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वाह शाबाश! : खिलाड़ी बेटियों के नाम शोभा सिंह की कविता

“तानाशाह के आगे हारना नहीं/ शोषण तंत्र तुम्हारे गौरव को क्या यूंही लील लेगा…”
संघर्षरत महिला पहलवानों के समर्थन में कवि-कहानीकार शोभा सिंह की कविता
Wrestlers
तस्वीर सोशल मीडिया से साभार

वाह शाबाश! 

जैसे ख़ूब तप कर खिलता है 
       अमलतास 
खिलाड़ी बेटियों के तपने ने 
उनके वजूद को अनोखा निखार दिया 
उन्हें विस्तार दिया 
अब जीने की अनूठी राह 
वे तमाम पीड़ित कंठ का स्वर बनीं 
जिन्हें न्याय नहीं मिला
उन्हें साथ और सुकून 
ज़ुल्म के ख़िलाफ़ 
तुम्हारे संघर्ष से मिल रहा था 
वे लामबंद हो रहीं थीं 
साफ़गोई से आपबीती 
बयान कर रहीं 
बर्बर उत्पीड़क, यौन अपराधी 
को सज़ा मिले एक मांग 
वे अपनी परिधि बढ़ाने की 
तरकीब भी ईजाद करती जा रहीं थीं 
 
ख़ामोशी की परतों में 
जो सच की आग जलाई उसकी रोशनी में 
आह्वान किया जन का 
लोग जुटते गए 
हौसले और उम्मीद से  
तेज़ी से गुज़रती तारीख़ें 
न्याय के  इंतज़ार के बीच 
दिन की दहकन
शाम रात बारिश में भीगते 
अनवरत जारी रहा धरना 
पितृसत्ता को चुनौती देते स्वर 
मुखर होते गए 
सत्ता को नागवार लगा 
अपराधी राजतंत्र का सांसद 
वोट दिलाऊ शख़्स 
सत्ता के संरक्षण में आज़ाद 
नए बने संसद भवन में 
गरुर से अट्टहास करता 
ठीक वहीं लोकतंत्र की सड़क गवाह बनी 
सम्मानित खिलाड़ियों के अपमान की 
बर्बरता से घसीटे जाने की 
और प्रतिरोध में 
निर्भय हो पहलवानी दांव पेच से लड़ने की 

स्त्री स्वतंत्रता की नई परिभाषा रचती वे 
जो अब भ्रम की गिरफ़्त से आज़ाद हो रहीं 
दमन नंगी सच्चाइयों को उजागर कर रहा था   
मुग़ालते टूट कर बिखरे 
उनके प्रतिरोध को कुंद कर देने की 
साज़िश वे समझ गईं 
धरना स्थल नेस्तनाबूद 
एक और ठेस 
 
लपटों में ख़्वाब जले नहीं 
मानसिक द्वंद, मुश्किल दौर 
जब वे श्रम से जीता मेडल 
गंगा में प्रवाहित करने गईं
दुख के चरम क्षणों में 
बरजती किसानी आंख 
उनकी तपन में भरोसा देता 
शीतल हाथ 
गंगा की लहरों से ऊर्जा ले लो 
रगों में नदी सा प्रवाह 
तानाशाह के आगे हारना नहीं 
शोषण तंत्र तुम्हारे गौरव को क्या 
यूंही लील लेगा 
पितृसत्ता के कुत्सित विचारों से टकराना ज़रूरी

दुख और राहत एक होते देखा 
जिस मिट्टी में कुश्ती के दांव पेच सीखे 
वही मिट्टी उनकी आगामी विजय संग्राम का
आईना बन रही थी।
______________शोभा सिंह
कवि-कहानीकार
 

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