नए शौचालय बनाने से पहले पुराने शौचालयों की कार्यक्षमता और सफ़ाई कर्मियों की दशा दुरुस्त करने की ज़रूरत
सुलभ सेवा अभियान, मुंबई के राष्ट्रीय समन्वयक मोहित यादव और आश्रय दो अभियान, दिल्ली के राष्ट्रीय सचिव और क़ानूनी सलाहकार आशुतोष रंगा ने रिहैबिलिटेशन रिसर्च इनिशिएटिव, इंडिया की राष्ट्रीय संयोजक और भीम सफाई कर्मचारी ट्रेड यूनियन की सचिव प्रज्ञा अखिलेश का साक्षात्कार लिया। उन्होंने अपनी बातचीत में कोविड-19 महामारी के बारे में बताया और सफाई कर्मियों के जमीनी मुद्दों को हल करने के बजाय सरकार के स्वछता के बुनियादी ढांचों को खड़ा करने में व्यस्तता की आलोचना की है। उदाहरण के लिए, सरकार इस बात को पहचान पाने में विफल रही है कि वह जिन शौचालयों का निर्माण कर रही है, उनको साफ़ रखने की भी जरूरत है, जो अक्सर सफाई कर्मियों के जीवन और स्वास्थ्य की अनदेखी कर संपन्न किया जाता है। संपादित अंश।
आपने हाल ही में पाया था कि वर्तमान में जारी महामारी के दौरान 46,000 नए सूखे शौचालयों का निर्माण किया गया है। इसके पीछे की वजह क्या है?
महामारी के दौरान हमने पाया कि प्रतिदिन नए-नए सूखे शौचालयों का निर्माण किया जा रहा था। यह दिखाता है कि कुल जितने शौचालयों का निर्माण किया जा रहा है उसकी तुलना में पहले से निर्मित शौचालयों की सेवा कहीं ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए।
नए सूखे शौचालयों का निर्माण भी भारत में स्वच्छता के बुनियादी ढांचे और साफ़-सुथरे शौचालयों की खराब हालत का भी नतीजा हैं। स्वच्छता के कवरेज के मामले में हम पीछे की ओर जा रहे हैं। किसी भी छोटे से अनौपचारिक बसाहट के भीतर बनते “लटकते शौचालय”, स्वच्छ भारत मिशन के तहत बनाये जा रहे साफ़-सुथरे शौचालय की उनके उपयोगकर्ता के आवासों से से दूरी का एक परिणाम है। ये 46,000 वे नए सूखे शौचालय हैं जिनका हमने महामारी के दौरान पता लगाया था। जमीनी स्तर पर वास्तविक आंकड़े इससे काफी अधिक होने चाहिए।
आपने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि सफाई कर्मियों की लगभग बीस प्रमुख श्रेणियों को मैन्युअल स्कैवेंजिंग एक्ट, 2013 में शामिल किये जाने की आवश्यकता है। श्रमिकों की और अधिक श्रेणियों को शामिल किये जाने की जरूरत क्यों है?
सफाई कर्मियों से संबंधित अधिनियमों एवं योजनाओं में सफाई कर्मियों के सभी छूट गए समूहों पर ध्यान केंद्रित किये जाने की आवश्यकता है, जैसे कि मल-मूत्र कचरा साफ़ करने वाले, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट सफाई कर्मी, सामुदायिक, सार्वजनिक, स्कूल और घरेलू आवासीय शौचालय से जुड़े शौचालय सफाई कर्मियों को सूखे और गीले सफाई कर्मियों के तौर पर वर्गीकृत किया गया है। इसके अलावा उन्हें आगे सार्वजनिक परिवहन स्थलों के सफाईकर्मियों जैसे कि रेलवे और सड़कों पर सीवर और नालों पर कार्यरत सफाई कर्मियों, सेप्टिक टैंक वर्कर्स, कचरा निकालने वाले श्रमिकों (घरों, सामुदायिक एवं लैंडफिल में, संसाधन-पुनः प्राप्ति सफाई कर्मियों में वर्गीकृत), परिचालन सफाई कर्मियों एवं स्वच्छता अपशिष्ट प्रति छेदन कर्मियों को शामिल करना चाहिए।
इन नियमों में उन कर्मियों को भी शामिल किया जाना चाहिए जो कुछ मामलों में शारीरक तौर पर जैवचिकत्सकीय एवं घातक अपशिष्ट के निपटान कार्य में शामिल हैं। उन्हें इसके आगे वर्गीकृत किये जाने की आवश्यकता है जो कि असल में हाथ से मैला ढोने वाले लोग हैं। महामारी ने भारत के “कंकाल ढोने वालों” पर भी अधिक रोशनी डालने का काम किया है। हमें मैन्युअल स्कैवेंजिंग एक्ट में खामियों को दूर करने की जरूरत है। भारत के सफाई कर्मियों ने पहले से ही इस अधिनियम के अप्रचलित हिस्सों का आकलन किया हुआ है।
उनके आकलन से क्या जानकारी सामने आई है और उनकी क्या मांगें हैं?
