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भारतीय शिक्षा जगत में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अभी भी कम है

लैंगिक समानता के मुद्दों को काम के अभ्यास में शामिल किया जाना चाहिए, और महिलाओं के करियर की प्रगति को पदोन्नति, मानदंडों द्वारा समर्थित होना चाहिए जो करियर ब्रेक और अंशकालिक काम की अनुमति देते हैं।
Teacher

शिक्षा में नामांकन बड़ी वृद्धि और भारत सरकार द्वारा लागू की गई लैंगिक समानता पहल के बावजूद, महिलाओं को अभी भी उच्च शिक्षा संस्थानों में बेहतर प्रतिनिधित्व नहीं मिल पा रहा है।

यह लेख शिक्षा मंत्रालय द्वारा उच्च शिक्षा पर कराए गए उस अखिल भारतीय सर्वेक्षण (एआईएसएचई) की रिपोर्टों की पड़ताल करता है, जिसका उद्देश्य देश में उच्च शिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक डेटा एकत्र करना है।

शिक्षा जगत में महिलाओं के लगातार कम प्रतिनिधित्व पर रोशनी डालते हुए, यह लेखिका भारत में अधिक समावेशी और न्यायसंगत शैक्षणिक माहौल को बढ़ावा देने की दिशा में त्वरित बातचीत, नीतिगत हस्तक्षेपों और ठोस प्रयासों को प्रेरित करने का प्रयास करती है।

उच्च शिक्षण संस्थान लैंगिक समानता को बढ़ावा देने और एक समावेशी समाज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह भूमिका तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब इन संस्थानों में प्रमुख, डीन या कुलपति जैसे नेतृत्व पदों पर महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व होता है। ये महिलाएं गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा और अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए लिंग संतुलन दृष्टिकोण सुनिश्चित कर सकती हैं। हालांकि, साहित्य से पता चलता है कि विभिन्न आर्थिक और सामाजिक कारकों के कारण, शैक्षिक विस्तार के बावजूद उच्च शिक्षण संस्थानों में महिलाओं को नेतृत्व के पदों को चुनने की प्रवृत्ति बहुत कम रही है।
'उच्च शिक्षा में महिलाएं: क्या महिला लाभ ने लैंगिक असमानताओं को खत्म कर दिया है?' विषय पर यूनेस्को की रिपोर्ट-2021 के अनुसार, शिक्षा के शीर्ष स्तर पर और शिक्षाविदों और शोधकर्ताओं के बीच महिलाओं की कमी है। हालांकि निचले शैक्षिक स्तर पर शिक्षण स्टाफ में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अधिक है, लेकिन दुनिया भर में तृतीयक शिक्षा में उनकी उपस्थिति में गिरावट आई है।

भारत में शिक्षा मंत्रालय द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि 2019-20 में प्राथमिक स्तर पर स्कूली शिक्षकों के रूप में काम करने वाली महिलाओं की संख्या उनके साथी पुरुष शिक्षकों के आंकड़ों को पार कर गई है। हालाँकि, उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार, उच्च प्राथमिक स्तर के बाद से पुरुष शिक्षकों की संख्या महिला शिक्षकों से अधिक है।

विश्वविद्यालय शिक्षकों के रूप में श्रम बल में भाग लेने के लिए महिलाओं का निर्णय और क्षमता केवल पसंद का मामला नहीं है, बल्कि विभिन्न आर्थिक और सामाजिक कारकों का परिणाम है जो घरेलू और वृहद स्तर पर जटिल तरीके से मिलते हैं। हालांकि, सबसे महत्वपूर्ण चालकों में से एक जो महिलाओं को विश्वविद्यालय शिक्षकों के रूप में शामिल होने में सक्षम बनाता है, वह है गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा और अनुसंधान को हासिल करना। 

उच्च शिक्षा तक पहुंच को सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) के संदर्भ में मापा जाता है, जिसकी गणना 18 से 23 वर्ष की आयु वर्ग के व्यक्तियों की कुल जनसंख्या में उच्च शिक्षा संस्थानों में नामांकित व्यक्तियों के अनुपात के रूप में की जाती है।

एआईएसएचई रिपोर्ट के अनुसार, इसी अवधि के दौरान अखिल भारतीय स्तर पर पुरुष आबादी का जीईआर 2012-13 में 22.7 फीसदी से बढ़कर 2021-22 में 28.3 फीसदी हो गया है और महिला आबादी का 20.1 फीसदी से बढ़कर 28.5 फीसदी हुआ है। जीईआर में उल्लेखनीय वृद्धि के कारण 2019-20 में पहली बार महिला छात्रों की संख्या पुरुष छात्रों की तुलना में अधिक हो गई है।

आमतौर पर यह माना जाता है कि स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद महिलाएं शैक्षणिक पदों तक पहुंचने के लिए उन्नत डिग्री हासिल कर सकती हैं, अनुसंधान में शामिल हो सकती हैं, नेतृत्व की भूमिका निभा सकती हैं और अपने पुरुष समकक्षों के बराबर वेतन अर्जित कर सकती हैं। हालांकि, यह धारणा सच साबित नहीं हुई है।

2021-22 की एआईएसएचई (AISHE) के अनुसार, शिक्षकों (प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर, सहायक प्रोफेसर, प्रदर्शक, अस्थायी शिक्षक और विजिटिंग शिक्षक) की कुल संख्या लगभग 16 लाख है, जिनमें से 43 फीसदी महिलाएं हैं।

