खेती गंभीर रूप से बीमार है, उसे रेडिकल ट्रीटमेंट चाहिएः डॉ. दर्शनपाल
पेशे से डॉक्टर, पटियाला के डॉ. दर्शनपाल सिंह (70) किसान आंदोलन के महत्वपूर्ण नेता हैं। उन्होंने अपनी गहरी सूझ बूझ से लगभग एक साल से देश के 400 किसान संगठनों को एक सूत्र में बांध रखा है। इसीलिए वे देश के अब तक के सबसे महत्वपूर्ण किसान आंदोलन को संचालित करने वाले संगठन संयुक्त किसान मोर्चा के कोऑर्डिनेटर हैं। डॉ. दर्शन पाल पंजाब मेडिकल सर्विसेज में रहे हैं और लोगों की प्राकृतिक बीमारियों का इलाज करते रहे हैं। लेकिन उन्हें यह बात समझ में आई कि सामाजिक बीमारियों का इलाज ज्यादा जरूरी है और वे वामपंथी विचारों की ओर मुड़े। उन्होंने 2002 में मेडिकल सेवा से इस्तीफा देकर खेती करने का फैसला किया और किसानों की कर्ज की समस्या को लेकर कई आंदोलन किए। हाल में वे राष्ट्रीय स्तर पर तब सक्रिय हुए जब 6 जून 2017 को मंदसौर में किसानों पर पुलिस और सीआरपीएफ के गोली चलाए जाने से हुई पांच किसानों की शहादत हुई। उनसे किसान आंदोलन के महत्वपूर्ण मोर्चा दिल्ली के सिंघु बार्डर पर खेती के संकट और किसान आंदोलन पर लंबी बातचीत हुई। पेश हैं उसके महत्वपूर्ण हिस्सेः------
• अरुण त्रिपाठीः--आपके आंदोलन को साल भर हो रहा है। कम आंदोलन हैं जो इतने लंबे समय तक चले हैं। राजधानी को चारों ओर से घेर रखा है। आंदोलन ने क्या हासिल किया इतने समय में? इसमें साढ़े तीन सौ से चार सौ संगठन हैं। जिन्हें आप ने एकजुट रखा है। देश के तमाम हिस्सों से जो किसान नेता इस आंदोलन से जुड़े हैं वे थकान महसूस कर रहे हैं या ऊर्जा महसूस कर रहे हैं? आप लोग आगे की कोई बड़ी योजना तैयार कर रहे हैं?
• दर्शनपालः—भारत की तमाम विविधताओं के बावजूद हमने तमिलनाडु से पंजाब तक किसानों की एकता को कायम किया है। उन्हें एक क्लास के रूप में स्थापित किया है। उनके कई अंतर्विरोधों को दूर किया है। यह हमारी बड़ी उपलब्धि है।
• अरुण त्रिपाठीः-भारत का कृषि संकट क्या है उसके बारे में बताइए।
• दर्शन पालः-- कृषि की स्थिति हमारे देश में जो है और पूरी दुनिया में जैसी है वो परेशानी में है। कुछ ऐसे लक्षण हैं कि जो यह दिखाते हैं कि कृषि संकट में है, कृषि सेक्टर बीमार है। गंभीर रूप से बीमार है। जैसे कोई मरीज है और गंभीर है तो उसे आईसीयू में ही दाखिल किया जाता है, तो कृषि में लगे हुए लोगों को उस तरह के रेडिकल ट्रीटमेंट की जरूरत है जिस तरह से गंभीर मरीज को जरूरत होती है। जिसको आक्सीजन की जरूरत हो सकती है, जिसको सपोर्टिव सिस्टम की जरूरत हो सकती है। उस नजरिए से मैं यह कहना चाहता हूं कि लक्षण के चलते ही देश के विभिन्न हिस्सों में किसान संगठन अलग अलग मुद्दों को लेकर लड़ रहे थे या प्रचार कर रहे थे। मैं पंजाब से आता हूं और कहना चाहता हूं कि कृषि क्षेत्र में ग्लोबलाइजेशन के दौर में या उससे पहले ग्रीन रिव्यूलिशन के दौर में विकास करने के नाम पर , अपनी जरूरतों की वजह से हमारे शासक वर्ग ने