उदहारण के लिए, प्रत्येक सीवर से होने वाली मौत पर देखने को मिला है कि सफाई कर्मियों को यह कहने के लिए दबाव डाला जाता है कि वे अपने बयान में कहें कि उन्होंने “स्वेच्छा से” सीवर में प्रवेश किया था। यह मैन्युअल स्कैवेंजिंग एक्ट में गंभीर खामियों का नतीजा है। इसके पुनर्गठन एवं संशोधन की आवश्यकता है। सफाई कर्मी भी संशोधनों की विफलता को लेकर सवाल कर रहे हैं। सफाई कर्मियों को अब पता है कि इस सरकार का स्पष्ट ध्यान सिर्फ नए-नए शौचालयों के निर्माण पर है। इसे न तो पुराने शौचालयों की कार्यक्षमता या इस्तेमाल के आकलन को लेकर ही कोई चिंता है और न ही इस तथ्य से कोई वास्ता है कि किन लोगों को इन शौचालयों को दुरुस्त रखना पड़ रहा है। सारे भारत भर में इस व्यवस्था को बदलने के लिए ये श्रमिक खुद हैं जो इस अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं। अपने अभियान के दौरान हमने प्रत्येक सफाई कर्मी के मुहँ से एक जैसी कहानियों को दोहराते पाया है।
जब हम भारत में सफाई कर्मियों के बारे में बात करते हैं तो क्यों हमें सफाई मित्र शब्द का इस्तेमाल करने के बजाए सफाई कर्मचारी मित्र शब्द का इस्तेमाल करने की जरूरत है?
पिछले साल 19 नवंबर को विश्व शौचालय दिवस के अवसर पर सफाईमित्र सुरक्षा चुनौती अभियान शुरू किया गया था। अब चूँकि सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान सफाई कर्मियों की मौत का क्रम लगातार जारी है, इसलिये सरकार को अपनी नीतियों और योजनाओं के पुनर्मूल्यांकन करने की जरूरत बढती जा रही है। यही वजह है कि सफाई मित्र को सफाई कर्मचारी मित्र में बदलने की जरूरत है, क्योंकि इससे सफाई के कार्यों में शामिल लोगों के अधिकारों और गरिमा पर ध्यान दिया जाता है।
दूसरी लहर जब अपने चरम पर थी तो उस दौरान गंगा के तटों पर सैकड़ों की संख्या में शवों को दफनाया जा रहा था या नदियों में बहा दिया जा रहा था। उस समय, भारत के सफाई कर्मियों को जो किसी तरह से अपने जीवन-निर्वाह के लिए संघर्षरत थे, वे एक समय में एक शव को निपटने के काम में लगे हुए थे। उत्तर प्रदेश और बिहार में नदियों के किनारे जमा हो रहे पानी से फूले हुए शवों को स्थानीय सफाई कर्मियों ने अपनी जान जोखिम में डालकर, बिना यथोचित गियर या सुरक्षात्मक उपकरण के दफनाने का काम संपन्न किया था।
हर रोज उनकी जिन्दगी में अनेकों बार मौत का खतरा बना हुआ था लेकिन वे लोगों की सेवा करते रहे। अस्पतालों में, सफाई कर्मियों ने न्यूनतम सुरक्षा के साथ शवों को लपेटने और खोलने का काम किया था। ठीक इसी प्रकार से सवर्ण जातियों ने सैकड़ों सालों से अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ उनके उपर बोझ डालने का काम किया है। सफाई कर्मियों की मदद करने के लिए हमें एक गैर-ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण की जरूरत है। मैं ऐसा इसलिए कह रही हूँ क्योंकि सफाई एक जाति-आधारित पेशा है। भारत में सफाई कर्मियों के जीवन को उतना ही मूल्यवान समझे जाने की जरूरत है जितना कि अन्य जातियों से जुड़े लोगों के बारे में माना जाता है।
नाम में बदलाव से वास्तव में कैसे मदद मिलेगी?
