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वित्त मंत्री जी आप बिल्कुल गलत हैं! महंगाई की मार ग़रीबों पर पड़ती है, अमीरों पर नहीं

निर्मला सीतारमण ने कहा कि महंगाई की मार उच्च आय वर्ग पर ज्यादा पड़ रही है और निम्न आय वर्ग पर कम। यानी महंगाई की मार अमीरों पर ज्यादा पड़ रही है और गरीबों पर कम। यह ऐसी बात है, जिसे सामान्य समझ से भी देखा जाए तो सच से कोसों दूर लगती है, लेकिन हमारे नेता यह बात सार्वजनिक कहने की हिम्मत ही नहीं रखते, बल्कि डंके की चोट पर कह देते हैं।
Nirmala

महंगाई और बेरोज़गारी से ज़्यादा ज्ञानवापी और ताजमहल के तहखाने चर्चा में है। लोगों को अपने जीवन से ज्यादा इसकी पड़ी है कि ज्ञानवापी के नीचे क्या है और ताजमहल के तहखानों में क्या है? इस तरह की बहसों और विवादों के जरिये लोगों को अपने जीवन के अहम मुद्दों के प्रति सरकारी जवाबदेही से दूर करने की परियोजना धूमधाम से चल रही है। यह एक बड़ी वजह है कि सरकारें जो मर्जी सो कर लेती हैं और जो मर्जी वह कहकर निकल जाती हैं। 

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले हफ्ते एक गजब बात कह दी। निर्मला सीतारमण ने कहा कि महंगाई की मार उच्च आय वर्ग पर ज्यादा पड़ रही है और निम्न आय वर्ग पर कम। यानी महंगाई की मार अमीरों पर ज्यादा पड़ रही है और गरीबों पर कम। यह ऐसी बात है, जिसे सामान्य समझ से भी देखा जाए तो सच से कोसों दूर लगती है, लेकिन हमारे नेता यह बात सर्वाजनिक कहने की हिम्मत ही नहीं रखते, बल्कि डंके की चोट पर कह देते हैं। यह मौजूदा समय की सबसे बड़ी कमी है कि सच और नेताओं के बयान के बीच जमीन-आसामन का अंतर है। लेकिन जनता को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। और तो और, मुख्यधारा की मीडिया में इस पर बहस भी नहीं होती।
 
सामान्य सा जवाब यह है कि जब जीवन जीने की लागत बढ़ती है तो उन पर सबसे ज्यादा असर पड़ता है, जिनकी कमाई कम है। जिनकी महीने की आमदनी कम है, जो बेरोजगारी से जूझ रहे हैं, जो गरीब हैं। उनके पास इतनी क्षमता नहीं होती कि बढ़ी हुए कीमतों के असर को सहन कर सकें। खाने के तेल की क़ीमतों को ही देखिये। साल 2014 के कीमत के हिसाब से देखा जाए तो खाने के कई तेलों की कीमत में 2 गुने से ज्यादा का इजाफा हुआ है।

डिपार्टमेंट ऑफ़ कंस्यूमर अफेयर्स के आंकड़ें बताते हैं कि पाम आयल जिसके इस्तेमाल भारत में सबसे अधिक होता है, उसकी कीमत साल 2014 में 68 रुपए प्रति लीटर के आसपास थी। वह बढ़कर अब 190 रूपये प्रति लीटर के आस पास पहुंच चुकी है। सूरजमुखी के तेल की कीमत 90 रूपये प्रति लीटर थी। यह बढ़कर 190 प्रति लीटर हो गयी है। सोयाबीन की तेल की कीमत 77 रुपए प्रति लीटर थी। यह बढ़कर 170 रूपये प्रति किलो हो गयी है। सरसों के तेल की कीमत जो 90 रूपये के आसपास थी, यह बढ़कर 190 रूपये प्रति लीटर के आसपास पहुंच चुकी है। दूध की कीमत साल 2014 में 48 रूपये प्रति लीटर हुआ करती थी, अब यह बढ़कर 60 रुपए प्रति लीटर हो चुकी है।  

चीनी की कीमत साल 2014 में 36 प्रति किलो के आसपास थी, वह बढ़कर साल 2022 में 42 रूपये प्रति किलो के आसपास पहुंच चुकी है। जो चावल की कीमत 24 रूपये प्रति किलो के आसपास थी, वह बढ़कर 32 रूपये प्रति किलो के आसपास पहुंच चुकी है। इनके साथ रसोई गैस, पेट्रोल  और डीजल की क़ीमतों में तो उछाल रुकने का नाम ही ले रहा। इन सबको आपस में जोड़कर देखिये। चावल, चीनी, आटा , खाने के तेल की कीमतों में इजाफा का मतलब है–हर उस सामान की कीमत में उछाल जहाँ इन्हें कच्चे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह से पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस के कीमतों में होने वाले उछाल का भी यही हाल होता है। परिवहन से लेकर जीवन के अधिकतर सामान और सेवा की कीमत बढ़ जाती है।  

अब जब महंगाई का हाल यह है तो आप खुद सोचकर बताइए कि इसका सबसे ज्यादा असर किस पर पड़ता होगा? उस पर पड़ता होगा जो आमदनी के लिहाज से भारत के 20 प्रतिशत सबसे अधिक गरीब वर्ग में आता है या उसपर जो 20 प्रतिशत सबसे अधिक अमीर वर्ग में आता है? आप खुद सोचिये की निर्मला सीतारमण की बात सही है या गलत?  