कुछ तब्दीलियां करनी शुरू कीं। अनाज की कमी थी और उसके चलते भुखमरी होती थी। लोग कुपोषण के शिकार होते थे। बहुत बार मौतें भी हो जाती थीं। उन तमाम चीजों को जो बदलने की कोशिश की गई और पश्चिमी माडल को कापी करके यहां लागू करने की कोशिश की गई। उन्होंने पंजाब और हरियाणा में मंडियां बनाईं और उन्नतशील बीज लाए। इनपुट में फर्टीलाइजर, पेस्टीसाइड लाए। इन्सेक्टीसाइड लाए। इस तरह हमने खेती को बदलते हुए देखा। हमने देखा कि कैसे बैल से होने वाली खेती छोटी मशीनरी में, फिर ट्रैक्टर के इस्तेमाल में बदल गई। पहले दो बैलों वाला हल होता था फिर ट्रैक्टर वाला हल आया। खेती में पूंजी का निवेश जरूरी हो गया। हर किसान को उस निवेश के लिए किसी पर निर्भर हो जाना पड़ा। किसान उसके लिए या सूद पर धन देने वाले व्यापारी पर निर्भर हो गया या बैंक के ऊपर निर्भर बना। वह फाइनेंस कंपनी के ऊपर निर्भर हुआ।
यह जैसे आगे बढ़ता गया वैसे वैसे टर्म्स ऑफ ट्रेड (व्यापार संतुलन) वह खेती वाले के खिलाफ होता चला गया। उत्पादन की लागत बढ़ती गई। ऐसे में एक स्तर के बाद उत्पादन की लागत जैसे बढ़ती है वैसे वैसे किसानों को पहले जो फायदा हो रहा था वह गड़बड़ाने लगता है। पहले जो लाभ हो रहा था वो इसलिए कि खेती का रकबा बढ़ रहा था। ऊसर जमीन को उर्वर भूमि में बदला जा रहा था। उत्पादन की बढ़ोतरी हो रही थी, जमीन का रकबा बढ़ रहा था, उसके कारण किसान को कुछ मुनाफा हो रहा था। लेकिन एक समय ऐसा आया कि यह टर्मस आफ ट्रेड (व्यापार संतुलन) ठहर गया और किसान का फायदा भी ठहर गया।
• अरुण त्रिपाठीः—यह संकट 1991 में उदारीकरण आने से बढ़ा है? या यह तीन कानूनों से बढ़ा है? या हरित क्रांति के साथ ही चल रहा है?
• दर्शन पालः--इसका तीन कानून से तो कोई लिंक नहीं है। यह आने वाले समय में कैसे बनेगा वह तो अलग बात है। लेकिन अभी कोई सीधा रिश्ता नहीं है। क्योंकि यह तो अभी एक साल पहले आए।
• अरुण त्रिपाठीः--- तीन कानून तो अभी लागू भी नहीं हुए हैं ठीक से।
• दर्शन पालः---हां। पहले टर्म्स ऑफ ट्रेड खेती के खिलाफ हुआ, फिर किसानों की कर्जदारी बढ़ी और फिर आत्महत्या होने लगी। यह एक सिलसिला बना। जैसे मलेरिया होता है, बुखार होता है, सर्दी लगती है पसीना आता है बुखार उतरता है फिर आठ घंटे के बाद बुखार फिर चढ़ता है। उसी तरह हम इसे पहचान सकते हैं कि कृषि में इस तरह का संकट आ गया है। एग्रोइकानामिस्ट का कहना है कि किसान अपनी मेहनत से इससे बाहर नहीं निकल सकते। वह मरेगा। वह मर रहा है और सुसाइड (खुदकुशी) के जरिए वह मर रहा है। यह जो स्थिति है वह सत्तर के दशक और अस्सी के दशक में आनी शुरू हो गई थी। पहले उत्पादन की लागत बढ़ी फिर परेशानी पैदा हुई। इसके बारे में हम कहते थे कि जो पहले की हरित क्रांति थी वह अब पीली होनी शुरू हो गई। इसलिए ग्लोबलाइजेशन के दौर में यह ज्यादा तेज हो गया। ज्यादा विशाल हो गया।
• अरुण त्रिपाठीः—कृषि संकट के विरुद्ध कैसी प्रतिक्रियाएं सामने आ रही थीं?
