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जल संकटग्रस्त बुंदेलखंड को बंजर बनाने की तैयारी

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष: पिछले एक दशक से बुंदेलखंड की लगभग दो करोड़ आबादी इतिहास के सबसे भयंकर सूखे का सामना कर रही है। लेकिन सरकार कभी बक्सवाहा के जंगल से हीरा निकालने के नाम पर, कभी केन-बेतवा परियोजना के लिए लगभग 20 लाख पेड़ों की बलि देने पर आमादा है।
जल संकटग्रस्त बुंदेलखंड को बंजर बनाने की तैयारी

पांच जून विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर इस बार सबसे अधिक चर्चा बक्सवाहा (छतरपुर, मध्य प्रदेश) के जंगलों पर हो रही है। पिछले कुछ दिनों से सेव बक्सवाहा फॉरेस्ट ट्विटर पर ट्रेंड हो रहा है। लोग किसी भी कीमत में जंगल नहीं कटने देना चाहते है। लोग अपने इलाके को पर्यावरणीय दृष्टि से तबाह नहीं होने देना चाहते है। बक्सवाहा बुंदेलखंड का वह इलाका है जो सर्वाधिक जल संकटग्रस्त है। इस इलाके की टोपोग्राफी भी बहुत विचित्र है। अधिकांश लोग वर्षा आधारित खेती करते है, सिंचाई का कोई स्थायी साधन नहीं है। जिसके कारण हर साल किसान मानसून से जुआ खेलते हैं। इस इलाके में स्थानीय सहयोग से जल संरक्षण का कार्य किया जाता है। उस दौरान इस इलाके को बहुत जानने समझने का मौका मिलता है।

पिछले एक दशक से बुंदेलखंड की लगभग दो करोड़ आबादी इतिहास के सबसे भयंकर सूखे का सामना कर रही है। लेकिन सरकार कभी बक्सवाहा के जंगल से हीरा निकालने के नाम पर, कभी केन-बेतवा परियोजना के लिए लगभग 20 लाख पेड़ों की बलि देने पर आमादा है। इससे पहले खजुराहो-झांसी 4-लेन सड़क निर्माण में बुंदेलखंड के परंपरागत महुआ, जामुन, पीपल, बरगद, पाकर के 10 हजार से अधिक पेड़ काट दिये गये। हालांकि सरकारी आंकड़ों में इसकी संख्या न्यूनतम दिखाई गई है। इस तरह बुंदेलखंड में विकास के नाम पर विनाश की इबारत लिखी जा रही है।

प्राकृतिक संसाधनों के लूट की वजह से ही बुंदेलखंड की आज यह दुर्दशा है। अंधाधुंध रेत और पत्थरों के खनन ने पहले ही बुंदेलखंड केा जल संकटग्रस्त बना दिया था। अब बक्सवाहा में 300 हेक्टेअर जंगल को उजाड़ कर हीरे के खनन का सपना देखा जा रहा है। हीरा निकलेगा या नहीं, यह तो समय बताएगा, परंतु बक्सवाहा का जंगल जरूर नष्ट हो जाएगा। वैसे बक्सवाहा में जमीन से हीरा निकालने के लिए 2 लाख, 15 हजार से अधिक पेड़ काटे जाने की चर्चा ने सबको आंदोलित कर दिया है। मध्यप्रदेश के युवा सोशल मीडिया पर सेव बक्सवाहा फॉरेस्ट (save buxwaha forest) टूलकिट के जरिये लोगों को जागरूक कर रहे हैं, तो छोटे स्कूली बच्चे भी सोशल मीडिया में पेड़ बचाने के लिए सक्रिय हो गये हैं।

जल और पर्यावरण के लिए दशकों से काम कर रहे संजय सिंह बताते हैं, कि पेड़ काटने से इस इलाके की जैव विविधता प्रभावित होगी। इंडियन काउंसिल ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च एजुकेशन एक पेड़ की औसत उम्र 50 साल मानते हैं,  50 साल में एक पेड़ 50 लाख की कीमत की सुविधा देता है और इन 50  सालों में एक पेड़ 23 लाख 68 हजार रुपये की वायु प्रदूषण कम करता हैसाथ ही 20 लाख रुपये कीमत की भू-क्षरण नियंत्रण और उर्वरता बढाने का भी काम करता है। वृक्ष हमारे लिए कितने महत्वपूर्ण हैइस बात का अंदाजा इससे लगता है। दूसरी तरफ यहां के जंगलों में तेंदुआभालूचिंकाराचौसिंगा सहित दर्जनों दुर्लभ वन्य प्राणियों का प्राकृतिक रहवास हैं। पन्ना टाइगर रिजर्व के बाघों को लगे रेडियो कॉलर की लोकेशन कई बार इसी इलाके में मिले।

