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क्या बजट में पूंजीगत खर्चा बढ़ने से बेरोज़गारी दूर हो जाएगी?

बजट में पूंजीगत खर्चा बढ़ जाने से क्या बेरोज़गारी का अंत हो जाएगा या ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और ही बात कह रही है?
unemployment
Image courtesy : Mint

बेरोजगारी की भीषण परेशानी मीडिया मैनेज के हथकंडे से बाहर जा चुकी है। इसलिए जब बजट प्रस्तुत हुआ, तो सबसे अधिक चर्चा यही थी कि क्या इस बजट से बेरोजगारी का हल निकल पाएगा? जो विश्लेषक सरकार के नेटवर्क का हिस्सा है, वह कई मदों में आवंटित किए गए पैसे पर यह राय भी दे रहे थे कि इससे रोजगार पैदा होगा।

जबकि मोटी हकीकत यह है कि बजट एक साल का होता है। एक साल के बजट में पहले से चली आ रही योजनाओं का आवंटन और पहले से काम कर रहे कामगारों का मेहनताना भी शामिल होता है। कहने का मतलब यह है कि अगर भारत में रोजगार दर 38% है तो बजट में खर्चे का वितरण इस सोच के साथ होता है कि रोजगार दर 38% से कम ना हो। जबकि भारत की बेरोजगारी की परेशानी यही है कि भारत का रोजगार दर 38% है। काम करने लायक भारत की बहुत बड़ी आबादी बिना काम के बैठी है। भारत का रोजगार दर पूरी दुनिया की औसत रोजगार 57% से कम है। भारत के बराबर आबादी वाला चीन का रोजगार दर 63% के आसपास है। यानी 38% से 60% का रोजगार दर हासिल करने के लिए केवल बजट के आवंटन से काम नहीं चलने वाला।

बजट का कुल खर्चा देख लीजिए। बजट  प्रपत्रों के मुताबिक साल 2022 - 23 का बजट का आकार 39.45 लाख करोड़ का है। जो पिछले साल से 4.5% बढ़ा हुआ है। अगर 6% के आसपास की महंगाई दर मिला देते हैं तो यह बढ़ा हुआ आकार भी पिछले साल के बराबर ठहरेगा। या इससे कम हो जाए। आर्थिक जानकारों का कहना है कि पिछले साल के बजट के मुकाबले इस साल का बजट कुल जीडीपी का तकरीबन 1 फ़ीसदी कम है। यानी हकीकत में बजट के आकार में बढ़ोतरी नहीं हुई है। अब जब बजट के आकार में बढ़ोतरी हुई ही नहीं है तो यह कैसे संभव है कि भारत की बेरोजगारी की परेशानी का अंत हो जाए। रोजगार दर 38% को पार करते हुए सीधे 60% तक पहुंच जाए। यह नामुमकिन है। इसलिए रोजगार के मुद्दे पर काम करने वाले अर्थशास्त्र के प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि भारत को बेरोजगारी खत्म करने के लिए स्पष्ट नीति की जरूरत है।

इस मोटी हकीकत के बाद भी रोजगार पैदा करने के लिए कैपिटल एक्सपेंडिचर पर बहुत सारी चर्चा हो रही है। बजट प्रपत्र में लिखा है कि साल 2021 - 22 के बजट ऐस्टीमेट के मुकाबले साल 2022 - 23 के बजट में कैपिटल एक्सपेंडिचर के लिए तकरीबन 1 लाख 96 करोड रुपए अधिक आवंटित किया जा रहा है। जो पिछले साल से तकरीबन 35.6% अधिक है। सरकार कहती है कि यह आबंटन बताता है कि सरकार बुनियादी ढांचे के विकास में निवेश कर अर्थव्यवस्था की बढ़ोतरी करने के लिए प्रतिबद्ध है। इसी एक बिंदु पर टीवी के बहसों से लेकर अखबार के पन्नों पर सबसे अधिक चर्चा हुई इस एक बिंदु के सहारे यह बात फैलाने की कोशिश की गई कि बजट का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यही है। इस से बहुत अधिक रोजगार पैदा होगा। बेरोजगारी का माहौल दूर होगा।