• दर्शन पालः--- कृषि संकट के जो विभिन्न लक्षण हैं उस पर अलग अलग तरह से लोग प्रतिक्रिया कर रहे थे। जैसे लोग सुसाइड को लेकर लड़ रहे थे। कुछ मुआवजा मांग रहे थे। वे कह रहे थे कि सुसाइड को रोका जाए। कुछ संगठन इसको लेकर लड़ रहे थे। जबकि वामपंथी संगठन किसानों को बांट कर देख रहे थे। वे उन्हें मालिक किसान, मजदूर किसान और कुलक वगैरह में बांट कर देख रहे थे। उनमें अंतर्विरोध देख रहे थे। कहते थे कि वे सब एक दूसरे के दुश्मन हैं। फिर वे कहते थे कि हमें एमएसपी के लिए नहीं लड़ना चाहिए क्योंकि यह मालिक किसानों की लड़ाई है। इससे बड़े किसानों का फायदा होता है। हमें कॉस्ट आफ प्रोडक्शन (खेती की लागत) कम करने के लिए लड़ना चाहिए। इस तरह के बहुत सारे संगठन अलग अलग तरीके से लड़ रहे थे। किसान संगठन अलग अलग खेमों में बंटे हुए हैं। विचारों के आधार पर भी और उनकी जो राजनीतिक दृष्टि और क्षेत्र है उसके आधार पर भी। लड़ने का जो तौर तरीका था उसको लेकर भी। यह संघर्ष अलग अलग जगह पर हो रहे थे। इसमें किसान यूनियनों का गठन एक मील का पत्थर साबित हुआ। जितनी किसान यूनियनें बनी हैं वह टिकैत की हो, नंजुदास्वामी की हो, वो (शरद) जोशी जी की हो या पंजाब के लक्खोवाल, मान और भूपिंदर सिंह की हो, आप उसमें एक कॉमन फैक्टर यह देखेंगे कि यह उस समय लड़ाई में आते हैं जब पूंजी की दखल खेती में हो जाती है। जब मंडियां आ जाती हैं। उत्पादन की लागत बढ़ने लगती है मुनाफा गिरने लगता है। मंडी में माल बिकता नहीं है। इन सब चीजों के लिए टिकैत साहब, मान साहेब, राजेवाल साहब यह सब मिलकर लड़ते हैं। अपनी अपनी जगह में। कर्नाटक में नंजुदास्वामी, महाराष्ट्र में शरद जोशी, यूपी में टिकैत साहब, हरियाणा में घासीराम नैन साहेब यह सब खड़े होते हैं। यह जो अलग अलग पर्सनालिटी हैं या संगठन हैं वे कृषि के एक मॉडल के संकट से निकले हुए संगठन और व्यक्ति हैं। इन्होंने आपस में समन्वय करने की कोशिश भी की। लेकिन उसमें इनका व्यक्तिवाद और सांगठनिक टकराव इतना था कि वे इकट्ठे हो भी जाते तो फिर लड़कर बिखर जाते।
• अरुण त्रिपाठीः--आप के आंदोलन ने उसे एक बनाया है।
• दर्शन पालः--हां। हमारे आंदोलन ने एक हद तक उस अस्मिता को निर्मित किया है।
