Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतों में फिर होती बढ़ोतरी से परेशान मेहनतकश वर्ग

नवंबर से स्थिर रहे पेट्रोल-डीज़ल के दाम महज़ 5 दिनों में 4 बार बढ़ाये जा चुके हैं।
petrol price hike
Image courtesy : Mint

मार्च की 26 तारीख पर खत्म हुए पांच दिनों में देश में पैट्रोल तथा डीजल के दाम में चार-चार बार बढ़ोतरी की जा चुकी थी और आगे भी रोज-रोज इन दामों में बढ़ोतरी होने के आसार हैं। इस क्रम में हर बार दाम में 80 पैसा प्रति लीटर की बढ़ोतरी की गयी है और इस प्रकार एक सप्ताह में ही दाम में 3 रुपये 20 पैसा प्रति लीटर की बढ़ोतरी कर दी गयी। इसके चलते, राजधानी दिल्ली में पैट्रोल की कीमत बढ़कर 98 रु 61 पैसा प्रति लीटर हो गयी और डीजल की 89 रु 87 पैसा प्रति लीटर।

दाम में बढ़ोतरी की अपरिहार्यता का झूठा तर्क

तेल के दाम में इस बढ़ोतरी की सफाई में यह कहा जा रहा है कि पिछले कई महीने से (जाहिर है कि कई राज्यों के विधानसभाई चुनाव के चलते) तेल कंपनियों द्वारा वसूल की जा रही तेल की कीमतें, अंतर्राष्टï्रीय बाजार में तेल की कीमतें बढऩे के बावजूद, भारत में जस की तस ही बनी रही थीं और कच्चे तेल की कीमतों में बढ़ोतरी का बोझ तेल कंपनियों को उठाना पड़ रहा था। अब जबकि तेल कंपनियों को कीमतें बढ़ाने की इजाजत दे दी गयी है, वे कीमतों को दुरुस्त कर रही हैं। जाहिर है कि इस दुरुस्ती का बोझ तो उपभोक्ता पर ही पडऩे जा रहा है क्योंकि सरकार तो तेल के हरेक लीटर पर लगने वाले कर में कमी कर के राजस्व में कमी का बोझ उठा नहीं सकती है।

तेल की कीमतें बढ़ाए जाने के ताजातरीन चक्र से पहले, तेल कंपनियों ने आखिरी बार तेल की कीमतें पिछले साल 4 नवंबर को बढ़ाई थीं। दलील दी जा रही है कि उसके बाद, 137 दिन तक तो तेल कंपनियों ने तेल की कीमतों में कोई बढ़ोतरी की ही नहीं थी। लेकिन, इस अवधि में अंतर्राष्टï्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत, 82 डालर प्रति बैरल से बढक़र 117 डालर प्रति बैरल हो गयी है और इसका अर्थ यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों को ही 2.25 अरब डालर यानी 19,000 करोड़ रु0 के राजस्व का नुकसान हुआ है। अब इन कंपनियों को कीमतें बढ़ानी पड़ेेंगी ताकि राजस्व के इस तरह के नुकसान को रोक सकें। वास्तव में अगर विश्व बाजार में तेल की कीमतें 100 डालर प्रति बैरल के स्तर पर आकर टिक की भी जाती हैं, तब भी कच्चे तेल के दाम में बढ़ोतरी के बोझ को पूरी तरह से कंपनियों के ऊपर से हटाकर आगे बढ़ाने के लिए, तेल की खुदरा कीमतों में 9 से 12 रु0 प्रति लीटर तक की बढ़ोतरी करनी होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि अगर इस सब के बीच सरकारों को, जिसमें केंद्र तथा राज्य, दोनों स्तर की सरकारें शामिल हैं, राजस्व में कोई कमी नहीं झेलनी है, तो राजधानी दिल्ली में पैट्रोल के दाम में करीब 7 रु0 प्रति लीटर की बढ़ोतरी अभी और करनी होगी। याद रहे कि यह भी तब है जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम, 100 डालर प्रति बैरल के स्तर पर टिक जाएं।