दरअसल छतरपुर जिले के बक्सवाहा में बंदर डायमंड माइन्स के नाम से विख्यात हीरा परियोजना का विरोध इस बात के लिए हो रहा है, कि इसके लिए जंगल के लगभग ढाई लाख पेड़ काटे जाएंगे। हालांकि इस परियोजना का विरोध वर्ष 2007 से लेकर 2016 तक भी हुआ था। जिसके चलते ऑस्ट्रेलिया की कंपनी रियो टिंटो को उल्टे पांव वापस जाना पड़ा था। अब हीरा खदान को दोबारा निविदा होने के बाद कटने वाले पेड़ों की संख्या काफी कम होने के बावजूद लोग इसलिए विरोध में खड़े हैं, क्योंकि लोग पर्यावरण के प्रति जागरूक हो चुके हैं। पेड़ों को बचाने के लिए मध्यप्रदेश के युवाओं का अभियान जोर पकड़ रहा है।

जबलपुर के 21 वर्षीय प्रियांष तिवारी ने बताया, कि हमें यह समझना होगा कि हमें प्राण वायु के लिए पेड़ चाहिए या हीरा। उसने कहा, देश में पेड़ों को बचाने की मुहिम कहीं भी चले, इसे राजनीति एवं गुटों से ऊपर उठकर चलाने से ही इसे कामयाब बनाया जा सकता है। प्रियांश ने बताया, इससे कहीं ज्यादा पेड़ केन-बेतवा परियोजना में भी जा रहे हैं। जो बुंदेलखंड के लिए ठीक नहीं है। लोगों को अब समझना होगा, कि उनके सेहत के लिए क्या जरूरी है। इसलिए हम लोगों को ऑनलाइन टूलकिट बनाना पड़ा, ताकि लोग जागरूक हों। अभी तक इस मुहिम में भारत के 500 से अधिक लोग जुड़ चुके हैं। हमारी इच्छा है, कि विदेश के युवा भी इससे जुड़ें और पर्यावरण की रक्षा में आगे आकर हमारा साथ दें, इसमें गलत क्या है!

21 वर्षीय बी.कॉम के छात्र वैभव शर्मा बक्सवाहा से लगभग 200 किलोमीटर दूर जबलपुर में बैठकर सोशल मीडिया में पेड़ बचाने की मुहिम चला रहे हैं। उन्होंने बताया, कि इसे आप टूलकिट समझ सकते हैं। परंतु हम केवल जनता को बायो सिस्टम बिगड़ने की सूचना के साथ अवगत करा रहे हैं, कि वे अपने आने वाली पीढ़ी को कैसा हिन्दुस्तान सौंपना चाहते हैं। अगर वे चाहते हैं, कि इको सिस्टम कायम रहे तो उन्हें हमारी इस मुहिम से जुड़ना चाहिए।

हर्षित बताते हैं, कि लॉकडाउन में हम सड़कों पर आंदोलन नहीं कर सकते, तो हमारे पास एक ही विकल्प है, कि हम सोशल मीडिया के जरिये लोगों को जागरूक करें। उन्होंने कहा , यहां से महज 120 किलोमीटर दूर स्थित पन्ना नेशनल पार्क में केन-बेतवा नदी-जोड़ परियोजना के लिए लगभग 20 लाख पेड़ों को हटाना पड़ेगा। पन्ना टाइगर रिजर्व के वनों को हाल ही में यूनेस्को के विश्व बायोस्फीयर रिजर्व की सूची में शामिल किया गया है। विश्व जल दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में हुए वर्चुअल कार्यक्रम में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस परियोजना के लिए सहमति जताते हुए सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए। कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी इस योजना के वर्तमान स्वरूप को लेकर चिंता जता चुकी हैं, वहीं बक्सवाहा के लाखों पेड़ों को काटने को लेकर उनकी तरफ से अभी तक कोई चिंता व्यक्त नहीं की गई है।