• अरुण त्रिपाठीः--आप जो अंतर्विरोध बता रहे हैं जैसे कि बड़े किसान, छोटे किसान, बड़ी जाति के किसान छोटी जाति के किसान, मालिक मजदूर। यह सारे जो अंतर्विरोध थे उन्हें आपने एक हद तक हल किया है।
• दर्शन पाल- हां हुआ है, कुछ हुआ है।
• अरुण त्रिपाठीः-- यूपीए और एनडीए की नीतियों में कृषि के बारे में क्या अंतर देखते हैं ? क्या एनडीए के समय में कारपोरेट ज्यादा हावी हो गया है और पहले कम था? मनमोहन सिंह के समय में खेती की क्या स्थिति थी और मोदी के समय में क्या है? खेती के प्रति मनमोहन सिंह और मोदी का रुख क्या है? इस अंतर को भी आप स्पष्ट करें।
• दर्शन पालः---जैसे एलपीजी का दौर शुरू होता है तो उसमें मनमोहन सिंह, नरसिंह राव, पी चिदंबरम जो नीतियां (नई आर्थिक नीतियां) लेकर आए थे वे एक बड़े संकट से जुड़ी चीजें थीं। एक तरफ भारत में उदारीकरण हो रहा था तो दूसरी ओर गैट समझौता हो रहा था। डब्ल्यूटीओ बन रहा था। उसमें हर सेक्टर के ऊपर समझौते हो रहे थे। दुनिया में ढांचागत परिवर्तन यानी रीस्ट्रक्चरिंग हो रही थी। वह कोशिश डॉ. मनमोहन सिंह के दौर से शुरू हो गई थी। उस समय भी संसद में उन्होंने जो कानून पास किए वो बड़ी कंपनियों के पक्ष के थे। मनमोहन सिंह के शासन में लोगों ने बदलाव तो शुरू किया लेकिन उसे धीरे धीरे करना शुरू किया। आज रेलवे को बेचने की बात हो रही है। उस समय कोई सोचता नहीं था कि रेलवे कभी बिक जाएगा। कन्सेप्ट के लेवल पर और परशेप्सन (नजरिए) के लेवल पर चीजों को एडाप्ट करवाने (अपनाने) में समय लगता है।
• अरुण त्रिपाठी- डायरेक्शन दोनों का एक ही है लेकिन स्पीड का फर्क है।
• दर्शन पालः--हन्ड्रेड परसेंट। डायरेक्शन एक है लेकिन स्पीड का फर्क है। अगर उस समय ये होते तो ये भी वैसे करते और आज अगर वे होते तो वे भी इसी स्पीड से करते। दुनिया में इस गति को और इस दिशा को जनता का कोई बड़ा आंदोलन ही रोक सकता है। कोई छोटा देश हो या बड़ा देश हो जिसे इस वैश्वीकृत दुनिया में डब्लूटीओ के अधीन काम करना है, या उसे इस पूरे पोलिटिकल फ्रेमवर्क में काम करना है तो उसे ऐसे आर्थिक ढांचे में काम करना है जहां कारपोरेट जगत का वर्चस्व है। ऐसे ही कानून बनाने पड़ेंगे उन्हें। थोड़ा बहुत डिले (देरी) कर सकते हैं।
• अरुण त्रिपाठीः--यह आंदोलन कैसे शुरू हुआ?