अब थोड़ा सैद्धांतिक तौर पर समझते हैं कि क्यों महंगाई के मामलें में यह बात पचने लायक नहीं लगती है कि महंगाई की मार अमीरों पर ज्यादा पड़ती है और गरीबों पर कम? खुदरा महंगाई दर उन सामानों और सेवाओं की कीमत के आधार पर निकाली जाती है जिसे ग्राहक सीधे खरीदता है। कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स का इस्तेमाल किया जाता है। सरकार कुछ सामानों और सेवाओं के समूह के कीमतों का लगातार आकलन कर खुदरा महंगाई दर निकालती है। सरकार ने इसके लिए फार्मूला फिक्स किया है। जिसके अंतर्गत तकरीबन 45% भार भोजन और पेय पदार्थों को दिया है और करीबन 28 फ़ीसदी भार सेवाओं को दिया है। यानी खुदरा महंगाई दर का आकलन करने के लिए सरकार जिस समूह की कीमतों पर निगरानी रखती है, उस समूह में 45% हिस्सा खाद्य पदार्थों का है, 28 फ़ीसदी हिस्सा सेवाओं का है। यह दोनों मिल कर के बड़ा हिस्सा बनाते हैं। बाकी हिस्से में कपड़ा, जूता, चप्पल, घर, इंधन, बिजली जैसे कई तरह के सामानों की कीमतें आती हैं।

अब यहां समझने वाली बात यह है कि भारत के सभी लोगों के जीवन में खाद्य पदार्थों पर अपनी आमदनी का केवल 45% हिस्सा खर्च नहीं किया जाता है। साथ में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सेवाओं पर अपनी आय का केवल 28% हिस्सा नहीं खर्च किया जाता है। जो सबसे अधिक अमीर हैं जिनकी आमदनी करोड़ों में है, वे अपनी कुल आमदनी का जितना खाद्य पदार्थों पर खर्च करते हैं, वह उनके कुल आमदनी का रत्ती बराबर हिस्सा होता है।

पीरियोडिक लेबर फोर्स के 2018-19 के आंकड़ें बताते हैं कि 10 प्रतिशत से कम लोग केवल संगठित क्षेत्र में काम करते हैं। इनकी महीने की औसत आमदनी 7 हजार के आसपास है। भारत की प्रति व्यक्ति प्रति माह आमदनी की लचर हालत तब है, जब भारत घनघोर आर्थिक असमानता वाला देश है। केवल 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश की कुल आमदनी का 22 फीसदी हिस्सा है और 50 प्रतिशत गरीब के पास कुल आमदनी का महज 13 फीसदी हिस्सा।

अप्रैल 2021 में खुदरा महंगाई दर 7.8 प्रतिशत रहा।  यह आरबीआई द्वारा निर्धारित 6 प्रतिशत सहनशील सीमा के ऊपर है। यहाँ पर यह ध्यान देने वाली बात है कि महंगाई के लिए जिम्मेदार रूस और यूक्रेन की लड़ाई केवल एक हद तक जिम्मेदार है। महंगाई दर 4 प्रतिशत से ऊपर होने पर इसे अर्थव्यवस्था के लिए  खतरे की घंटी की तरह माना जाता है। अक्टूबर 2019 से महंगाई दर 4 प्रतिशत से उपर रही है। साल 2022 की  शुरुआत से महंगाई दर 6 प्रतिशत के ऊपर रही है। कहने का मतलब यह है कि महंगाई भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति बन चुकी है और आम लोग इसे बहुत लम्बे समय से इसे सहन करते आ रहे हैं।

अर्थशास्त्र के सिद्धांतकार कहते हैं कि एक तरह से देखा जाए तो महंगाई सबसे क्रूर टैक्स की तरह होती है। अमीर ऐसे हालात में होते हैं कि वह महंगाई से खुद को बचा लें और महंगाई के शुरूआती दौर में फायदा भी कमा लें। लेकिन गरीबों की ऐसी हालत नहीं होती है। गरीब अपना ज्यादातर पैसा नकद में रखते हैं या बैंक में रखते हैं।  इनकी बचत बहुत कम होती है। बैंक का इंटरेस्ट रेट महंगाई दर से कम होता है। ये अमीरों की तरह वित्तीय बाजार के खिलाडी नहीं होते, जहां पर पैसा से पैसा कमाने की कोशिश की जाती है।  शेयर, डिबेंचर और भी कई तरह के तरीकों से अमीर पैसे से पैसा बनाने का काम लागातर करते रहते है। ब्याज और  लाभांश के तौर पर पैसा कमाते हैं। लेकिन गरीबों को ऐसी सहूलियत नहीं होती है।  उनके दैनिक और महीने की कमाई भी महंगाई दर की बढ़ोतरी से कम होती है।  

इसलिए महंगाई की ज्यादा मार मुट्ठी भर अमीरों पर नहीं पड़ती, बल्कि बहुसंख्यक गरीबों पर पड़ती है।  उन पर नहीं पड़ती है जो महीने का 50 हजार से ज्यादा कमाते हैं, बल्कि उनपर पड़ती है जो महीने का 50 हजार से कम कमाते हैं। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी का एक आंकडा बताता है कि भारत में महज 2 प्रतिशत से भी कम लोग 50 हजार से ज्यादा कमाते हैं। यानी बात साफ है कि तकरीबन 98 प्रतिशत लोग, जिन्हें सही मायने में अमीर नहीं कहा जा सकता है, वे महंगाई की मार से परेशान होते हैं।  

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