इस विषय पर चर्चा करने से पहले आपको मोटे तौर पर बता देते हैं कि कैपिटल एक्सपेंडिचर का मतलब क्या होता है? कैपिटल एक्सपेंडिचर यानी कि पूंजीगत खर्चे - वैसे खर्चे जो बुनियादी ढांचों पर किए जाते हैं। क्योंकि ऐसे खर्चे सड़क और रेलवे जैसी बुनियादी ढांचे के निर्माण से जुड़े होते हैं, इसलिए ऐसे खर्चे केवल 1 साल के लिए नहीं होते। बल्कि तब तक खर्च किए जाते हैं जब तक बुनियादी ढांचा विकसित ना हो जाए। इनका फायदा भी केवल 1 साल के लिए नहीं होता है बल्कि तब तक होता है जब तक बुनियादी ढांचा रहता है। यह कैपिटल एक्सपेंडिचर से जुड़ी हुई बुनियादी बात है।

35% अधिक आवंटन के साथ इस बार के बजट में कैपिटल एक्सपेंडिचर यानी पूंजीगत व्यय के तौर पर 7.50 लाख करोड़ रुपए आवंटित की गई है। अगर इस पूरी राशि को तोड़ दें तो बात यह है कि इसका 51 हजार करोड रुपए तो एयर इंडिया का बकाया निपटान करने में चला जाएगा। सरकार कंपनी बेचने का यह भी धंधा गजब है। कंपनी से जुड़ा बैंक का बकाया सरकार चुकाती है और मुनाफा कमाने के लिए प्राइवेट कंपनी को बेच देती है।

7.50 लाख करोड़ रुपये के पूंजीगत खर्च में से 1.52 लाख करोड़ रुपये तक़रीबन 20% रक्षा सेवाओं से जुड़े बुनियादी ढांचे पर खर्च की जाएगी। रेलवे के लिए 1.37 लाख करोड़ रुपये (कुल पूंजी परिव्यय का तक़रीबन 18%) दिया गया है। सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के लिए तकरीबन  1.88 लाख करोड़ रुपये (पूरी पूंजी परिव्यय का तक़रीबन एक-चौथाई) का प्रावधान किया गया है)।

आर्थिक पत्रकार वी श्रीधर न्यूज़क्लिक पर लिखते हैं कि सड़क जैसे बुनियादी ढांचे पर प्राइवेट क्षेत्र निवेश नहीं करता है। इसलिए मजबूरन नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया को खुद इन्वेस्ट करना पड़ रहा है। यह प्राधिकरण पहले से ही बहुत अधिक कर्ज में डूबा हुआ है। कर्ज से निकलने के लिए नेशनल मोनेटाइजेशन पाइप लाइन वाली नीति अपनाई गई है। जिसके तहत अच्छी खासी छूट पर सड़क को पट्टे पर प्राइवेट क्षेत्र को दिया जाता है। मकसद यह होता है कि सरकार पैसे की कमी की वजह से सड़कों का विस्तार नहीं कर पा रही है। सड़कों को प्राइवेट क्षेत्र के देने पर पैसा मिलेगा और सड़कों का विस्तार होगा। लेकिन ध्यान से देखा जाए तो सरकार का तर्क भी समझ से बाहर है। बजट के माध्यम से सड़क विस्तार के लिए पैसा दिया गया है। अब यह पैसा सड़क बनाने पर खर्च होगा। लेकिन कमाई करने के लिए अच्छी खासी छूट पर प्राइवेट क्षेत्र को दे दिया जाएगा। इसका मतलब क्या है?