• दर्शन पालः-- इसमें एक मील का पत्थर है मंदसौर में छह किसानों की शहादत। छह किसान शहीद हुए। वह ल़ड़ाई थी कृषि के संकट के खिलाफ। क्योंकि उनको गेहूं का रेट पूरा नहीं मिल रहा था। उस समय पिपलिया मंडी में जब छह किसान शहीद हुए तो उन किसानों के पास मिलने के लिए तमाम नेता पहुंचने लगे। उसने किसान आंदोलन के लोगों को झिंझोड़ा और किसान नेता इकट्ठे हुए। पहली बार राइट टू लेफ्ट, रेडिकल लेफ्ट टू रेडिकल राइट सेंटर सब विचारों के लोग दिल्ली के जीपीएफ (गांधी शांति प्रतिष्ठान) में इकट्ठे हुए। उन्होंने प्लान किया कि हमें किसानों के दो मुख्य मुद्दों को लेकर आगे बढ़ना होगा। एक है पूरा दाम यानी एमएसपी और दूसरा है कर्ज मुक्ति। दो मुद्दे लेकर हमें तुरंत लड़ाई शुरू करनी चाहिए। कर्ज के अंदर सुसाइड भी आता है, सरकार की निवेश की नीति भी आती है। दोनों को लेकर एक मोर्चा बनने की संभावना शुरू हुई। जो मोर्चा आगे बढ़कर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नाम से जाना जाता है। इसे लेकर दिल्ली में पहली बार दो बड़े बड़े सम्मेलन हुए और देश में यात्राएं हुईं। लगातार समन्वय की कोशिश हुई। इससे किसान संगठनों की एकता बनती गई। जब यह तीन कानून आए तो उस समन्वय समिति ने उसके खिलाफ पूरा प्रचार करना शुरू किया। इन तीन कानूनों के विरोध में कोराना लॉकडाउन में ऑल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति ने पूरे देश में एक आंदोलन शुरू करने का फैसला लिया गया और तीसरे चरण में यह आंदोलन एक नए रूप में आता है।
• अरुण त्रिपाठीः-- हिंदुत्व औऱ कॉरपोरेट का एक गठजोड़ बना हुआ है। उनका आत्मविश्वास बना हुआ है कि हम जो नीतियां बनाएंगे उसका लोग विरोध नहीं कर पाएंगे। लेकिन उसका उल्टा असर भी हो रहा है। लोग बहुसंख्यकवाद के चलते यह महसूस करने लगे कि लोकतंत्र कुचला जा रहा है। इसलिए लोग उठ खड़े हुए। किसान आंदोलन ने आर्थिक पहलू को तो उठाया ही लेकिन लोकतंत्र के मसले को भी उठाया है। जो लोग पहले डरे हुए थे कि कुचल दिए जाएंगे वे किसान आंदोलन के बहाने खड़े हो गए। इस पर क्या कहते हैं आप?
• दर्शन पालः--- शुरू में हमारे सोच में ऐसी बात नहीं थी कि हम कोई डेमोक्रेसी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हम कोई बहुसंख्यकवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं। हम कोई फासीवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं। उस समय एकदम ऐसी बात नहीं थी। उस समय यही था कि इस लॉकडाउन के खिलाफ हम कैसे एमएसपी का मुद्दा जोड़ कर लड़ें। आज मुझे लगता है कि उसी समय हमें कर्ज का मुद्दा भी जोड़ देना चाहिए था जो हमसे गलती हो गई। अरुण त्रिपाठी—क्योंकि मंदसौर से एक ट्रिगर प्वाइंट मिला था इसलिए यह आंदोलन खड़ा हुआ। यानी वह मुद्दा पंजाब की बजाय मध्य प्रदेश से मिला। लेकिन ताकत पंजाब से आई और तब लोकतंत्र का सवाल भी जुड़ा।