बढ़ोतरी की मार मेहनतकशों पर ही पड़ेगी

लेकिन, इस समूची दलील में, असली मुद्दा छोड़ ही दिया जाता है। तेल की कंपनियां जब तेल के दाम बढ़ाती हैं, तो उससे सिर्फ पैट्रोल उत्पादों के खुदरा दाम में बढ़ोतरी भर नहीं होती है, इससे अर्थव्यवस्था में आम मुद्रास्फीति पैदा होती है क्योंकि तेल के दाम में यह बढ़ोतरी, तमाम लागतों को बढ़ाने का काम करती है। ऐसा होने की स्थिति में, पहले जितना ही वास्तविक खर्च लक्ष्य हासिल करने के लिए भी, सरकार को रुपयों मेें अपने खर्च में बढ़ोतरी करनी होती है और इसके लिए सरकार के अपने राजस्व में भी बढ़ोतरी करनी होगी। इसका अर्थ यह है कि वास्तविक खर्चे के पहले वाले लक्ष्यों को पूरा करने के लिए भी, सरकार को तेल उत्पादों पर रुपए में अपने कर में बढ़ोतरी करनी होगी।

संंक्षेप में यह कि तेल उत्पादों की कीमतें बढ़ाने का कदम, सिर्फ तेल कंपनियों के दाम बढ़ाने के कदम तक ही सीमित नहीं रहता है। इसका बहुगुणनकारी प्रभाव पड़ता है। इससे, दूसरे छोर तक उन सभी एंटिटीज़ को दाम बढ़ाने ही होते हैं, जिन तक तेल उत्पादों की खुदरा कीमत का कोई भी हिस्सा पहुंचता है। इससे मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी और भी ज्यादा हो जाती है।

ऐसे हालात में कीमतें किसी बिंदु पर सिर्फ उसी सूरत में ठहर सकती हैं, जब रुपया आय पाने वाले कुछ लोग, कीमतों में इस बढ़ोतरी की भरपाई के लिए अपनी रुपया आय को नहीं बढ़ाते हैं। यानी जब तक एक हिस्सा सिर्फ ‘कीमतें झेलने वाले’ की भूमिका अदा करता है, न कि ‘कीमतें तय करने वाले’ की भी भूमिका। इस तरह की भूमिका तो सिर्फ मेहनतकशों की ही हो सकती है। दूसरे शब्दों में तेल उत्पादों पर कर लगाने के जरिए, सरकार के लिए संसाधन जुटाने की राजकोषीय रणनीति, अनिवार्य रूप से यह मानकर ही चलती है कि इससे मेहनतकश जनता पर चोट पड़ेगी। लेकिन, अगर मेहनतकशों पर इसकी चोट नहीं पड़ती है और मुद्रास्फीति के  साथ-साथ उनकी रुपया आय भी बढ़ती चलती है, तब तो मुद्रास्फीति का कोई अंत ही नहीं होगा। इसलिए, यह तो पूरी की पूरी रणनीति ही, मेहनतकशों पर चोट करने के तर्क पर ही टिकी हुई है। एक ओर इस तरह की रणनीति अपनाना और दूसरी ओर मेहनतकश जनता के नाम पर आंसू बहाना, पाखंड की ही इंतिहा है।

यह तो सरकार की राजकोषीय रणनीति का मामला है

इस संदर्भ में गौर करने वाली बात यह है कि इसकी कोई स्वचालकता नहीं है कि तेल की खुदरा कीमतें बढऩी ही बढऩी चाहिए क्योंकि विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ गयी है। खुदरा तेल की कीमतों का बढऩा, कच्चे तेल की अंतर्राष्टï्रीय बाजार की कीमतों के बढऩे का कोई अपरिहार्य परिणाम नहीं है। तेल उत्पादों के खुदरा दाम का बढऩा तो एक राजकोषीय रणनीति है। अगर विश्व बाजार में तेल की कीमतें बढऩे से, देश में खुदरा बाजार में तेल की कीमतों का बढऩा जरूरी हो जाता है, तो सिर्फ इस रणनीति की वजह से और तभी तक जब तक कि यह रणनीति अपरिवर्तित रहती है। इसलिए, तेल उत्पादों की खुदरा कीमतों में बढ़ोतरी की अपरिहार्यता की बात करना, इस राजकोषीय रणनीति को ही अपरिहार्य मान लेना है। और इसलिए, यह जनता से इस तथ्य को छुपाना है कि यह एक छांटकर चुनी गयी रणनीति का मामला है, एक सोच-समझकर अपनाए गए रास्ते का मामला है। सचाई यह है कि इस समय तेल की खुदरा कीमतों में आधे से ज्यादा हिस्सा तो केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा लगाए गए करों का ही है।