जाहिर है, यह नीलामी मध्य प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ सरकार के समय हुई थी, जब वर्ष 2018 में सत्ता परिवर्तन के बाद वे मुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने वर्ष 2019 के अंत में बंदर परियोजना की पुनः नीलामी करवायी और नीलामी के नियम केंद्र सरकार ने पूरी पारदर्शिता से तय किए थे। बिड़ला समूह की कंपनी एस्सेल ने इस नीलामी में बाजी मारी थी। 10 दिसम्बर 2019 को हुई नीलामी में आदित्य बिड़ला समूह की कंपनी एस्सेल माइनिंग लिमिटेड ने अडानी समूह की कंपनी को पीछे छोड़कर बंदर डायमंड माइन्स को हासिल कर लिया था। एनएमडीसी, रूंगटा समूह एवं वेदांता ग्रुप भी इस बोली में शामिल थे।

सात वर्षीय अयांश पाठक कहते हैं, कि 3.42 करोड़ के हीरे के लिए वनों की कटाई पर्यावरण और हमारे सेहत के लिए ठीक नहीं है। विकास के नाम पर तीव्रता से पेड़ों को काटा जा रहा है। सरकार को इस पर पुनर्विचार करना होगा। उन्होंने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी लिखी कविता को सोशल मीडिया पर साझा किया है। अयांश पाठक की इस कविता को काफी बच्चों ने साझा किया हैं।

महाकौशल वाटर फोरम के कन्वीनर विनोद शर्मा बताते हैं, कि इस परियोजना में 2 लाख, 15 हजार, 183 पेड़ों के काटने की बात वन विभाग द्वारा बतायी जा रही है, लेकिन जंगल में पेड़ों की मार्किंग नहीं है। विभाग के अनुसार बक्सवाहा के जंगल में पेड़ गिनने के लिए उनके पास केवल 6 फॉरेस्ट गार्ड हैं। इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों की गिनती के लिए विभाग के पास पर्याप्त कर्मचारी नहीं है। इसलिए अंदाज से यह संख्या बतायी जा रही है। यह कंजर्व फॉरेस्ट है। श्री शर्मा ने कहा, कि तीन करोड़ कैरेट के हीरे यहां से निकलने की उम्मीद जताई जा रही है। तीन करोड़ कैरेट हीरे की कीमत अनुमानित दो लाख करोड़ रुपये है। दुनिया की यह सबसे बड़ी हीरा खदान है। उन्होंने बताया, कि पन्ना हीरा खदान से 22 लाख कैरेट हीरे निकलने थे, जिसमें से अभी तक 13 लाख कैरेट हीरे निकाला जा चुका हैं। केवल 9 लाख कैरेट हीरा ही अभी शेष बचा है।

केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना की सुध लें पर्यावरणविद

बुंदेलखंड के लोगों का कहना है, कि बक्सवाहा के जंगल की बंदर हीरा परियोजना के लिए सवा दो लाख पेड़ न कटने देने का जिस तरह आंदोलन हो रहा है, वैसा केन-बेतवा परियोजना के लिए भी होना चाहिए। इस तरह सरकार विकास के नाम पर बुंदेलखंड को और अधिक बंजर बनाने की तैयारी कर रही है। बक्सवाहा से महज 120 किलोमीटर दूर स्थित पन्ना नेशनल पार्क में केन-बेतवा नदी जोड़ परियोजना के लिए 20 लाख से अधिक पेड़ों को हटाना पड़ेगा। इस परियोजना में पन्ना टाइगर रिजर्व के बीच में केन नदी पर ढोढन बांध बनाया जाना है।  इस बांध से 229 किलोमीटर लम्बी नहर झांसी जिले के बरुआसागर स्थित बेतवा नदी  तक जाएगी। ढोढन बांध के बनाए जाने से  नेशनल पार्क का लगभग साढ़े 5 हजार हेक्टेअर का जंगल डूब जाएगा। पार्क के कोर क्षेत्र 4299 हेक्टेअर व बफर क्षेत्र की 1300 हेक्टेअर भूमि ढोढन बांध के डूब क्षेत्र में जा रही है। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार इस परियोजना से बुंदेलखंड में 6 लाख हेक्टेअर भूमि सिंचित होगीं । सिंचाई का रकबा बढ़ने से लोगों के जीवन स्तर में सुधार आयेगा। साथ ही लगभग 102  मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य भी रखा गया है।