· दर्शन पालः-पहले मंदसौर में इकट्ठा हुए। तीन कानूनो के खिलाफ लड़ाई का बिगुल बजाया। यह जो 26 -27 नवंबर 2020 को दिल्ली आने का कार्यक्रम बना वह एआईकेसीसीसी का मूल फैसला था। हमने बाद में उसे एडाप्ट किया। यह जो घटनाओं का क्रम है उसमें शुद्ध रूप से तीन कानून और एमएसपी जैसे कुछ मुद्दों को जोड़ कर रखा था। जितने भी देश में बुद्धिजीवी, पत्रकार, कलाकार हैं उन पर जो केस हैं वे वापस लिए जाएं। इनके मुद्दों को बाद में जोड़ा गया। जैसे ही किसानों ने दिल्ली की ओर रुख किया फिर वह डिमांड नीचे चली गई। अगर पंजाब के किसान दिल्ली न आते तो आंदोलन दिल्ली नहीं आ सकता था। क्योंकि पंजाब का माहौल ऐसा बन गया था कि वहां कांग्रेस, अकाली दल, आम आदमी पार्टी सभी इस आंदोलन के साथ हो चले थे। असेंबली में मत (प्रस्ताव) पास हो गया था। सिखों की जो शख्सियतें थीं, संस्थाएं थीं उन्होंने मत पास कर दिए थे। पूरा पंजाब एकजुट होकर 26 नवंबर को दिल्ली की ओर चला। हरियाणा उसमें आगे था। कुछ रूप में हरियाणा पहले भी आगे रहा है। लेकिन मूल रूप में पंजाब के लोग आए थे और सिख समुदाय का आंदोलन में योगदान काफी बड़ा है। लेकिन जैसे ही यह आंदोलन देशव्यापी आंदोलन बन गया तो इसमें एसकेएम के रूप में देशव्यापी समन्वय की कोशिश हुई। अब जैसे ही उधर (सरकार की ओर) से रेजिस्टेंस आया, मोदी और अमित शाह का दबाव बना तो दो शक्तियों के बीच अंतर्विरोध तेज हुआ। इस तरह इसमें डेमोक्रेसी वाला तत्व भी सामने आया।
• अरुण त्रिपाठीः-- आंदोलन में अलगाववादी लोगों की कितनी भागीदारी है? इसमें बाहर के लोगों का कितना योगदान है? 26 जनवरी की घटना भी प्रमाण के तौर पर पेश आती है। हाल में एक निहंग ने जो किया उससे भी आरोप को मजबूती मिलती है। पंजाब में अभी भी जो अलगाववादी हैं उनके बहाने सिख कट्टरपंथ का आरोप भी लगाया जाता है। इसके अलावा कहा जाता है कि देश में दक्षिणपंथी राजनीति के वर्चस्व के बाद वामपंथी हाशिए पर चले गए थे। इस आंदोलन के माध्यम से वे अपनी खोई हुई जमीन हासिल करना चाहते हैं। आप इन आरोपों के बारे में बताएं।
• दर्शन पालः-- जब यह आंदोलन बन गया तो उसमें तमाम ताकतों की भागीदारी हुई। क्योंकि तमाम वैचारिक ताकतें हैं उनका एक फ्रेमवर्क है और उनका एक निशाना है। चूंकि इसमें पंजाब के लोग ज्यादा थे और पंजाब में सिखों की जो संस्थाएं हैं उन्होंने काफी योगदान दिया था। यह कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं है कि सिखों में जो अलगाववादी हैं या खालिस्तान समर्थक लोग हैं उनका एक इनवाल्वमेंट (भागीदरी) था इसमें और वे चाहते थे कि वे इसको जैसी दिशा देना चाहें वैसी दिशा मिलनी चाहिए। दूसरी बात क्योंकि आल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति में और आंदोलन शुरू करने वाले पंजाब के संगठनों में बहुत सारे किसान संगठन थे जो वामपंथियो के थे। इसलिए उनकी हाजिरी होने और किसी के एक्टिव होने से किसी को लग सकता है कि इसमें वामपंथी हावी होना चाह रहे हैं। चूंकि आंदोलन मंदसौर से शुरू होकर पंजाब तक आया और वे उस ढांचे का हिस्सा थे इसलिए वे इसमें दिखे। लेकिन मेरी दूसरी किस्म की आपत्ति है।
मेरा कहना है कि जिस एनर्जी से और जिस एबिलिटी से वामपंथियों को शामिल होकर मदद करनी चाहिए थी वो नहीं कर रहे हैं। यह बात सही है कि 26 जनवरी को जो एक चीज हुई वह एक तरह की अपवाद वाली घटना थी। वो मोर्चे की लीडरशिप नहीं चाहती थी। उसकी इस तरह की कोई सोच नहीं थी। बल्कि उस घटना के चलते नेतृत्व को झेलना पड़ा। मेजारिटी लीडरशिप को झेलना पड़ा और आंदोलन गिरते गिरते बचा।