बहरहाल, राज्य सरकारों की बात फिर भी समझ में आती है। उनके पास तो राजस्व के स्रोत ही बहुत थोड़े हैं, जिनसे से अपने विवेक से राजस्व जुटा सकती हों। जीएसटी के लागू किए जाने के बाद से, उनके अपने विवेक से कर लगा सकने का क्षेत्र बहुत ही सिकुड़ गया है और पैट्रोलियम उत्पाद उन तीन मालों में से एक हैं, जिनके मामले में कर की दर पहले ही जीएसटी काउंसिल द्वारा तय नहीं कर दी गयी है और राज्य सरकारें अपने विवेक से इस कर की दरों को तय कर सकती हैं। इसलिए, राज्य सरकारों का तेल उत्पादों पर कर लगाना फिर भी बखूबी समझा जा सकता है। उनके पास तो इस मामले में कोई खास विकल्प है ही नहीं क्योंकि वे प्रत्यक्ष कर तो लगा नहीं सकती हैं।

लेकिन, केंद्र सरकार के पास तो अन्य उपायों से संसाधन जुटाने की काफी गुंजाइशें हैं। लेकिन, वह जान-बूझकर इन अन्य मौकों का उपयोग नहीं कर रही है। इसलिए, अमीरों पर कर लगाने के बजाए, उसका तेल उत्पादों पर कर वसूल करने का सहारा लेना, उसके सोचे-समझे चुनाव का मामला है। यह वर्गीय झुकाव का मामला है। इसलिए, इसमें अपरिहार्यता वाली कोई बात नहीं है।

मार तो गरीबों पर ही पड़ रही है

किसी को यह लग सकता है कि पैट्रोलियम उत्पादों का उपयोग मुख्यत: अमीर करते हैं और इसलिए उन पर कर लगाने से, गरीबों पर कोई खास असर नहीं पडऩा चाहिए। लेकिन, यह धारणा गलत है और इसके कम से कम तीन कारण हैं। पहला तो यही कि पैट्रोलियम उत्पादों में ऐसे उत्पाद भी हैं जिनका सीधे मेहनतकशों द्वारा उपयोग किया जाता है। रसोई गैस इसका स्वत:स्पष्टï उदाहरण है। दूसरे, पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढऩे से परिवहन लागतें बढ़ जाती हैं और इसके चलते सभी मालों की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिसमें खाद्यान्नों जैसी बुनियादी जरूरत की चीजें भी शामिल हैं, जिनमें गरीबों के कुल उपभोग का बहुत बड़ा हिस्सा जाता है। तीसरे, अगर पैट्रोलियम उत्पाद प्रत्यक्ष या परोक्ष, किसी भी रूप में मेहनतकश जनता द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले मालों के उत्पादन या परिवहन, किसी में भी नहीं आते हों और सिर्फ पूंजीपतियों की जरूरत के मालों के ही उत्पादन में लगते हों, तब भी पूंजीपति इन मालों पर अपना पहले जितना ही वास्तविक नियंत्रण बनाए रखने के लिए, पैदा होने वाले मालों की कीमत में अपने मुनाफे वाला हिस्सा बढ़ा देंगे और इस तरह, उन मालों के दाम बढ़ा देंगे, जिनका उपभोग कामगार करते हैं। इसलिए, पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी की मार गरीबों ही ज्यादा पड़ती है, न कि अमीरों पर। अमीर तो महंगाई की मार से खुद को सुरक्षित रखने के कदम उठाने की स्थिति में होते हैं और इसके लिए कदम उठाते भी हैं।

