाओं जैसे चोल राजवंश को पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया और विदेशी मुगलों को ज़रुरत से ज्यादा महत्व दिया गया. इसके अतिरिक्त, हिन्दू राजाओं की प्रकृति और व्यापार-व्यवसाय व संस्कृति के ज़रिये अन्य क्षेत्रों पर उनकी विजय को भी समुचित महत्व नहीं दिया गया.      

हिन्दू राजा बनाम मुस्लिम राजा का आख्यान इस मूलभूत तथ्य को नज़रअंदाज़ करता है कि वे सभी निरंकुश शासक थे और दोनों धर्मों के राजाओं की सेनाएं लूटपाट करतीं थीं. चोल राजाओं ने जम कर लूटपाट की और वे श्रीलंका से हजारों लोगों को गुलाम बनाकर भारत लाये. क्या यह शांतिपूर्वक हुआ होगा? क्या इन राजाओं ने लोगों से अपील की होगी कि आप कृपया हमारे गुलाम बन जाएँ? बौद्ध सम्राट अशोक ने लोगों का बहुत भला किया. अकबर सुलह-कुल (विभिन्न धर्मों में सद्भाव) में विश्वास करता था. हिन्दू सम्राट पुष्यमित्र शुंग ने कई बौद्ध विहारों को नष्ट किया था. क्या हम केवल हिन्दू राजाओं को भारतीय सभ्यता का प्रतिनिधि मान सकते हैं?

भारत विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है सूफी (मुस्लिम) और भक्ति (हिन्दू) संत. दोनों ने प्रेम को धर्म का केंद्रीय तत्व बताया और उनके अनुयायी सभी धर्मों से थे.

'सिविलाइज़ेशन नेशन' की बात करने वालों के विपरीत, स्वाधीनता संग्राम के नेताओं ने भारत के इतिहास को समावेशी और एक-दूसरे को स्वीकार करने वाला बताया. गाँधीजी ने लिखा, "मुस्लिम राजाओं के शासन में हिन्दू फलेफुले और हिन्दू राजाओं के राज में मुसलमान समृद्ध हुए...अंग्रेजों के आने के साथ झगडे शुरू हुए...क्या हमें यह याद नहीं रखना चाहिए की कई हिन्दुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक ही हैं और उनकी रगों में एक-सा खून बहता है."  

गांधीजी के शिष्य नेहरु ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया में लिखा कि यहाँ विविध धर्म और संस्कृतियाँ एक-दूसरे से घुलेमुले और उन्होंने उस विविधता को जन्म दिया जो हम आज देख सकते हैं. वे लिखते हैं, "भारत एक ऐसे प्राचीन चर्मपत्र की तरह है जिस पर एक के ऊपर कई सतहों में चीज़ें लिखीं गयीं परन्तु हर नई सतह पिछली सतह को पूरी तरह से नहीं ढँक सकी...". और "यद्यपि सतही तौर पर देखने से ऐसा लग सकता कि हम लोगों में भारी विविधता है और असंख्य प्रकार के लोग भारत में रहते हैं परन्तु हमारे देश पर एकता की छाप भी एकदम स्पष्ट है. इसी ने हम सबको सदियों से एक दूसरे से जोड़े रखा, विशेषकर तब जब राजनैतिक अफरातफरी हुई या हम पर कोई मुसीबत आई. भारत की एकता मेरे लिए केवल एक बौद्धिक अवधारणा नहीं है बल्कि एक भावनात्मक अनुभव है जो मुझे अभिभूत कर देता है."

ये सब मूल्य राष्ट्र के रूप में निर्मित होते भारत की वैचारिक नींव थे. ये वे मूल्य थे जो उभरते हुए भारत का प्रतिनिधित्व करते थे. जो लोग स्वाधीनता संग्राम से दूर रहे वे प्राचीन हिन्दुओं का गुणगान करते रहे और मुसलमानों और ईसाईयों को बाहरी बताते रहे. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की पुस्तक 'इंडियन नेशन इन द मेकिंग' इसी उभरते हुए भारत की थीम पर लिखी गई थी.

इसके विपरीत थे वे लोग जो ब्रिटिश-विरोधी आन्दोलन का हिस्सा नहीं थे और जिनकी जडें ज़मींदार-पुरोहित गठबंधन में थीं. उन्होंने धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ा और उसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नाम दिया. यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म पर आधारित था. उसके पुरोधा गोलवलकर लिखते हैं, "हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि राष्ट्र 'केवल आर्थिक और राजनैतिक अधिकारों का समूह नहीं है' – संस्कृति भी उसका हिस्सा है. भारत की यह संस्कृति 'प्राचीन और उदात्त" हिन्दू धर्म है जो प्रेम से परिपूर्ण है और किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया की भावना से युक्त नहीं है." आंबेडकर ने बिलकुल सही लिखा था की ब्राह्मणवाद हिन्दू धर्म की सबसे वर्चस्ववादी धारा है और उसे ही हिन्दू धर्म मान लिया गया है.

उसके पहले सावरकर ने हिंदुत्व की नींव रखते हुए उसे केवल एक धर्म नहीं बल्कि 'पूर्ण हिन्दू-वाद" बताया था. उनके अनुसार हिंदुत्व के तत्वों में शामिल हैं आर्य नस्ल, सिन्धु नदी से लेकर समुद्र तक का भूभाग और संस्कृति. संस्कृति से उनला आशय होता है ब्राह्मणवादी संस्कृति हालाँकि इसके लिए अक्सर अधिक उपयुक्त ब्राह्मणवादी हिन्दू धर्म की जगह केवल हिन्दू शब्द का प्रयोग किया जाता है. 

भारत की सभ्यता और संस्कृति के कई आयाम हैं. इसमें चार्वाक भी है, बुद्ध और कबीर भी और सूफी, रहीम और रसखान भी. जो लोग पहले सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते थे अब वे 'सिविलाइज़ेशन नेशन' जो संविधान से बंधा नहीं है की बात कर रहे हैं. उनका मतलब वही है – भारतीय संविधान के प्रावधानों और मूल्यों की अवहेलना. 

(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) 

साभार : सबरंग 

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