यह तकनीकी बात हुई। ऐसी ही तकनीकी झोलझाल रेलवे पर होने वाले कैपिटल एक्सपेंडिचर और रेलवे से जुड़े नेशनल मोनेटाइजेशन पाइप लाइन की नीति के साथ भी है। जहां पर सरकार बुनियादी ढांचा बना तो देगी लेकिन कमाई करने के लिए अच्छी खासी छूट पर उसे प्राइवेट क्षेत्र को सौंप दिया जाएगा। 

व्यावहारिकता के धरातल पर पूंजीगत खर्च को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जब सड़क बनती है, तो सबसे अधिक कमाई नेता कांट्रेक्टर और कारोबारी की होती है। इनका छोटा हिस्सा कमाई का बड़ा हिस्सा लेकर चला जाता है। जबकि बड़ी मात्रा में लगे हुए मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी मिलती है। ऐसे में वही सवाल बनता है कि कैसे यह कहा जाए कि कैपिटल एक्सपेंडिचर बढ़ा देने से भारत की मांग बढ़ जाएगी। और मांग इतनी बढ़ जाएगी कि रोजगार दर बढ़कर के 60% के पास चला जाएगा? अगर यह बहुत बड़ा लक्ष्य है तो कम से कम सरकार को इतना तो बताना चाहिए कि जब तक तकरीबन  साढ़े सात लाख करोड रुपए पूंजीगत व्यय पर खर्च होंगे तो उससे कुल कितनी रोजगार पनपने की संभावना बनती है?

कई सारे अध्ययनों से पता चला है कि जब पूंजीगत व्यय के तौर पर एक रुपए खर्च किया जाता है, तो एक से लेकर के 7 साल के अंतराल के बाद एक रुपए का ढाई रुपए से लेकर के साढ़े 4 रुपए तक मिलता है। लेकिन वहीं पर जब राजस्व व्यय के तौर पर  एक रुपए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर दिया जाता है,तो इसका 50 पैसा से लेकर के 98 पैसा तक लौट कर आने की संभावना होती है। यानी पूंजीगत खर्चा करने पर कमाई ज्यादा होती है और राजस्व खर्चा करने पर कमाई कम होती है। लेकिन इस अध्ययन से यह बात पता नहीं चलती कि पूंजीगत खर्चा करने पर रोजगार कितना पैदा होता है? जो अधिक कमाई हो रही है उसका बड़ा हिस्सा किसके पास चला जाता है? जिस तरह की भारत की अर्थव्यवस्था की प्रवृत्ति होती जा रही है, वह धन के संकेंद्रण वाली है। कुछ लोगों के हाथ में ही अधिकतर पूंजी सिमटी हुई है। कुछ लोगों के हाथ में ही सारा संसाधन सिमटा हुआ है। साल 2019-20 में भारत में रजिस्टर्ड तकरीबन 9.2 लाख कंपनियों में से केवल 433 कंपनियों ने आधे से अधिक कॉरपोरेट टैक्स का भुगतान किया।

ऐसे में यह जाहिर है कि सड़क बनाने के लिए बजट में आवंटित किया गया पैसा कमाई के तौर पर सबसे अधिक मुनाफा पैसे वालों को ही दिलाए। ऐसे में अर्थव्यवस्था में मांग कैसा पैदा होगी? रोजगार की परेशानी का अंत कैसे होगा?

रोजगार पैदा करने का सीधा फार्मूला है। अर्थव्यवस्था को उसके कुचक्र से बाहर निकालना। भारत की अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा  कुचक्र यह है कि अर्थव्यवस्था में मांग की कमी है। लोगों के जेब में पैसा नहीं है। जो अमीर है वहीं उपभोक्ता वर्ग है। केवल 20-25 करोड़ लोग ऐसे हैं जो खर्च करने से पहले अपनी जेब की चिंता नहीं करते। नहीं तो भारत की आबादी का बड़ा वर्ग जेब पहले देखता है, बाद में खर्च करता है। खर्च बढ़ाने का एक यह तरीका है कि जितनी आबादी को रोजगार चाहिए, उतनी आबादी को रोजगार मिले। जिन्हें न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी मिल रही है, उन्हें वाजिब मजदूरी मिले। आर्थिक असमानता दूर हो। नहीं तो सभी वादे फेल साबित होंगे।

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