यह बखूबी मुमकिन है कि विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढऩे के बावजूद, देश में पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें ज्यों की त्यों बनाए रखी जाएं बल्कि उन्हें घटा भी दिया जाए। ऐसा किया जा सकता है एक ऐसी वैकल्पिक राजकोषीय रणनीति को अपनाने के जरिए, जो राजस्व जुटाने के लिए अमीरों पर प्रत्यक्ष कर लगाने का सहारा लेती हो। ऐसे करों में, संपदा तथा उत्तराधिकार कर प्रमुख हैं। लेकिन, एक सवाल यह भी पूछा जा सकता है कि पैट्रोलियम उत्पादों के घरेलू उपभोग को ही क्यों न घटाया जाए, जो कि इसलिए और भी जरूरी हो गया है कि कच्चे तेल की कीमतें डालरों में बढ़ती हैं। पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतें बढ़ाएंगे नहीं तो, उनका घरेलू उपभोग घटाएंगे कैसे?

तेल उपभोग घटाने का बेहतर उपाय है राशनिंग

लेकिन, कीमतें बढ़ाने के जरिए, उपभोग में कमी की कोशिश की समस्या यह है कि जो ‘कीमतें भुगतने’ वाले नहीं बल्कि ‘कीमतें तय करने’ वाले होते हैं, वे तो कीमत बढऩे पर भी पैट्रोलियम उत्पादों के अपने वास्तविक उपभोग को ज्यों का त्यों बनाए रख सकते हैं। उस सूरत में जैसा कि हम देख चुके हैं, एक ही वर्ग है जिसका ऐसे उत्पादों का उपभोग कीमतों के बढऩे से घट सकता है और वह कीमतें भुगतने वालों का यानी मेहनतकशों का वर्ग है। उनके मामले में भी आम तौर पर कोशिश इसकी ही रहती है कि अन्य  मालों के उपभोग में बचत की जाए ताकि पैट्रोलियम उत्पादों का उपभोग नहीं घटाना पड़े। इस तरह, इससे तो अर्थव्यवस्था में मंदी ही पैदा होती है और कहीं ज्यादा बेरोजगारी पैदा होती है। वास्तव में यही है जो उपभोग में कटौती का साधन बन जाता है। लेकिन, पैट्रोलियम उत्पादों के उपभोग में कमी करने का एक कहीं ज्यादा शर्तिया, दरिद्रता न बढ़ाने वाला, गैर-मुद्रास्फीतिकारी तथा गैर-मंदीकारी यानी मंदोस्फीति न पैदा करने वाला उपाय है, कीमतों पर नियंत्रण लगाने के साथ, इन उत्पादों की वैधानिक राशनिंग की व्यवस्था अपनाना।

राशनिंग करना, पूरी आबादी के बीच पैट्रोलियम उत्पादों के वितरण में न्यायपूर्णता लाने का उपाय है। कीमतों में बढ़ोतरी के जरिए, जो निहितार्थत: राशनिंग लागू की जाती है, मूलत: गैर-समतापूर्ण होती है। लेकिन, खुदरा कीमत पर नियंत्रण रखने के साथ, प्रत्यक्ष राशनिंग करना, पूरी आबादी के बीच पैट्रोलियम उत्पादों का कहीं ज्यादा समतापूर्ण वितरण कराता है।

इसलिए, विश्व बाजार में कच्चे तेल की कीमतों के बढऩे के हालात से निपटने के लिए, नीतियों के एक समुच्चय की जरूरत होगी। इसके लिए ऐसी राजकोषीय नीति चाहिए, जो अमीरों पर प्रत्यक्ष कर लगाने का ही सहारा ले। इसके लिए पैट्रोलियम उत्पादों की कीमतों पर नियंत्रण रखने तथा यहां तक कि उन्हें कम करने तक की जरूरत होगी। और पैट्रालियम उत्पादों के वितरण में मात्रात्मक राशनिंग करनी होगी ताकि कुल कच्चे तेल आयातों को एक सीमा में रखा जा सके, न कि इन उत्पादों की कीमतें बढ़ाने के जरिए ऐसा किया जाए। लेकिन, इस नीतिगत समुच्चय की जगह अगर भारत उसी नीति पैकेज पर चलने पर अड़ा रहता है, जिस पर अब तक चलता आया है, तो हमारा देश बहुत ही तकलीफों भरे समय की ओर बढ़ रहा होगा।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest