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महिला किसान दिवस: खेत से लेकर सड़क तक आवाज़ बुलंद करती महिलाएं

तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे आंदोलन के बीच आज महिला किसान दिवस मनाया गया। जिसमें कई अन्य महिला वादी संगठनों ने भी शिरकत की और प्रदर्शन के अलग-अलग जगह से मार्च निकाला।
महिला किसान दिवस

यूं तो महिला किसान दिवस की अपनी एक अलग अहमियत है लेकिन आज हज़ारों महिला किसान, जो देश की राजधानी की सीमाओं पर डटी हुई हैं उन्होंने इसकी अलग ही परिभाषा गढ़ दी है। वो ‘दिल्ली चलो’ आंदोलन की महज़ समर्थक ही नहीं बल्कि उसमें बराबर की भागीदार भी हैं। वो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अपने हक़ की लिए लड़ाई लड़ रही हैं, नारे लगा रही हैं और सत्ता की आंखों में आंखें डाल उनकी नींद उड़ा रही हैं।

किसान आंदोलन में शामिल दिल्ली के सिंघु, टिकरी और गाज़ीपुर बॉर्डर पर बैठी औरतें सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस शरद अरविंद बोबडे को भी जवाब दे रही हैं, जिन्होंने इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका को लेकर कई टिप्पणियां कीं। इन टिप्पणियों को महिला किसान रूढ़िवादी और समाज की पितृसत्तामक सोच की नुमाइश के तौर पर देख रही हैं।

आपको बता दें कि 11 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट में चीफ़ जस्टिस बोबडे ने सवाल किया था कि 'इस विरोध प्रदर्शन में महिलाओं और बुज़ुर्गों को क्यों शामिल किया गया है?' जस्टिस बोबडे ने वरिष्ठ वकील एच एस फुल्का से कहा कि 'वो आंदोलन में शामिल महिलाओं और बुज़ुर्गों को प्रदर्शन स्थल से घर वापस जाने के लिए राज़ी करें।'

महिलावादी संगठनों का महिला किसान मार्च

महिला किसान दिवस के अवसर पर अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन समेत कई महिलावादी कार्यकर्ताओं ने एकजुट होकर सोमवार, 18 जनवरी को प्रदर्शनकारी महिलाओं के समर्थन और केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ़ प्रदर्शन के अलग-अलग जगहों से एक मार्च निकाला। इस मार्च का नाम ‘हर महिला का हाथ, महिला किसानों के साथ’ दिया गया। इस दौरान सभी ने एक सुर में सरकार से नए कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग की।

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सिंघु बार्डर के मंच से महिला किसानों को संबोधित करते हुए ऐपवा की राष्ट्रीय सचिव कविता कृष्णनन ने कहा, “आपके संघर्ष ने दिल्ली की सर्दी में गरमाहट ला दी है, मोदी सरकार के दंभ को भीतर से हिला दिया है और देश के लोकतंत्र को मज़बूत कर दिया है।”

चीफ़ जस्टिस बोबडे की टिप्पणी का जवाब देते हुए कविता ने कहा, “महिलाओं की जगह चारदिवारी में बंद नहीं है, हम पिंजरें में बंद नहीं रहेंगे। हम सड़कों पर आएंगे, संघर्षों में आएंगे, जुलूसों में आएंगे सभी युद्धों में आएंगे। सारी महिलाओँ की जगह सड़क पर है, संघर्ष में है।”

कविता ने कहा कि जब-जब देश का लोकतंत्र खतरे में पड़ता है और लोग सोच में पड़ जाते हैं कि अब क्या होगा, तब-तब गरीब वर्ग और महिलाएँ ऐसी लड़ाई खड़ी कर देते हैं, जिससे देश के संविधान में नई जान आ जाती हैँ। ये लड़ाई खेती बचाने की है क्योंकि खेती बचेगी तभी राशन बचेगा और तभी देश का लोकतंत्र बचेगा।

कृषि क्षेत्र में महिलाओँ की भूमिका

भारत में कृषि क्षेत्र में आधी आबादी का अहम योगदान है। इन्हें ग्रामीण अर्थव्यवस्था का रीढ़ भी कहा जाता है। जनगणना 2011 के सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में छह करोड़ से ज़्यादा महिलाएं खेती के व्यवसाय से जुड़ी हैं।

हालांकि भारत में क़ानूनी रूप से सिर्फ़ उन्हीं महिला किसानों को किसान का दर्जा दिया जाता है जिनके नाम पर भूमि का पट्टा होता है और ये गिनती महज़ नामभर की है।

देश में भूमिहीन महिला किसानों का एक बड़ा तबक़ा है, जो छोटे से खेत को किराये पर लेकर अपने स्तर पर खेती करता है। इस खेती में वह अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए ज़रूरी अनाज को पैदा करने की कोशिश करती हैं। खेत नहीं मिलने की स्थिति में यही महिलाएं क़स्बों में जाकर मज़दूरी आदि भी करती हैं।

आवधिक श्रमबल सर्वेक्षण साल 2018-19 के आँकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में 71.1 फ़ीसद महिलाएं कृषि क्षेत्र में काम करती हैं। वहीं, पुरुषों का प्रतिशत मात्र 53.2 फ़ीसद है। इसके साथ ही आँकड़े ये भी बताते हैं कि खेतिहर मज़दूर वर्ग में भी महिलाओं की भागीदारी काफ़ी ज़्यादा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या खेतों में काम करने वाली महिलाएँ अपने हित-अहित को समझते हुए आंदेलन में भीगदार नहीं हो सकती।

नेशनल काउंसिल ऑफ़ एप्लाइड इकॉनमिक रिसर्च के मुताबिक़, वर्ष 2018 में देश के कृषि क्षेत्र के कुल कामगारों में महिलाओं की हिस्सेदारी 42 फ़ीसद थी। लेकिन आज भी महिलाएं, खेती के लायक़ केवल दो फ़ीसद ज़मीन की ही मालिक हैं।

पंजाब किसान यूनियन से ताल्लुक़ रखने वाली जसबीर कौर नट अपनी साथी महिला किसानों के साथ अभी भी टिकरी बॉर्डर पर धरने पर डटी हुई हैं। वो कहती हैं कि जब तक सरकार ये क़ानून वापस नहीं लेती, वो घर नहीं लौटेंगी।

जसबीर के अनुसार, "महिलाओं को इस विरोध प्रदर्शन से अलग नहीं रखा जा सकता। हम भी बराबर के नागरिक हैं, हमें भी अपनी बात रखने और अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाने का पूरा अधिकार है। महिलाएं इस आंदेलन में बराबर की भागिदारी हैं और हम सरकार को ये बता देना चाहते हैं कि जब तक ये काले कानून वापस लेने ही होंगे, हम यहीं डटे रहेंगे।"

महिलाओं का सड़कों पर संघर्ष

आज़ादी की लड़ाई से लेकर चिपको आंदोलन तक देश में महिलाओं के संघर्ष की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। हालांकि साल 2020 में जिस तरह नागरिक संशोधन कानून के खिलाफ महिलाएं बड़ी संख्या में सड़कों पर उतरीं, सर्द रातों में अपनी आवाज़ बुलंद की, उसने आने वाले दिनों में महिला आंदोलनों की एक नई इबारत लिख दी।

बीते साल तस्वीरों में पुलिस से भिड़ती कॉलेज की लड़कियां हों या फिर हाड़ कंपाने वाली सर्दी में बैठी शाहीन बाग़ की दादियां, सबने ये जाहिर कर दिया कि अब वो चुपचाप सब कुछ होते नहीं देखेंगी, वो बदलाव के लिए संघर्ष करेंगी।

कृषि बिलों के ख़िलाफ़ किसान आंदोलनों में भागीदारी करती गांव-गांव से राष्ट्रीय राजधानी का सफ़र तय करने वालीं महिलाएं, इस बात का सबूत है कि वो समय आने पर कृषि क्षेत्र में अपने अदृश्य योगदान से पर्दा उठाकर, देश को ये एहसास करा सकती हैं कि खेती-बाड़ी में उनकी भूमिका कितनी बड़ी और महत्वपूर्ण है।

न्यूज़क्लिक से बात करते हुए अनहद की शबनम हाशमी कहती हैं कि आज का महिला किसान दिवस बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि आज पूरे देश की महिलाएं इस किसान आंदोलन से जुड़ रही हैं, जोर-शोर से इसमें शामिल हो रही हैं।

शबनम के अनुसार ये इसलिए भी जरूरी है क्योंकि आज से पहले महिला किसानों को लेकर हमारे देश में कभी इतनी व्यापक स्तर पर बातचीत नहीं हुई है। महिला किसानों की वास्तविक स्थिति को उज़ागर करने में आज का दिन अहम भूमिका निभाएगा।

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