उच्च शिक्षा में शिक्षकों को विश्वविद्यालय-स्तर, कॉलेज-स्तर और स्टैंड-अलोन संस्थानों में विभाजित किया जा सकता है। स्टैंड-अलोन संस्थान आम तौर पर डिप्लोमा/पीजी डिप्लोमा-स्तर के कार्यक्रम चलाते हैं जिनके लिए एक या अन्य वैधानिक निकायों से मान्यता की आवश्यकता होती है। विश्वविद्यालय स्तर पर शिक्षकों की कुल संख्या लगभग 2.50 लाख है, जिनमें से 38.4 फीसदी महिलाएं हैं। कॉलेज स्तर पर शिक्षकों की संख्या लगभग 11.8 लाख है, जिनमें से 44.4 फीसदी महिलाएं हैं। व्यापक तस्वीर पर नज़र डाले तो, यह विश्लेषण स्टैंड-अलोन संस्थानों सहित उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों की कुल संख्या पर आधारित है।

रिपोर्ट के अनुसार, सबसे कम लिंग अनुपात बिहार में दर्ज किया गया है, जहां उच्च शिक्षा में शिक्षकों की कुल संख्या लगभग 38,000 है, जिनमें से 2021-22 में केवल 24 फीसदी महिला शिक्षक थीं। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में 30.5 फीसदी महिला शिक्षकों के साथ झारखंड में दूसरा सबसे कम लिंग अनुपात पाया गया है।

वहीं, केरल, पंजाब, हरियाणा, चंडीगढ़, मेघालय, नागालैंड, दिल्ली और गोवा जैसे राज्यों में पुरुष शिक्षकों की तुलना में महिला शिक्षक अधिक हैं। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में पुरुष और महिला शिक्षकों का वितरण निम्नलिखित चित्र/चार्ट में प्रस्तुत किया गया है। नीचे दिया गया आंकड़ा शिक्षण पदों में लिंग अनुपात का विवरण देता है, विशेष रूप से प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और सहायक प्रोफेसर के स्तर पर यह विवरण स्टीक है।

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उपरोक्त तालिका दर्शाती है कि उच्च शिक्षा में महिला सहायक प्रोफेसरों का प्रतिनिधित्व उल्लेखनीय रूप से कम है, और एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर जैसे अधिक उन्नत पदों के लिए यह अनुपात और भी कम हो जाता है। पूरे भारत के स्तर पर, 44.41 फीसदी सहायक प्रोफेसर महिलाएं हैं, लेकिन 2021-22 में एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पद पर ये संख्या घटकर क्रमशः 37.85 फीसदी और 29.52 फीसदी हो गई है।

2011-12 से 2021-22 के दौरान सभी स्तरों पर महिला शिक्षाविदों की हिस्सेदारी में लगभग 4 फीसदी की उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। हालांकि, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के पदों पर महिला प्रतिनिधित्व में आई असमानता में काफी हद तक कोई बदलाव नहीं है।

इससे पता चलता है कि पुरुष समकक्षों की तुलना में महिला विश्वविद्यालय शिक्षकों की पदोन्नति में देरी हो रही है। उच्च पदों पर पदोन्नति में ऐसी देरी अक्सर इसलिए होती है क्योंकि महिला फ़ैकल्टी सदस्य चयन प्रक्रिया में भेदभाव के अलावा, शादी और गर्भावस्था की प्रक्रिया में वरिष्ठता खो देती हैं। चूंकि महिलाओं को एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के रूप में पदोन्नति पाने के अपेक्षाकृत कम अवसर मिलते हैं, इसलिए वे उच्च पदों से जुड़े कुछ विशेषाधिकार भी खो देती हैं।

उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रतिस्पर्धी माहौल होता है जो समय पर चयन और पदोन्नति पाने के लिए प्रकाशन, कार्यशालाओं/सेमिनारों में भागीदारी और उद्यमशीलता और अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लंबे समय तक काम करने की जरूरत को दर्शाता है।

सामाजिक बाधाओं और लिंग-संबंधी बाधाओं के कारण ये कार्य-गहन आवश्यकताएं कम महिला-अनुकूल प्रतीत होती हैं। ये लिंग-तटस्थ आवश्यकताएं अक्सर महिलाओं के लिए कार्य-जीवन संतुलन बनाए रखने में समस्याएं पैदा करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप महिला फ़ैकल्टी को दंड झेलना पड़ सकता है।

इसलिए, जब तक विश्वविद्यालयों के भीतर ढांचागत बदलाव लागू नहीं किए जाते हैं, लैंगिक समानता में विकास बहुत धीमा होगा। लैंगिक समानता के मुद्दों को काम के अभ्यास में शामिल किया जाना चाहिए, और महिलाओं के करियर की प्रगति को पदोन्नति मानदंडों से समर्थन मिलना चाहिए जो प्रकाशनों और अनुदान पुरस्कारों की संख्या की तुलना में गुणवत्ता पर अधिक ध्यान केंद्रित करके करियर ब्रेक और अंशकालिक काम की अनुमति देते हैं।

लेखक, एलएस कॉलेज, बीआरए बिहार विश्वविद्यालय, मुजफ्फरपुर में सहायक प्रोफेसर (इलेक्ट्रॉनिक्स) हैं। विचार निजी हैं। 
 

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