स्वास्थ्य के लिए पेड़ों का होना ज़रूरी

राज्य सरकार ने बंदर परियोजना की नीलामी वर्ष 2019 में करा दी थी, लेकिन डेढ़ साल बाद इसका विरोध होने के पीछे कोरोना संक्रमण बतायी जा रही है। जिसने देश को झकझोर कर रख दिया है। अब लोग जान चुके है, कि सेहत के लिए पेड़ों का होना जरूरी है। इसीलिए देशभर के लोग आगे आ रहे हैं। पर्यावरणविद इसे शुभ संकेत मान रहे है। इसके अलावा उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश शरद ए बोबडे सहित तीन सदस्यीय पीठ ने जंगल में पांच रेलवे ओवरब्रिजों को बनाने के लिए 300 पेड़ों को काटे जाने को लेकर चिंता जताई थी। बेंच ने पिछले साल बनाई गई एक समिति की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा था, कि एक पूर्ण विकसित यानी विरासत में मिले पुराने पेड़ की सालाना कीमत 74 हजार 500 रुपये है हर साल बीतने पर उसकी कीमत में इतनी ही राशि जुड़ जाती है। यह पेड़ हर साल हमें 45 हजार रुपये की ऑक्सीजन देते हैं। इस आंदोलन से जुड़े सेवानिवृत संयुक्त कलेक्टर बीएल मिश्रा बताते हैं कि न्यायालय के चिंता जताने के बाद देश में जागरूकता आई है।

कैसे हुआ बंदर डायमंड माइन्स का नामकरण

एंग्लो-ऑस्ट्रेलियन कंपनी रियो टिंटो ने 21वीं  शताब्दी शुरू होते ही यानी वर्ष 2000 में मध्यप्रदेश में दस्तक दी। तब दिग्विजय सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। वर्ष 2002 में इसे बक्सवाहा क्षेत्र में हीरा खोजने के लिए 25 वर्ग किमी क्षेत्र में रिकनेसेंस सर्वेक्षण की अनुमति मिली थी, जो कंपनी रिकनेसेंस सर्वे करती है, उसे प्रोस्पेक्टिंग लाइसेंस पूर्वेक्षण अनुमति में वरीयता मिलती है। जब कंपनी के अधिकारी यहां सर्वे करने आए तो उन्हें बड़ी संख्या में बंदर दिखे और उन्होंने परियोजना का नामकरण बंदर डायमंड प्रोजेक्ट कर दिया। इसके बाद वर्ष 2006  एवं 2007 में तत्कालीन भाजपा सरकार ने रियो टिंटो को तीन साल की अवधि के लिए दो प्रोस्पेक्टिंग लाइसेंस यानी पूर्वेक्षण अनुमति दी। जिसे बाद में दो साल के लिए बढ़ा दिया गया। वर्ष 2011 में प्रोस्पेक्टिंग लाइसेंस   की अवधि पूरी होने के बाद 2012 में रियो टिंटो ने माइनिंग लीज के लिए आवेदन दिया। कंपनी ने 954 हेक्टेअर के संरक्षित वन में खनिज पट्टे के लिए आवेदन किया। इससे पहले कंपनी ने वर्ष 2010 में खजुराहो में हुए वैश्विक निवेशक सम्मेलन में मध्यप्रदेश सरकार के साथ एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए थे।

इस बार राज्य सरकार ने रियो टिंटो द्वारा आखिरी में किए गए 364 हेक्टेअर सहित कुल 382 हेक्टेयर क्षेत्रफल की ही नीलामी कराई। यानी सरकार 954 हेक्टेअर के मुद्दे से पीछे हट चुकी है। लेकिन स्थानीय पर्यावरणविदों में इस बात का संदेह है, कि बाकी क्षेत्र को  लेकर राज्य सरकार की ओर से किसी प्रकार का आश्वासन नहीं दिया गया है। राज्य सरकार ने एक तरह से रियो टिंटो की पुरानी फाइल उठाते हुए उन्हीं के दस्तावेजों को आधार मानते हुए नीलामी करवाई। राज्य सरकार ने इस खदान का आफॅसेट मूल्य 56 हजार करोड़ रुपए एवं बेस रायल्टी साढ़े 11 फीसदी रखी है।

 विरोध प्रदर्शन से ही पीछे हटी थी रियो टिंटो

रियो टिंटो के स्थानीय विरोध की कई वजहें थीं। कंपनी जो वादे करती थी, उसे निभाने से पीछे हट रही थी। जैसे वर्ष 2010 में हुए सहमति पत्र में कंपनी ने स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर देने की बात कही, लेकिन बाद में राज्य सरकार को पत्र लिखकर कहा, कि स्थानीय लोगों में दक्षता की कमी है। इसलिए इस शर्त का पालन करना संभव नहीं है। इसी तरह हीरा पर राज्य सरकार को मिलने वाली रायल्टी महज 10 फीसदी थी और हीरा प्रोसेसिंग प्लांट की निगरानी में राज्य सरकार की भागीदारी नहीं थी। यह केवल विश्वास पर आधारित था। 

(मध्य प्रदेश स्थित रूबी सरकार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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