• अरुण त्रिपाठी---आंदोलन को नुकसान हुआ उससे। उसकी छवि को धक्का लगा।
• दर्शन पालः--जी हां। मैं यह सोचता हूं कि देश के पैमाने पर हिंदुओं, मुसलमानों, सिखों, ईसाइयों के जो धर्म गुरु हैं वे सब मिलकर एक सर्वधर्मसभा करें और किसानों की मदद की अपील करें। इसमें बुराई क्या है करनी चाहिए। अगर सभी पार्टियां कर सकती हैं तो सब धर्मों के लोग क्यों नहीं करेंगे। क्योंकि हर मंदिर में, हर गुरुद्वारे में, हर मस्जिद में जो पकवान पकते हैं उसका कच्चा माल तो किसान ही देता है। किसान हर इंसान को जिंदगी जीने के लिए जन्म से मृत्यु तक इनर्जी प्रोवाइड करता है। अन्नदाता के लिए क्यों नहीं आगे आना चाहिए। उसके लिए तो भगवान को भी आना चाहिए। तीसरा यह जो निहंगों वाली घटना घटी है वह एक संयोग है। यहां मैं फिर कहना चाहता हूं कि पंजाब का बच्चा बच्चा हर संस्थान आंदोलन के साथ जुड़ा हुआ था। जुड़ा हुआ है। उसमें इस तरह के माहौल में जो लंगर आए तो संस्थाएं आईं। उनमें बहुत सारे लोग प्योर सिखी के रूप में भी सोचने वाले थे और आज भी हैं। लेकिन अगर वे किसान आंदोलन को किसानी के मुद्दों के तौर पर नहीं सोचेंगे तो वे आंदोलन का नुकसान करेंगे। निहंगों वाली घटना नहीं घटनी चाहिए थी। अगर उस तरह की कोई बेअदबी हुई भी थी तो उसे पकड़ कर रखना चाहिए था। उनको हैंडओवर करना (सौंप देना) चाहिए था। जो हुआ वह ठीक नहीं हुआ। सजा उसको मिलनी चाहिए थी अगर बेअदबी हुई है तो। लेकिन उसके बारे में सच निकालना चाहिए था। अंतिम में जो चीजें बाद में सामने आ रही हैं उससे थोड़ा डाउट (संदेह) भी खडा होता है।
·अरुण त्रिपाठीः--किसी मंत्री के फोटो वगैरह भी सामने आई है।
·दर्शन पालः---जी। संदेह हो रहा है कि इस मामले में किसी एजेंसी का हाथ तो नहीं है। मुझे तो निजी तौर पर लगता है कि 26 जनवरी को जिस तरीके से रास्ता देने के लिए, रास्ते पर लोगों को जाने देने के लिए छूट मिली या जिस तरह के लोगों को जाने दिया गया, वह भी एक ट्रैप था। हम लोग ट्रैप में फंसे। हम ढंग से उस चीज को हैंडल नहीं कर पाए। हमारा नुकसान हुआ हमारी नाकामी हुई।
·अरुण त्रिपाठी—कब तक चलाएंगे इस आंदोलन को? अगर कानून हट गए तो क्या आंदोलन वापस ले लेंगे ?
·दर्शन पालः- एक पार्ट यह है और दूसरा पार्ट यह है कि अगर एकता का यह आंदोलन बढ़ता है तो जो लोग राजसत्ता को केंद्रीकृत कर रहे हैं इस आंदोलन ने उनके विरुद्ध एक बड़ी ताकत खड़ी की है। पता नहीं यूपी इलेक्शन में क्या होगा वह मुझे नहीं मालूम। लेकिन अगर पंजाब का किसान अन्नदाता है तो तमिलनाडु का किसान भी अन्नदाता है। उसकी भी सामाजिक पहचान है। वह एक बड़ी क्लास है। बौद्धिकों ने जिस मात्रा में इसको मान्यता दी है वह बड़ी बात है। यह किसान रीढ़ की हड्डी की तरह खड़े हुए हैं। अगर इसमें कोई एक सेंटर बन जाए जो दिमाग का भी काम करे तो देश में बड़े परिवर्तन की संभावना बनती है। हालात ऐसे बन रहे हैं कि अगर यह तीन कानून चले भी जाएं तो भी संयुक्त किसान मोर्चा, उससे निकला किसानों का आंदोलन और देश के लोगों का आंदोलन किसी न किसी रूप में जारी रहेंगे।
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