केंद्र का सफाई कर्मियों को विफल करने का रिकॉर्ड रहा है। सफाई कर्मियों को खुद को “स्वच्छता कमांडोज” या “कोविड योद्दाओं” के तौर पर अलंकृत किये जाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। “सफाई मित्र” से “सफाई कर्मचारी मित्र” में कायांतरण करने के लिए व्यवस्थित नीतियों के एकीकरण एवं हाथ-थामकर के माध्यम से फलीभूत किया जाना चाहिए। अन्यथा, यह सिर्फ कागज पर एक और मेनहोल-से- मशीनहोल वादा साबित होगा। मौजूदा केन्द्रीय एवं राज्य स्तरीय योजनाओं में सफाई कर्मियों को बजटीय आवंटनों, नीतियों और कानूनों से संबंधित उनके काम के सन्दर्भ में केंद्रीय पदों विराजमान पर होना चाहिए।
आपने बार-बार दुहराया है कि भारत के सफाई कर्मी भारत में शौचालयों में “हाथ से मैला ढोने” के लिए मजबूर हैं। कृपया इस बारे में कुछ और विस्तार से जानकारी साझा करें।
महामारी के दौरान शौचालयों की खराब स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट थी। वे बीमारियों को फैलाने के लिए सबसे बड़े वाहक बने हुए थे। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग शौचालयों का इस्तेमाल करने से इतने आतंकित थे कि वे इन ढाचों के भीतर मल-मूत्र विसर्जन करने के स्थान पर कहीं भी इसे करने के लिए तैयार थे। इसके बावजूद हम सभी शहरी स्थानीय निकायों के लिए ओडीएफ [खुले शौच से मुक्ति] की स्थिति पर जोर देते रहते हैं।
महिलाएं हमारे पास यह बताने के लिए आया करती हैं कि कैसे उन्हें शौचालयों की साफ़-सफाई के लिए तेज ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल करना पड़ा था। ब्लीच के कारण उनकी त्वचा पर स्थाई जलने का निशान और उनकी आँखों के ऊतकों को नुकसान पहुंचा था। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सरकार हर दो सेकंड में एक शौचालय का निर्माण करने की अपनी योजना से आखिर क्या हासिल करना चाहती है, जब वह उन लोगों की रक्षा कर पाने में विफल है जो अपने “हाथों से मैला ढोने” के लिए मजबूर हैं?
आपने पिछले एक दशक से लाखों शौचालयों की दशा को प्रकाश में लाकर भारत की स्वच्छता कथा में बदलाव लाने का प्रयास किया है। आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण अवलोकन या सीख क्या रही है?
भारत के स्वच्छता नैरेटिव को समझने के लिए न सिर्फ इसे कवरेज के सन्दर्भ में समझना चाहिए बल्कि पानी और स्वच्छता के पारस्परिक संबंध और भात में स्वच्छता के बुनियादी ढाँचे, स्वच्छता आदत और स्वच्छता श्रम के बीच संबधों के माध्यम से भी समझे जाने की जरूरत है। एल के बिना दूसरे को नहीं समझा जा सकता है। दुर्भाग्यवश, इस क्षेत्र में अध्ययन को टुकड़ों में विभाजित कर एकल धाराओं में देखा जाता है। शौचालयों पर बातचीत तब तक अधूरी रहने वाली है, जब तक हम उन लोगों की समस्याओं के आकलन और समाधान के बारे में विचार नहीं करते हैं जो इसे बनाये रखने के लिए मजबूर हैं।
2 अक्टूबर को “राष्ट्रीय स्वच्छता दिवस” के रूप में मनाना सफाई कर्मियों के मुद्दों पर हमारे लोगों की खराब समझ को प्रदर्शित करता है। बीआर अंबेडकर के अनुसार, भारत के हिन्दुओं में हमेशा से एक “गहरी जड़ता वाली जातीयवाद” के प्रति जिज्ञासा भाव रहा है, जिसने समय-समय पर उन्हें हिन्दू समाज के पुनर्निर्माण से रोका है”। इसलिए, जब हम वास्तिविक मुद्दों से अधिक “बुनियादी-ढांचे के निर्माण” में लिप्त रहते हैं तो आमतौर पर भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे अनदेखे रह जाते हैं। बुनियादी ढाँचे के निर्माण का काम जमीनों मुद्दों को हल करने के बनिस्बत बेहद आसान है। यह भारत के शहरी और ग्रामीण जल एवं स्वच्छता कवरेज और भारत में सफाई कर्मियों की बदहाल दशा के बीच बड़ा विरोधाभास का कारण भी है।
सफाई कर्मियों पर कोई भी बातचीत, सफाई कर्मियों द्वारा सफाई कर्मियों के लिए और सफाई कर्मियों की होना चाहिए। उन्होंने पहले से ही 1993 से इस क्रांति की शुरुआत कर दी थी। बेजवाड़ा विल्सन और केबी ओबलेश जैसे लोगों के नेतृत्त्व में दशकों से इन मांगों को लेकर आंदोलन चलाया जा रहा है। मेरा काम सिर्फ एक समय में एक शौचालय पर ध्यान केंद्रित करते हुए, भारत में जल एवं स्वच्छता से संबंधित विभिन्न धाराओं को आपस में जोड़ने का रहा है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।
‘A Sanitation Worker’s Life is as Valuable as that of Other Castes’
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